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यूक्रेन युद्ध का एक साल: क्या है भारत की सामरिक स्थिति

चारु कार्तिकेय
२३ फ़रवरी २०२३

यूक्रेन युद्ध पूरा एक साल खिंच गया है. भारत युद्ध में सीधे तौर पर शामिल नहीं है लेकिन इस एक साल में भारत के रुख ने वैश्विक व्यवस्था में उसकी स्थिति को कैसा आकार दिया है?

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नरेंद्र मोदी, व्लादिमीर पुतिन
नरेंद्र मोदी और व्लादिमीर पुतिनतस्वीर: Pib Pho/Press Information Bureau/ZUMAPRESS.com/picture alliance

यूक्रेन युद्ध के इतने लंबे समय तक चलते रहने का असर सिर्फ रूस, यूक्रेन और यूरोप पर ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ा है. रूस और यूक्रेन में जानमाल के नुकसान के अलावा वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचा है और साथ ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कई समीकरण बदल गए हैं.

भारत ने पिछले एक साल में कई बार युद्ध की निंदा की है लेकिन यूक्रेन पर हमला करने के लिए रूस की आलोचना नहीं की है. संयुक्त राष्ट्र में जब भी रूस के खिलाफ पश्चिमी देश कोई बड़ा प्रस्ताव ले कर आए तो भारत ने प्रस्ताव पर मतदान की प्रक्रिया से ही खुद को बाहर कर लिया.

बढ़ा रूस के साथ व्यापार

पश्चिमी देशों ने रूस पर कई प्रतिबंध लगाए लेकिन भारत ने रूस से कच्चे तेल और अन्य सामान की खरीद बढ़ा दी. रूस ने भी भारत को तेल सस्ते दामों पर दिया. एक रिपोर्ट के मुताबिक इस एक साल में भारत में रूस से आयातित होने वाले तेल की मात्रा में 16 गुना का उछाल आया है. लेकिन इस व्यापार से ज्यादा दिलचस्प रही भारत द्वारा अपनी स्थिति की अभिव्यक्ति.

जानकार इसे बेहद महत्वपूर्ण मान रहे हैं. नई दिल्ली स्थित मनोहर पर्रिकर इंस्टिट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस में एसोसिएट फेलो स्वस्ति राव का मानना है कि यूक्रेन युद्ध ने भारत की कूटनीति के लिए सही मायनों में एक ऐसे दौर की शुरुआत की है जिसमें भारत ने खुद को कई तरह के हितों के बीच खड़ा पाया है.

राव ने डॉयचे वेले को बताया, "ऐसे में निष्पक्ष रह कर भारत को वैश्विक साउथ की आवाज बनने की विश्वसनीयता मिली है. इससे भारत को गुटनिरपेक्षता की जड़ों वाले लोकतंत्र की अपनी छवि को और तेज करने में मदद मिली है. साथ ही इससे भारत को पश्चिम के साथ सहयोग के विस्तार का भी मौका मिला है. और इन सब के बीच में भारत आज भी रूस का विश्वसनीय दोस्त और साझेदार बना हुआ है."

पश्चिम के साथ पेचीदा रहा रिश्ता

इस एक साल में भारत का रवैया पश्चिमी देशों को काफी असहज करने वाले रहा और उन देशों ने कभी नरम तो कभी हलके गरम अंदाज में भारत को अपनी असहजता दिखाने की कोशिश भी की. लेकिन भारत ने पश्चिमी खेमे के हिसाब से ना चलने की अपनी दृढ़ता को बिना झिझके सामने रखा.

पश्चिमी देशों ने जब कहा कि रूस से व्यापार कर भारत रूस की लड़ाई को वित्त पोषित कर रहा है तब भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि भारत रूस से जितना तेल एक महीने में खरीदता है उससे ज्यादा गैस यूरोप एक दिन में रूस से खरीदता है.

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इसके अलावा सितंबर, 2022 में उज्बेकिस्तान में शंघाई सहयोग संगठन की शीर्ष बैठक के दौरान रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की मौजूदगी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का "यह युद्ध का युग नहीं है" कहना भी एक महत्वपूर्ण संदेश रहा.

