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सऊदी अरब में एक के बाद एक बदलाव का राज

२ जुलाई २०२१

सऊदी अरब में पिछले एक महीने से लगभग हर हफ्ते नए सामाजिक सुधारों की घोषणा हो रही है. कुछ लोग इसे सार्थक बदलाव के तौर पर देख रहे हैं, तो कुछ का कहना है कि यह सिर्फ शाही घराने का प्रोपेगेंडा है.

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तस्वीर: Amr Nabil/AP Photo/picture alliance

इस महीने की शुरुआत में, सऊदी अरब के अधिकारियों ने पिता या अन्य पुरुष रिश्तेदारों से अनुमति लिए बिना वयस्क महिलाओं को स्वतंत्र रूप से रहने की अनुमति देने के लिए एक कानून में  संशोधन किया.

इसके कुछ दिनों बाद, अधिकारियों ने घोषणा की कि महिलाएं, पुरुष अभिभावक की अनुमति के बिना सऊदी अरब के अंदर स्थित इस्लाम के सबसे पवित्र स्थलों में से एक मक्का की तीर्थ यात्रा पर जाने के लिए पंजीकरण करा सकती हैं. वे चाहें तो अन्य महिला तीर्थयात्रियों के साथ यात्रा कर सकती हैं.

फिर इस हफ्ते, जनरल कमीशन फॉर ऑडिओ-विज़ुअल मीडिया (जीसीएएम) के सऊदी अधिकारियों ने बताया कि कानूनी संशोधनों का मतलब है कि आयातित पुस्तकों और पत्रिकाओं के लिए जांच प्रक्रियाओं को सरल बनाया जाएगा. सऊदी अरब में इस सेंसरशिप को सख्त सेंसर में से एक माना जाता है.

अधिकारियों ने अंग्रेजी भाषा के स्थानीय प्रकाशन ‘सऊदी गजट' को बताया कि नई प्रक्रियाओं का मतलब कम सेंसरशिप है. इससे खाड़ी देश में आयातित किताबों को ज्यादा लोग पढ़ सकेंगे.

मई के अंत में, देश के इस्लामी मामलों के मंत्रालय ने यह भी कहा कि जब अजान के लिए आवाज दी जाती है, तो उस समय मस्जिद में इस्तेमाल होने वाले एक तिहाई लाउड-स्पीकर ही चालू किए जाने चाहिए. यह कदम ध्वनि प्रदूषण को कम करने की पहल के तौर पर देखा जा सकता है, लेकिन रूढ़िवादी राजशाही में यह कदम विशेष रूप से विवादास्पद रहा है. वजह ये है कि यहां धर्म से जुड़े मामलों को जीवन के अन्य पहलुओं के मुकाबले ज्यादा तवज्जो दी जाती है.

तेजी से हो रहे बदलाव

इस तरह के सुधार सऊदी अरब में न तो पहली बार हो रहे हैं और न ही इसके आखिरी होने की संभावना है. सऊदी अरब के पिछले राजा अब्दुल्ला बिन अब्दुलअजीज अल सऊद के समय से ही देश में लगातार सामाजिक परिवर्तन हो रहा है. हालांकि, हाल के कई सुधारों को तथाकथित विजन 2030 का हिस्सा माना जा सकता है.

सऊदी के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने 2016 में देश में व्यापक स्तर पर सामाजिक-आर्थिक सुधारों का प्रस्ताव तैयार किया था. ये प्रस्ताव देश को आधुनिक और उदार बनाने के प्रयास का हिस्सा हैं, ताकि व्यापार और पर्यटन के लिए बेहतर माहौल बन सके.

देखिएः पर्दा फैशन या मजबूरी

2016 के बाद से इस दिशा में कई कदम उठाए गए हैं. महिलाओं को गाड़ी चलाने की अनुमति देना, सिनेमाघरों पर दशकों से लगे प्रतिबंध को हटाना और महिलाओं को अकेले यात्रा करने की अनुमति देना इनमें शामिल है. सऊदी अरब में शराब पर प्रतिबंध है. हालांकि, ऐसी बातें कही जा रही हैं कि सीमित अनुमतियों के साथ देश में शराब के इस्तेमाल की इजाजत भी दी जा सकती है.

