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सदमे से सहमे लोगों को समय दो

२७ जुलाई २०११

नॉर्वे के हमले को करीब से देख चुके लोगों के जहन में अभी सिर्फ खूनी यादें, डरावने सपने, गुस्सा, डर और फिक्र का माहौल है. मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि फौरी इलाज की जगह उन्हें थोड़ा वक्त दिया जाए, ताकि वे खुद सामान्य हो सकें.

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तस्वीर: dapd

उनका कहना है कि इस मामले में बेहतर है कि लोगों को प्राकृतिक तरीके से सामान्य होने का मौका दिया जाए क्योंकि कुछ लोगों ने अपने करीबी लोगों को मरते देखा है तो कुछ ने मरने से बचने के लिए खुद मरे हुए होने का नाटक किया है. इन चीजों का असर लाजिमी है और उन्हें कम से कम कुछ हफ्तों का वक्त दिया जाना चाहिए. जानकारों का कहना है कि नॉर्वे के लोग इस सदमे से जरूर उबर जाएंगे और अगर तरीके से इलाज किया जाए तो यह काम बेहतर ढंग से किया जा सकता है.

लंदन की मनोवैज्ञानिक मोनिका थॉम्पसन का कहना है कि 11 सितंबर, 2001 और 2005 के लंदन बम विस्फोट के बाद इस बारे में बहुत कुछ सीखने को मिला. उन्होंने लंदन हमलों के पीड़ितों का इलाज किया है. लंदन की राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्था एनएचएस फाउंडेशन ट्रस्ट से जुड़ीं थॉम्पसन का कहना है, "इस बात को समझा जा सकता है कि जो लोग सदमे में गए हैं या जो सहमे हुए हैं, उन्हें ठीक होने में थोड़ा वक्त तो लगेगा. लेकिन देखा जाता है कि ऐसे मामलों में लोग बिना किसी नुकसान के ठीक हो जाया करते हैं."

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तस्वीर: dapd

भारत में भी जरूरत

भारत में भी मुंबई के 2008 के आतंकवादी हमलों के बाद कई लोग काफी दिनों तक सदमे में रहे और इस दौरान उनका भी मानसिक इलाज कराना पड़ा. हालांकि धीरे धीरे उन लोगों का जीवन पटरी पर लौट आया. नवंबर, 2008 में मुंबई में 10 आतंकवादी हमलावरों ने तीन जगहों पर आतंकवादी हमला किया और पुलिस के साथ लगभग तीन दिनों तक चली मुठभेड़ में 166 लोग मारे गए.

इस बीच नॉर्वे के आरोपी आंदर्स बेहरिंग ब्रेविक की मानसिक स्थिति पर भी चर्चा चल रही है. मनोवैज्ञानिक, वकील और पुलिस इस बात का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि ब्रेविक अब किस मानसिक स्थिति में है और हमले के वक्त वह किस स्थिति में रहा होगा. आरोप है कि ब्रेविक ने ओस्लो के सरकारी दफ्तरों के पास एक बम हमला किया और बाद में एक द्वीप में घुस कर लोगों को अपनी गोलियों का निशाना बनाया. इस पूरे कांड में कम से कम 76 लोग मारे गए.

इलाज से पहले देखभाल

थॉम्पसन का कहना है कि इस हादसे में बचे लोगों के रिश्तेदारों और उनके नजदीकियों को उन पर ध्यान देने की जरूरत है लेकिन इस बात का भी ख्याल रखा जाना चाहिए कि उन्हें आपा धापी में डॉक्टरी इलाज के लिए तब तक नहीं भेजा जाए, जब तक उन्हें इसकी जरूरत न हो. थॉम्पसन कहती हैं, "9/11 के बाद उन्होंने सभी लोगों की काउंसलिंग करानी शुरू कर दी और सभी का एक साथ इलाज शुरू हो गया. लेकिन उससे कोई मदद नहीं मिली क्योंकि इस घटना से जुड़े बुरे सपने, बुरे विचार और सदमों का महसूस करना बेहद सामान्य बात है. इससे प्राकृतिक तरीके से ही निपटा जाना चाहिए."

उनका कहना है कि कुछ हफ्तों तक ऐसी चीजें याद आएंगी कि जब हमलावर ने फायरिंग शुरू की, तो किस तरह किसी व्यक्ति के शरीर से खून की धारा फूट पड़ी और जब बंदूक से गोली निकल रही थी तो मारे गए व्यक्ति की आंखों में क्या भाव थे. ऐसी बातें धीरे धीरे ही हल होंगी. इस तरह की घटना को करीब से देखने वाले लोगों में से 20 से 30 प्रतिशत लोग एकाध महीने बाद भी मानसिक दबाव में रहते हैं और पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसॉर्डर (पीटीएसडी) के शिकार हो सकते हैं.

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अपराधबोध से निकलना होगा

लंदन के किंग्स कॉलेज की मनोवैज्ञानिक जेनिफर वाइल्ड का कहना है कि फायरिंग को नजदीक से देख चुके लोगों के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपराधबोध, नुकसान और डर से पार पाने की होती है. उनका कहना है, "सबसे मुश्किल काम बचे हुए लोगों के अपराधबोध की भावना को दूर करना होता है. चूंकि ये चीज बहुत अप्रत्याशित होती है, इसलिए डर का भी भाव होता है कि इस दुनिया में किसी चीज का भरोसा नहीं और कोई भी चीज कभी भी हो सकती है. जब ऐसी बातें किसी व्यक्ति के मन में घर बसा लेती हैं, तो इससे उनके व्यवहार पर भी असर पड़ने लगता है."

जानकारों का कहना है कि जिन लोगों के जेहन से घटना की याद नहीं निकल रही हो और जो इस वजह से रात में नहीं सो पा रहे हों, उन्हें मनोवैज्ञानिकों से मुलाकात करनी चाहिए और ट्रॉमा से जुड़े खास इलाज पर ध्यान देना चाहिए. इसमें व्यवहार चेतना थेरेपी (सीबीटी) भी शामिल है, जिसमें उस व्यक्ति से उस घटना के बारे में बात की जाती है, उनके अनुभव सुने जाते हैं और उन्हें समझाया जाता है ताकि धीरे धीरे लंबे वक्त में उन्हें यह याद आना बंद हो जाए.

नॉर्वे में काम कर चुकीं वाइल्ड का कहना है कि स्वास्थ्य अधिकारियों को वहां भी जांच करने के बाद इलाज पर ध्यान (स्क्रीन एंड ट्रीट) देना चाहिए. लंदन बम हमलों के बाद भी ऐसा ही किया गया था. उनका कहना है कि यह कार्यक्रम बहुत प्रभावी साबित हुआ.

वाइल्ड का कहना है, "इन बड़ी त्रासदियों और दुखद घटनाओं के बाद एक बात तो सामने आई है कि मानव जाति में दोबारा उठ खड़े होने की क्षमता होती है." उनका कहना है, "एक राष्ट्र इस सदमे से उबर सकता है."

रिपोर्टः रॉयटर्स/ए जमाल

संपादनः ए कुमार

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