लोकतंत्र के लिए मजाक है प्रशांत भूषण पर एक रूपये का जुर्माना
३१ अगस्त २०२०जाने माने अधिवक्ता प्रशांत भूषण के खिलाफ अदालत की अवमानना का जो मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था वो एक मौका था दो ऐसे सवालों पर मंथन का जो भारत में लोकतंत्र के लिए अत्यंत आवश्यक हैं. एक, क्या देश में भ्रष्टाचार की पहुंच सर्वोच्च न्यायालय के जजों तक भी है और दूसरा, क्या न्यायपालिका जैसी संस्था के संबंध में यह सवाल उठाना कानून की नजर में एक अपराध होना चाहिए?
सुप्रीम कोर्ट ने भूषण को अपराधी ठहरा कर इस सवालों को और गंभीर बना दिया है. एक तो आलोचना पर सख्त रुख अपना कर भविष्य में सवाल उठाने वालों को हतोत्साहित करना और फिर एक रूपया जुर्माने की सांकेतिक सजा देकर अपने ही फैसले के खोखलेपन को उजागर करना. ये सजा इस बात का संकेत है कि फैसला देने वाली तीन जजों की पीठ को अपने ही फैसले पर पूरी तरह से विश्वास नहीं है. उसके ऊपर से जजों का यह कहना और भी हास्यास्पद लगता है कि उन्होंने भूषण को माफी मांगने का पूरा अवसर दिया था.
सोचिए, क्या यह अपने आप में विरोधाभासी नहीं लगता कि एक तरफ तो जज कह रहे हैं कि उन्हें बड़े भारी हृदय से भूषण को एक ऐसे बयान के लिए सजा देनी ही पड़ेगी जो उनकी नजर में एक गंभीर अपराध है और दूसरी तरफ सजा सुनाते हैं एक रुपये जुर्माने की. हां, फैसले को कड़ा दिखाने के लिए उसमें यह जरूर जोड़ दिया गया है कि पंद्रह दिनों के अंदर जुर्माना ना भर पाने की सूरत में भूषण को तीन महीने की जेल हो जाएगी और वो तीन सालों तक वकालत नहीं कर पाएंगे.
लोकतंत्र और अवमानना
यह मुकदमा अपने पीछे जो बड़ा सवाल छोड़ गया है, वो यही है कि क्या एक परिपक्व लोकतंत्र में अदालत की अवमानना जैसे कानून की कोई जगह है भी? विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के तीन स्तंभ हैं और भारत के संविधान ने लोकतंत्र के संतुलित और न्यायपूर्ण परिचालन के लिए जरूरी अधिकारों को तीनों स्तंभों में बांटा है.
यानी तीनों स्तंभ समान रूप से शक्तिशाली हैं और तीनों के कंधों पर लोकतंत्र को चलाने की एक गंभीर जिम्मेदारी है. ऐसे में क्या ये तर्कसंगत है कि एक स्तंभ की आलोचना स्वीकार्य हो और दूसरे की नहीं? जब सरकार की अवमानना नहीं होती तो अदालत की अवमानना कैसे हुई?
सरकारें अक्सर उनकी आलोचना करने वालों की आवाज दबाने की कोशिश करती हैं और ऐसा करने से उनकी आलोचना और बढ़ जाती है. तो क्या अदालत की आलोचना करने वालों को अपराधी बता कर अदालत भी आलोचना के रास्ते बंद नहीं कर रही है? अगर आलोचना ही रुक जाएगी तो सुधार कैसे होगा? क्या अदालत यह मान कर बैठी है कि उसकी कार्य पद्धति उत्कृष्ट है और उसमें सुधार की गुंजाइश है ही नहीं?
अवमानना की मनमानी सजा
भूषण को तो सिर्फ टोकन सजा सुनाई गई है, लेकिन उनके पहले एक दूसरे मामले में अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने तीन दूसरे अधिवक्ताओं को भी अदालत की अवमानना का दोषी करार देते हुए तीन महीने की जेल की सजा सुनाई थी. इन अधिवक्ताओं का जुर्म यह था कि इन्होंने सुप्रीम कोर्ट के ही तीन जजों के खिलाफ राष्ट्रपति से शिकायत की थी और उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की थी.
यह मुकदमा साफ दिखाता है कि अवमानना के मामलों में सजा सुनाने में अदालत मनमानी करती है. यह अपने आप में भारत की न्याय व्यवस्था की एक त्रुटि है. क्या यह कहना भी अवमानना है? आज नहीं तो कल सुप्रीम कोर्ट को यह समझना होगा कि अवमानना का कानून लोकतंत्र की अवधारणा के विपरीत है और लोकतांत्रिक व्यवस्था में सुधार के रास्ते में एक अवरोधक है. लोकतंत्र के हित में अगर इसे तुरंत हटाया ना भी जाए तो भी कम से कम इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा जरूरी है.
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