सऊदी पर नजर रखने वालों का कहना है कि देश में तेजी से बदलाव हो रहे हैं. वॉशिंगटन में अरब गल्फ स्टेट्स इंस्टीट्यूट में स्कॉलर रॉबर्ट मोगिएलनिकी इन बदलावों को ‘सुधार की एक रोमांचक गति' के तौर पर देखते हैं. वह कहते हैं, "ऐसा लगता है कि नियम बनाने वाले काफी जल्दबाजी में हैं."

युवाओं का समर्थन

मोगिएलनिकी कहते हैं, "यह स्पष्ट था कि विजन 2030 को लेकर कुछ बदलाव की जरूरत थी. मेरे विचार से, क्राउन प्रिंस और उनके साथ काम करने वाले नीति निर्माता लंबे समय के उद्देश्यों को पूरा करने और जमीन पर बेहतर तरीके से काम करने के बीच संतुलन खोजने की कोशिश कर रहे हैं.

ऐसे में हाल में हुए कुछ बदलावों का तुरंत असर होगा. देश में होने वाले इन सुधारों को लेकर युवाओं का सबसे अधिक समर्थन मिलता है." सऊदी अरब की दो-तिहाई नागरिकों की उम्र 35 साल से कम है.

राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर और कार्नेगी एंडोमेंट के मध्य पूर्व कार्यक्रम के एक सीनियर फेलो नेथन ब्राउन ने डीडब्ल्यू को बताया कि लाउडस्पीकर की आवाज कम करने जैसे कुछ बदलाव सऊदी से बाहर के लोगों को मामूली लग सकते हैं, लेकिन कुल मिलाकर ये काफी महत्वपूर्ण सुधार हैं. कुछ साल पहले तक इनमें बदलाव करना असंभव लगता था.

देखिएः कब मिले सऊदी महिलाओं को अधिकार

ब्राउन कहते हैं, "अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि ये सुधार किस तरह के पैटर्न स्थापित कर रहे हैं. मेरी सामान्य प्रतिक्रिया यह है कि ये सुधार कुछ सामाजिक क्षेत्रों में उदारीकरण की प्रवृत्ति का हिस्सा हैं, लेकिन राजनीतिक क्षेत्रों में नहीं. कुछ दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण हैं और इसलिए उन्हें कम नहीं माना जाना चाहिए. हालांकि, ये संरचनात्मक बदलाव नहीं हैं."

सब कुछ बदल रहा

ब्राउन और कार्यक्रम में एक अन्य फेलो, यास्मीन फारूक ने "सामाजिक उदारीकरण और राजनीतिक उदारीकरण एक साथ नहीं चलते हैं" शीर्षक वाले एक लेख में लिखा, "सऊदी अरब के धार्मिक सुधार कुछ भी नहीं बल्कि सब कुछ बदल रहे हैं." उन्होंने कहा, "हकीकत में सारी चीजें विपरित हुई हैं. कई ऐसे बदलाव हैं जो कर्मचारियों, प्रक्रिया, नौकरशाही, और कानून में फेरबदल के लिए हैं. ये सार्थक बदलाव नहीं हैं. यह बात याद रखना जरूरी है कि इनमें से कई बदलावों को फिर से वापस लिया जा सकता है."

हालांकि, जिस तरह से लगातार सुधार और बदलाव हो रहे हैं, वह सऊदी के शाही परिवार के भीतर की सत्ता को पहले से अधिक केंद्रीकृत कर रही है. यह भी संदेह जताया जा रहा है कि सत्ता की संरचना में बदलाव, नए आयोग और कार्यालय के निर्माण, और तेजी से हो रहे सुधार के ज़रिए मोहम्मद बिन सलमान यह पक्का करना चाहते हैं कि नौकरशाह उनके प्रति वफादार हैं. साथ ही, वे सत्ता पर अपनी पकड़ और मजबूत बनाना चाहते हैं.

वहाबवाद का अंत?