विदेश मामलों के जानकार और हार्ड न्यूज पत्रिका के संपादक संजय कपूर कहते हैं कि भारत की सफलता यह है कि ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के साथ साथ वो भी रूस और पश्चिमी खेमों के बीच में खड़ा रह सका है.

उन्होंने बताया, "भारत ने जो स्वतंत्र रुख अपनाया उससे दुनिया भारत को ऐसी नजर से देख रही है जैसा पहले नहीं था...यूरोपीय नेता जो रूस से तेल खरीदने के लिए भारत से नाराजगी दिखा रहे हैं वो ये नहीं जानते कि भारतीय रिफाइनरियां उसी रूसी तेल को अमेरिका और ब्रिटेन को बेच रही हैं.

बदल रहा है पश्चिम का नजरिया

और अब स्थिति यह है कि अमेरिका और यूरोप के नेता संकेत दे रहे हैं कि उन्होंने भारत की स्थिति से समझौता कर लिया है. अमेरिका और जर्मनी के नेताओं ने कह दिया है कि उन्हें भारत के रूसी तेल खरीदने से कोई समस्या नहीं है.

जर्मनी के चांसलर ओलाफ शॉल्त्स ने हाल ही में म्युनिख सुरक्षा सम्मेलन में जयशंकर के ही उस बयान को दोहराया जिसमें जयशंकर ने कहा था कि यूरोप को अपनी इस सोच को बदलना होगा कि उसकी समस्या सारी दुनिया की समस्या है लेकिन दुनिया की कोई दूसरी समस्या यूरोप की समस्या नहीं है.

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स्वस्ति राव का मानना है कि अमेरिका को दिख रहा है कि भारत द्वारा सस्ते दामों पर रूस का तेल खरीदने से रूस की कमाई घट रही है. उन्होंने बताया, "रूसी तेल अगर अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार से अचानक गायब हो जाएगा तो तेल के दामों में बहुत अस्थिरता आ जाएगी. दाम ज्यादा बढ़ जाएंगे तो यूरोप भी अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के नए रास्ते समय रहते नहीं ढूंढ पाएगा."

कुछ अन्य जानकार भारत की भूमिका की सीमाएं भी देख रहे हैं. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर यूरोपियन स्टडीज के प्रोफेसर गुलशन सचदेवा का कहना है कि यूक्रेन युद्ध की वजह से भारतीय विदेश नीति ने अपनी सामरिक स्वायत्तता का दृढ़तापूर्वक प्रदर्शन किया.

भविष्य की तैयारी

मनीकंट्रोल वेबसाइट पर छपे एक लेख में सचदेवा ने लिखा, "रूस और पश्चिम दोनों भारत को अपनी तरफ देखना चाहेंगे, विशेष रूप से तब जब भारत के पास जी20 की अध्यक्षता है. इसके आगे इस संघर्ष में भारत की भूमिका सीमित ही होने की संभावना है."

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लेकिन जैसे जैसे युद्ध खिंचता चला जा रहा है, स्थितियां बदलती जा रही हैं और अब सभी देशों की भविष्य की संभावनाओं पर भी नजर है. स्वस्ति राव मानती हैं कि युद्ध का अंत जो भी हो, इतना तय है कि रूस की शक्ति कम जरूर होगी, और यह भारत के सामरिक हित में नहीं है.

उन्होंने बताया, "भारत चीन के प्रति अपनी चिंताओं का रूस के जरिए संतुलन करता आया है. लेकिन अगर रूस और कमजोर हुआ तो उसके चीन पर निर्भरता बढ़ जाएगी और फिर वो भारत के लिए यह भूमिका नहीं निभा पाएगा. रूस के कमजोर होने से भारत की रक्षा व्यवस्था पर भी असर पड़ेगा क्योंकि भारत अभी भी तरह तरह के हथियारों और सैन्य उपकरण के लिए रूस पर निर्भर है."

राव कहती हैं कि इस वजह से भारत अपने रक्षा आयात में विविधता लाने की कोशिश कर रहा है और इसके अलावा भारत अलग अलग सामरिक चर्चाओं के प्रति भी खुला रवैया रखने की कोशिश कर रहा है. इसके सबसे प्रत्यक्ष उदाहरणों में से भारत की नाटो के साथ पहली बार होने वाली औपचारिक बातचीत है, जिसका मार्च में आयोजन किया जाना है.