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समाजभारत

बुनियादी अधिकारों से महरूम हैं भारत की महिला कैदी

शुभांगी डेढ़गवें
६ सितम्बर २०२३

भारत में 60% महिला कैदियों को माहवारी में सैनिटरी पैड नहीं मिलते हैं. उनके पास ना सोने की जगह है, ना नहाने के लिए पर्याप्त पानी.

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Symbolbild | Frauengefängnis
तस्वीर: PongMoji/IMAGO

महिला कैदियों की हालत पुरुष कैदियों से कहीं ज्यादा ज़्यादा खराब है. 2014 से 2019 के बीच महिला कैदियों की संख्या 11.7 फीसदी बढ़ी है. लेकिन सिर्फ 18% को महिला जेल में जगह मिली है. 75% महिला कैदियों को रसोई और शौचालय पुरुषों के साथ साझा तौर पर इस्तेमाल करना पड़ता है. जेलों की इस खराब स्थिति की तस्वीर जस्टिस अमिताव रॉय की अध्यक्षता वाली कमेटी की एक रिपोर्ट में सामने आई है. 2018 में जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की सुप्रीम कोर्ट बेंच ने चिंता जताई कि कई राज्यों की जेलों में क्षमता से 150 प्रतिशत ज़्यादा कैदी हैं. इसे मानवाधिकार हनन का गंभीर मामला बताते हुए यह कमेटी बनाई गई. तीन सदस्यों वाली इस कमेटी का मकसद यह जानना था कि भारतीय जेलों में क्या हालात हैं.

करीब चार साल बाद दिसम्बर 2022 में कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने यह रिपोर्ट रखी. इससे पहले 2018 में ही महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने जेल में महिलाओं के हाल पर एक रिपोर्ट बनाई थी जिसमें महिला कैदियों की खराब स्थिति का जिक्र था.

 एक कैदी के हाथ
भारत में महिला कैदियों की हालत पुरुष कैदियों से कहीं ज्यादा ज़्यादा खराब हैतस्वीर: Rafael Ben-Ari/Chameleons Eye/Newscom/picture alliance

जेलों का बुरा हाल

जस्टिस अमितावा रॉय रिपोर्ट लगभग उस स्थिति की ओर इशारा करती है जो नैशनल क्राइम रेजिस्ट्रैशन ब्युरो (एनसीआरबी) की 2021 की रिपोर्ट में भी देखने को मिलती है. एनसीआरबी की रिपोर्ट में भी यह सामने आया कि 21 राज्यों में महिलाओं के लिए अलग जेल भी नहीं है. महिला जेलों में 6,767 कैदियों की क्षमता है. लेकिन इससे कहीं ज्यादा, करीब 22,659 महिला कैदियों को राज्यों की अन्य जेलों में मर्दों के साथ रखा जाता है. जैसा कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की 2018 की रिपोर्ट जिक्र करती है, ऐसी जेलों में महिला कैदी सुरक्षित नहीं हैं. मर्दों के साथ शौचालय इस्तेमाल करने से महिलाओं के यौन उत्पीड़न और दुर्व्यवहार का खतरा बढ़ जाता है. अगर महिलाओं के खिलाफ जेल में कोई अपराध होता भी है तो केवल 11 राज्यों के पास ऐसी कोई व्यवस्था है कि कैदियों की शिकायतें दर्ज की जा सकें. महिलाओं के खिलाफ़ जेल में हुए अपराधों का एनसीआरबी के पास कोई आंकड़ा नहीं है.

श्रीनगर की जेल के गेट से झांकता एक पुलिकर्मी
भारत में 75% महिला कैदियों को रसोई और शौचालय पुरुषों के साथ साझा करना पड़ता है. तस्वीर: Tauseef/AFP

नैशनल प्रिजन मैन्युअल के मुताबिक हर जेल में एक महिला डीआईजी का होना जरूरी है लेकिन किन जेलों में महिला डीआईजी हैं इस पर भी सरकार के पास कोई डाटा नहीं है. यहां तक कि दिल्ली की मशहूर तिहाड़ जेल की वेबसाइट से पता चलता है कि वहाँ कोई भी महिला डीआईजी नहीं है. आंकड़े बताते हैं कि भारत में केवल 4,391 महिला जेल अधिकारी हैं जो कुल क्षमता से काफी कम हैं. 2022 की रिपोर्ट में अधिकारी न होने की वजह से कहा गया है कि महिलाओं की तलाशी लेने की ट्रैनिंग भी नहीं हो रही है.

जेल में औरतों के पास यह अधिकारहै कि वह अपने बच्चों से एक अलग आवास में मिल सकती हैं. मगर जस्टिस अमिताव रॉय की रिपोर्ट कहती है कि सिर्फ तीन राज्य यानि गोवा, दिल्ली, और पुडुचेरी में महिलाओं को बिना बार या कांच की दीवार के मिलने की इजाजत है.

स्वास्थ्य और महिलाओं का हक

राष्ट्रीय जेल मैनुअल के मुताबिक जेल में हर कैदी के पास 135 लीटर पानी होना चाहिए. जबकि 2018 की रिपोर्ट में पहले ही यह सामने आ चुका था कि किसी भी जेल में ऐसा नहीं हो रहा है. इससे महिला कैदी सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. जस्टिस रॉय की रिपोर्ट ने कहा है कि महिलाओं को सैनिटरी पैड भी नहीं मिलते हैं. महिलाओं की बीमारियों और स्वास्थ्य की देख-रेख के लिए डॉक्टर की सुविधा मौजूद नहीं हैं. "बुनियादी न्यूनतम सुविधाएं” जैसे गर्भवती होने पर जेल में डॉक्टर को दिखाने की सुविधा भी औरतों को आसानी से नहीं मिल पाती हैं. जेल में हर साल बच्चे पैदा होते हैं, लेकिन इसके बारे में कोई ठोस डाटा एनसीआरबी के पास नहीं है.

रानी धवन शंकरदास जेल सुधार मामलों की विशेषज्ञ हैं और पीनल रिफॉर्म इंटरनेशनल की अध्यक्ष रह चुकी हैं. महिला कैदियों की ज़िंदगी पर लिखी अपनी किताब ऑफ विमेन इनसाइडः प्रिजन वॉइसेज फ्रॉम इंडिया में रानी कहती हैं कि जेल प्रशासन भले ही कैदियों को उनके अपराधों के हिसाब से वर्गीकृत करते हैं, मगर महिला कैदियों को एक अलग श्रेणी की जरूरत है. महिला अपराधियों के साथ सिर्फ उनका अपराध ही नहीं जुड़ा होता बल्कि सामाजिक रीतियां भी जुड़ी हैं क्योंकि अपराधी महिलाओं ने सालों से चल रही सामाजिक, धार्मिक प्रथाओं और नैतिक नियमों की सीमा को पार किया है. कानून से पहले समाज उनके अपराधी होने पर कठोर सजा तय कर चुका होता है.

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