यह भी कहा जा रहा है कि इन बदलावों से सऊदी अरब के मौलवियों की शक्ति को कम हो रही है और देश अपने सामाजिक, कानूनी और राजनीतिक जीवन की कट्टर धार्मिक परंपराओं से दूर जा रहा है. सदियों से, सुन्नी इस्लाम के एक कठोर रूप को वहाबवाद के रूप में जाना जाता है, जो कुरान का सख्ती से पालन करने पर जोर देता है. इसी के तहत सऊदी अरब की संस्कृति और रहन-सहन तय हुआ. हालांकि, नए सुधार इसे बदल रहे हैं.

धार्मिक पुलिस की स्थिति में बदलाव को एक उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है. पहले इस विभाग से जुड़े लोग सड़कों पर गश्त करते थे और पर्याप्त कपड़े नहीं पहनने वालों पर कार्रवाई करते थे. साथ ही, यह सुनिश्चित करते थे कि अजान के समय रेस्तरां और अन्य दुकान बंद रहें.

तस्वीरों मेंः अरबी भाषा बोलने वाले देश

आज इनके पास अपराधियों को गिरफ्तार करने की शक्ति नहीं है. ब्राउन कहते हैं, "यह कहना जल्दबाजी होगी कि वहाबवाद का अंत नजदीक आ गया है. सऊदी की राष्ट्रीय पहचान में वहाबवाद और धर्म की भूमिका पर कम जोर दिया गया है."

क्या यह सिर्फ प्रोपेगेंडा है?

तमाम सुधारों के बावजूद, सऊदी अरब में अगर कुछ नहीं बदला है, वह है इसके नेताओं के निर्णय लेने से जुड़ी अपारदर्शिता. यही वजह है कि कई सुधारों के बावजूद भी, यह अनिश्चितता बनी हुई है कि आखिर सऊदी के शासक चाहते क्या हैं.

आलोचकों का कहना है कि सामाजिक उदारीकरण और राजनीतिक उदारीकरण के बीच का अंतर समस्या बना हुआ है. कई मानवाधिकार संगठन इसे महज पाखंड बताते हैं. वे कहते हैं कि नियम में बदलाव के बावजूद गाड़ी चलाने पर महिलाओं को जेल में डाल दिया जाता है. शाही घराने मौत की सजा को कम करने की बात करते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा मौत की सजा इसी देश में दी जाती है.

जर्मनी की राजधानी बर्लिन स्थित यूरोपियन सऊदी ऑर्गनाइजेशन फॉर ह्यूमन राइट्स में शोधकर्ता दुआ धैनी कहती हैं कि सुधारों का प्रभाव पड़ता है, लेकिन यहां सीमित है. वह आगे कहती हैं, "जो कोई भी सुधारों का विरोध करता है उसे गिरफ्तारी, निंदा या "कठोर सजा" का सामना करना पड़ सकता है."

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धैनी ने सऊदी अरब के लाल सागर तट पर भविष्य में बनने वाले मेगासिटी परियोजना, निओम की ओर इशारा किया. उन्होंने इलाके में रहने वाले हुवैत जनजाति का जिक्र करते हुए कहा, "यहां हरे-भरे शहर बसाने के बारे में बहुत सारी बातें कही गईं. कहा गया कि लोग यहां स्वस्थ जीवन जी पाएंगे. लेकिन जो लोग यहां पीढ़ियों से रह रहे थे, उन्हें अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है."

कथित तौर पर, विस्थापन का विरोध करने वाले एक आदिवासी नेता की सऊदी सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई थी. धैनी कहती हैं, "कुछ बदलाव हुए हैं लेकिन राजनीतिक कैदियों के साथ व्यवहार करने या बोलने की स्वतंत्रता को लेकर ज्यादा फर्क नहीं आया है. ये सुधार मानवाधिकारों की स्थिति को सार्थक तरीके से प्रभावित नहीं करते हैं और जब तक वे ऐसा नहीं करते हैं, यह वास्तव में सिर्फ प्रोपेगेंडा हैं."

रिपोर्टः कैथरीन शाएर

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