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समाज

जर्मनी में मीट के कम दामों पर घमासान

३ फ़रवरी २०२०

जर्मनी में मीट लगातार सस्ता हो रहा है. इससे ग्राहकों को तो फायदा हो रहा है लेकिन किसान और पर्यावरणविद सुपरमार्केट में मीट के कम दामों को लेकर परेशान हैं. सरकार अब किसान और रिटेलर, दोनों से बात कर रही है.

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Konsum Kunden Lebensmittel Nachhaltigkeit
तस्वीर: picture-alliance/dpa/U. Baumgarten

जर्मनी की खाद्य और कृषि मंत्री यूलिया क्लोएक्नर कहती हैं, "जब किसान और रिटेलरों के बीच वार्ता की बात आती है तो स्थिति हाथी और चींटी जैसी है." पिछले कई महीनों से किसान नए पर्यावरण संरक्षण कानूनों और जर्मनी के बड़े रिटेलरों की किफायती कीमतें निर्धारित करने वाली नीतियों का विरोध कर रहे हैं. इस विरोध ने सत्ताधारी क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन की नेता क्लोएक्नर का ध्यान खींचा है.

कृषि मंत्री का कहना है कि वह उन किसानों की मदद करना चाहती हैं जो आल्डी, लिडल, नेटो और पेनी जैसे सुपरमार्केट्स में मीट के घटते दामों के कारण लगातार दबाव का सामना कर रहे हैं. जर्मनी में यह समस्या नई नहीं है. ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब दूध से बनने वाले उत्पादों के दामों पर खींचतान राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में थी. उस वक्त दूध उत्पादक किसानों ने शिकायत की थी कि उनका मुनाफा इतना कम होता है कि कभी कभी तो लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता है.

क्लोएक्नर ने यूरोपीय संघ के उन नियमों को लागू करने की धमकी दी है जो "अनुचित प्रतिद्वंद्विता" और कीमतों में बड़ी गिरावट को रोकने के लिए बनाए गए हैं. लेकिन सुपरमार्केट चेन इसका तीखा विरोध कर रहे हैं. सोमवार को रिटेल सेक्टर और खाद्य उद्योग के प्रतिनिधियों की बर्लिन में चांसलर ऑफिस में बैठक हुई. जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने दोनों पक्षों की बात सुनने के लिए यह बैठक बुलाई थी.

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जर्मन सरकार की चुनौती ये है कि "जर्मन बाजार में उच्च गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थों के पर्याप्त दाम कैसे निर्धारित किए जाएं." किसानों की शिकायत ये है कि एक तो उन्हें उनके उत्पादों के लिए पर्याप्त कीमत नहीं मिल रही है, दूसरी ओर उन पर पर्यावरण शर्तों को लागू करने के लिए दबाव डाला जा रहा है जो उनकी लागत को और बढ़ाते हैं. सुपरमार्केट चेनों की दलील ये है कि खाद्य पदार्थों की किफायती कीमतें देश के गरीब लोगों को खाद्य सुरक्षा देने के लिए बहुत जरूरी है.

बड़ा सवाल यह है कि कि किसानों और सुपरमार्केटों के हितों के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए. जर्मनी में चार सबसे बड़े सुपरमार्केट चेन्स का बाजार पर दबदबा है. बाजार के 85 फीसदी हिस्से पर उनका कब्जा है और उनके स्टोरों में बेचे जाने वाला 70 फीसदी मीट रियायती दामों पर बेचा जाता है, जिससे मीट उत्पादकों पर ज्यादा बोझ पड़ रहा है. फिलहाल सुपरमार्केट चेनों ने इलाके की खाद्य सामग्रियों का हिस्सा बढ़ाने का वचन दिया है. अनुचित कारोबारी बर्ताव की शिकायत करने के लिए एक संस्था बनाई गई है. अब सप्लायर्स को पैसा पाने के लिए महीनों का इंतजार नहीं करना होगा.

Hitzewelle in Europa Tiertransport
तस्वीर: picture-alliance/dpa/F.-P. Tschauner

2018 में जर्मनी के सबसे बड़े मीट उत्पादकों ने लगभग 27 अरब यूरो के उत्पाद बेचे. लेकिन इस दौरान भी ब्रीडर और बूचड़खानों में काम करने वाले लोग कम वेतन की समस्या से जूझ रहे थे. पर्यावरणविद जानवरों को मीट फैक्ट्रियों में काटे जाने से पहले बहुत ही छोटी जगहों में रखे जाने की शिकायतें भी करते हैं. जर्मनी में शाकाहारी और वेगन खाने का चलन बढ़ रहा है. फिर भी मीट को लेकर प्रेम बरकरार है.

2019 के पहले छह महीने में जर्मनी में मीट के लिए तीन करोड़ सूअरों, गायों, भेड़ों और बकरियों को काटा गया. जर्मन लोगों को सस्ते दामों में मीट खरीदने की आदत रही है. वे पड़ोसी यूरोपीय देशों के मुकाबले ज्यादा खाना इस्तेमाल करते हैं लेकिन पैसा उनके मुकाबले कम चुकाते हैं.

रिपोर्ट: येंस थुराऊ/एके

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