अमेरिका को चीनी ललकार
१४ नवम्बर २०१०थॉमसन और रॉयटर्स की एक रिपोर्ट कहती है कि एशिया और यूरोप जल्दी ही साइंस के मामले में अमेरिका को कड़ी टक्कर देंगे. चीन ने तो इतनी तरक्की की है कि वह अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर पहुंच गया है. इस रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका का ज्यादा जोर जीव विज्ञान और मेडिकल साइंस पर है इसलिए भौतिक विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में दूसरे देशों के लिए काफी संभावनाएं हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक, "30 साल पहले साइंस की दुनिया पर और रिसर्च के मामले में अमेरिका का दबदबा हुआ करता था अब वैसा नहीं रहा है. अब यूरोपीय संघ के 27 देश और एशिया पैसिफिक के देश उसके बराबर आ खड़े हुए हैं."
समाचार एजेंसी रॉयटर्स की मालिक कंपनी थॉमसन रॉयटर्स दुनिया में साइंस की दुनिया के बारे में लगातार शोध करती है. वह अपने वेब ऑफ साइसेंज के जरिए दुनिया के सारे प्रभावशाली रिसर्च पेपरों पर नजर रखती है. वैज्ञानिक और इंजीनियर अपने काम को इन्हीं रिसर्च जर्नलों के जरिए सार्वजनिक करते हैं और आलोचकों के सामने रखते हैं.
रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, "अब भी अमेरिका में वैज्ञानिक शोध की स्थिति काफी अच्छी है. इसकी वजह पैसा है जो जीडीपी का लगभग 2.8 फीसदी है. वहां बहुत अच्छे शिक्षण संस्थान हैं जो दुनियाभर की प्रतिभाओं को अपनी ओर खींचते हैं. और वहां के प्रतिभाशाली लोग भी इस काम में बड़ा योगदान दे रहे हैं."
फिर भी अमेरिका का असर कम हो रहा है. इसकी वजह यह नहीं है कि अमेरिका में काम कम हो रहा है बल्कि दूसरे देश ज्यादा काम कर रहे हैं. थॉमसन के जोनाथन एडम्स और डेविड पेंडलबरी ने अपनी रिपोर्ट में पाया है, "1981 में अमेरिकी वैज्ञानिकों ने दुनिया के प्रभावशाली जर्नलों में 40 फीसदी रिसर्च पेपर छपवाए. 2009 तक आते आते यह प्रतिशत घटकर 29 रह गया. इसी दौरान यूरोपीय देशों का हिस्सा 33 फीसदी से बढ़कर 36 फीसदी हो गया. सबसे बड़ा कमाल एशिया प्रशांत क्षेत्र के देशों ने किया. इन देशों का हिस्सा 13 फीसदी से बढ़कर 31 फीसदी तक पहुंच गया."
इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में अब रिसर्च पेपरों के मामले में चीन दूसरे नंबर पर आ गया है. उसका हिस्सा 11 फीसदी है. पहले नंबर पर अब भी अमेरिका कायम है.
रिपोर्टः एजेंसियां/वी कुमार
संपादनः ए कुमार