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भारतीय कोच की जर्सी और परदेसी कोच

२७ अप्रैल २०११

डंकन फ्लेचर दो साल के लिये भारतीय क्रिकेट टीम के कोच होंगे. जॉन राइट, ग्रेग चैपल व गैरी कर्स्टन के बाद चौथे विदेशी राष्ट्रीय कोच. ग्रेग चैपल के अलावा बाकी दोनों विदेशी कोचों को अत्यंत सफल कहा जा सकता है.

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तस्वीर: AP

सिर्फ राष्ट्रीय टीम में ही नहीं, आईपीएल में भी लगभग सभी टीमों के कोच विदेशी हैं, और टीमों के साथ उनकी अच्छी खप रही है. आम तौर पर जब कोच चुनने का सवाल आता है, तो विदेशी नामों पर ही चर्चा हो रही है. वैसे भारत में भी मोहिंदर अमरनाथ, संदीप पाटिल या रोबिन सिंह काफी सफल रहे हैं. मार्के की बात है कि इस पर विरोध के स्वर भी बहुत तीखे नहीं लग रहे और सिर्फ भारत ही नहीं, उपमहाद्वीप के बाकी देशों में भी विदेशी कोच की परंपरा बन चुकी है, यहां तक कि पाकिस्तान में भी. कहीं भी यह अनुभव खास बुरा नहीं रहा है.

लेकिन विदेशी कोच के लिये यह काम आसान नहीं होता है. खासकर भारतीय टीम के कोच के लिये क्रिकेट के अलावा मीडिया व बोर्ड के साथ संबंध भी बहुत जरूरी होता है. बेहतर यही होता है कि ये संबंध कम से कम रखे जायं. फिर ऐसे संबंधों में समस्या की संभावना भी कम रहती है.

भारत में कोच बनने के लिये सबसे पहले यहां की मानसिकता को समझना जरूरी होता है, जिसमें ड्रेसिंग रुम की मानसिकता भी शामिल है. कोच अगर खुद अच्छे खिलाड़ी न रहे हों, तो उन्हें खिलाड़ियों से इज्जत नहीं मिलती. राइट और कर्स्टन दोनों चोटी के टेस्ट खिलाड़ी रहे हैं, डंकन फ्लेचर भी इसी श्रेणी में आते हैं. लेकिन चोटी का खिलाड़ी होना ही काफी नहीं है, जैसा कि ग्रेग चैपल के अनुभव से स्पष्ट है. भारतीय खिलाड़ी स्टार रह चुके किसी खिलाड़ी को कोच के रूप में चाहते हैं, जो कोच बनने के बाद स्टार बनने की कोशिश न करे.

इस लिहाज से देखा जाय तो भारतीय कोच की नौकरी बहुत आकर्षक नहीं है. क्रिकेट के व्यस्त कैलेंडर के चलते लगातार खिलाड़ियों के साथ पहियों पर रहना पड़ता है. पैसे बुरे नहीं मिलते, लेकिन खिलाड़ियों की तरह नहीं और न वैसी शोहरत मिलती है. शायद यह भी एक कारण है कि जबकि दूसरे देशों के पूर्व खिलाड़ी कोचिंग की ओर जाते हैं, भारत में पूर्व खिलाड़ियों के बीच ऐसी रुझान कुछ कम देखी जाती है.

इन सारी दिक्कतों के बाद अगर कोई कोच कामयाब हो पाता है, तो उसे ऐसा कुछ मिलता है जिसे पैसों के जरिये हासिल नहीं किया जा सकता. खिलाड़ियों और फैन्स का आभार, उनका बेशुमार प्यार. वर्ल्डकप जीतने के बाद कर्स्टन को कंधे पर उठाकर मैदान में घूमने की सीन की याद अभी ताजी ही है. शायद यह भी एक वजह है कि कोचों की दुनिया में मशहूर नामों के लिए भारतीय कोच का पद एक चुनौती के साथ साथ आकर्षण बना हुआ है.

रिपोर्ट: उज्ज्वल भट्टाचार्य

संपादन: एन रंजन

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