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समाज

नागरिकता अधिनियम पर विवाद फिर तेज होने के आसार

प्रभाकर मणि तिवारी
१० सितम्बर २०१९

कुछ महीने की चुप्पी के बाद पूर्वोत्तर में नागरिकता (संशोधन) विधेयक का मुद्दा एक बार फिर गरमाने लगा है.

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तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Nath

बीती जनवरी से इलाके के तमाम रैजनीतिक और गैर-राजनीतिक संगठन इस विधेयक का भारी विरोध करते रहे हैं. इस कड़ी में हिंसा व हड़ताल के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पुतले तक जलाए जा चुके हैं. लोकसभा चुनावों के बाद यह मुद्दा कुछ शांत था. लेकिन अब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के दो-दिवसीय असम दौरे ने एक बार फिर इसे हवा दे दी है. शाह ने हालांकि भरोसा दिया है कि इस विधेयक का स्थानीय कानूनों और संविधान के अनुच्छेद 371 के तहत मिले विशेष दर्जे पर कोई असर नहीं होगा. बावजूद इसके तमाम संगठन एक बार फिर इसके खिलाफ मुखर होने की तैयारी में हैं.

कहां से शुरू हुआ विवाद

बीती चार जनवरी को अपने पिछले असम दौरे के दौरान ही मोदी ने नागरिकता विधेयक को शीघ्र पारित करने की बात कह कर विवाद पैदा कर दिया था. पूर्वोत्तर के तमाम राज्यों में उक्त विधेयक के खिलाफ हिंसक आंदोलन हुए और हड़ताल रही. विवाद तेज होते देख कर मोदी को इस मामले में सफाई देनी पड़ी थी. उन्होंने भरोसा दिया कि इस विधेयक से राज्य और इलाके के हितों को कोई नुकसान नहीं होगा. पड़ोसी देशों से आए अल्पसंख्यकों को पूरी छानबीन के बाद और संबंधित राज्य सरकारों की सिफारिश पर ही नागरिकता दी जाएगी. उन्होंने कहा था, "नागरिकता विधेयक सिर्फ असम या पूर्वोत्तर नहीं बल्कि पूरे देश के लिए है. लेकिन इससे इलाके के हितों को कोई नुकसान नहीं होगा."

क्या है विधेयक

केंद्र सरकार ने जुलाई 2016 में नागरिकता अधिनियम 1955 के कुछ प्रावधानों में  संशोधन के लिए एक विधेयक पेश किया था. लेकिन विवाद के बाद उसे संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया था. विधेयक में बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी देशों से बिना किसी वैध कागजात के आने वाले हिंदू, जैन, ईसाई, बौद्ध, सिख व पारसी समुदाय के शरणार्थियों को सात साल रहने के बाद ही भारत की नागरिकता देने का प्रावधान है. फिलहाल यह समयसीमा 12 साल की है. यह विधेयक आठ जनवरी को लोकसभा में पारित हुआ था. लेकिन राज्यसभा में यह पारित नहीं हो पाया है. इस प्रस्तावित संशोधन पर राज्य में विवाद तो दो साल पहले से ही चल रहा था. लेकिन मोदी ने इस साल जनवरी में अपने असम दौरे के दौरान एक रैली में नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2016 के शीघ्र पारित होने की बात कह कर बर्रे के छत्ते में हाथ डाल दिया.

ऐसी है ताजा स्थिति

गुवाहाटी में नॉर्थ-ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस (नेडा) की बैठक में इलाके के तमाम मुख्यमंत्रियों ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की मौजूदगी में उक्त विधेयक पर विरोध जताते हुए पूर्वोत्तर को उसके दायरे से बाहर रखने की मांग उठाई है. उनका कहना था कि इसे पूर्वोत्तर में नहीं लागू किया जाना चाहिए. मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा ने कहा, "उक्त विधेयक को लेकर इलाके में काफी डर का माहौल है. उसे लागू करने से पहले केंद्र को इलाके के तमाम राज्यों को भरोसे में लेना चाहिए.” संगमा का सवाल था कि उक्त विधेयक के लागू करने के बाद क्या होगा? क्या बांग्लादेश से लोग पहले की तरह आते रहेंगे? क्या उनके आने की कोई समयसीमा होगी? क्या उक्त विधेयक के तहत स्थानीय कानूनों की अनदेखी की जाएगी? इन सवालों को लेकर काफी चिंताएं हैं. उन्होंने भरोसा जताया कि केंद्र व अमित शाह इन आशंकाओं को दूर करेंगे.

नागालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो का कहना था, "उक्त विधेयक को लागू करने की स्थिति में इलाके में आबादी का स्वरूप बदल जाएगा.” उन्होंने कहा कि पूर्वोत्तर राज्यों ने प्रस्ताव पारित किया है कि उक्त विधेयक का असर इलाके पर नहीं पड़ने देंगे. इसलिए उससे पहले जमीनी स्थिति का आकलन करना जरूरी है. रियो ने भरोसा जताया कि केंद्र व अमित शाह उनकी बातों को ध्यान से सुनेंगे.

मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरमथांगा ने शाह ने पूर्वोत्तर इलाके को उक्त विधेयक के दायरे से बाहर रखने का अनुरोध किया. नागरिकता विधेयक को एक बेहद संवेदनशील मामला बताते हुए जोरमथांगा का कहना था कि जिन राज्यों में राजनीतिक दलों ने इसका समर्थन किया है वह आत्महत्या की कगार पर खड़े हैं. उन्होंने उम्मीद जताई कि केंद्र सरकार ऐसा कोई फैसला नहीं करेगी जिससे इलाके के हितों को नुकसान पहुंचे.

केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने इस मुद्दे पर पूर्वोत्तर के राज्यों की चिंताओं को दूर करते हुए कहा कि क्षेत्र से जुड़े विशेष कानून को नहीं छुआ जाएगा. शाह ने कहा, ‘‘नागरिकता संशोधन विधेयक लागू होने के बावजूद सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि इलाके के तमाम राज्यों के मौजूदा कानून जस के तस रहें. इन कानूनों को हाथ लगाने का हमारा कोई इरादा नहीं है.'' गृह मंत्री का कहना था कि इसके लिए कट-ऑफ डेट पहले की तरह 31 दिसंबर 2014 ही रहेगी. उन्होंने कहा, ‘‘कोई दूसरी तारीख नहीं होगी और इनर लाइन परमिट (आईएलपी) के साथ अनुच्छेद 371 को भी हाथ नहीं लगाया जाएगा.''

बाद में बीजेपी अध्यक्ष ने पूर्वोत्तर के आठों राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ अलग से बैठक की. असम के मंत्री और नेडा के संयोजक हेमंत बिस्वा शर्मा बताते हैं कि शाह ने नागरिकता विधेयक पर मुख्यमंत्रियों की विभिन्न चिंताओं का निराकरण किया. ज्यादातर की चिंता इनर लाइन परमिट को लेकर थी. फिलहाल विधेयक को फिर पेश करने के लिए तारीख तय नहीं की गई है. लेकिन अखिल असम छात्र संघ (आसू) के अध्यक्ष दीपंकर नाथ कहते हैं, "उक्त विधेयक असमिया समाज को बर्बाद कर देगा. सरकार राज्य के लोगों पर जबरन यह विधेयक थोप रही है. इससे एनआरसी से बाहर रहने वाले गैर-मुसलमानों की नागरिकता का रास्ता साफ हो जाएगा.”

हिंदुओं को उम्मीद

पूर्वोत्तर में जहां स्थानीय लोग और संगठन नागरिकता अधिनियम के खिलाफ हैं वहीं नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एआरसी) से बाहर रहे लोगों की उम्मीदें अब इसी विधेयक पर टिकी हैं. राजधानी गुवाहाटी के काहिलीपाड़ा में अपना कारोबार करने वाले बासुदेव राय कहते हैं, "मेरे पांच सदस्यों वाले परिवार में सिर्फ पत्नी का नाम ही एनआरसी में है. हम बांग्लादेश से नहीं बल्कि 1964 में पूर्वी पाकिस्तान से वैध कागजात के साथ यहां आए थे. लेकिन मुझे एनआरसी से बाहर कर दिया गया.” राय कहते हैं कि अब उनकी उम्मीदें नागरिकता विधेयक पर टिकी हैं. सरकार उसे पारित कर दे तो उन जैसे लाखों लोगों को नागरिकता मिल जाएगी.

जोरहाट के पास रहने वाले मधुसूदन चौदरी कहते हैं, "एनआरसी में लाखों हिंदू बंगालियों के नाम शामिल नहीं हैं. अब नागरिकता विधेयक ही इस समस्या को एकमात्र समाधान है.” अब युवा पीढ़ी भी विधेयक के समर्थन में आवाज उठा रही है. उनकी दलील है कि इससे हिंदू बंगालियों को तो नागरिकता मिल ही जाएगी, इलाके में आबादी का स्वरूप भी नहीं बदलेगा. इसकी वजह यह है कि बांग्लादेश से आने वाले मुसलमानों की तादाद ही ज्यादा है. नलबाड़ी के एक कॉलेज छात्र देवांजन राय कहते हैं. "हम हिंदू हैं. सरकार को हमें बिना किसी शर्त के नागरिकता देनी चाहिए. इससे असमिया लोगों को भी कोई समस्या नहीं होगी.”

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