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भारत की हार बनता जा रहा है कश्मीर!

रोहित जोशी१३ जुलाई २०१६

अधिकतर कश्मीरियों के बीच बुरहान वानी की मौत को शहादत की तरह देखा जा रहा है. बीते दशकों में भारत के खिलाफ बढ़ती गई नफरत क्या भारतीय राज्य की कूटनीतिक हार है?

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Kaschmir Auseinandersetzungen in Srinagar
तस्वीर: picture-alliance/dpa/F. Khan

हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के जनाजे की तस्वीरें जब मीडिया और सोशल मीडिया के रास्ते​ हिंदुस्तानी आम जन मानस तक पहुंचीं तो उसने कश्मीरियों के प्रति संशय की उसकी पूर्वस्थापित समझ को और मजबूत किया. एक आतंकी मारा गया था जिसके जनाजे में कश्मीरी शामिल थे. सोशल मीडिया पर ये तस्वीरें इसी किस्म के संदेशों के साथ खूब प्रचारित हुईं और ​मीडिया के 'अति राष्ट्रवाद' के शिकार एक धड़े ने भी इसे 'राष्ट्रवादी उन्माद' बना परोसा.

कश्मीर की कूटनीतिक पहेली

लेकिन क्या वाकई बुरहान वानी के जनाजे में शोकाकुल भीड़ के उमड़ पड़ने की वजह इतनी सपाट है? क्या कश्मीरी आतंक और आतंकियों से इस कदर मुहब्बत करते हैं? या इसकी वजह पिछले 6 दशकों में कश्मीर के ​इतिहास में घटे एक एक​ दिन में लि​पटी हुई है, जिसमें भारतीय राज्य कश्मीरियों के विश्वास को लगातार खोता गया है?

ब्रिटिश हुकूमत के अंत के बाद 1947 में जब आज के भारत और पाकिस्तान इस इलाके में मौजूद सैकड़ों रियासतों को खुद में मिलाकर पहली बार आकार ले रहे थे, कश्मीर रियासत तब से इन दोनों ही मुल्कों के लिए एक कूटनीति पहेली बन गई. नए-नए बने दोनों ही मुल्क कश्मीर के भौगोलिक महत्व को जानते थे और उसे अपनी ओर करने पर आमादा थे. कश्मीर के भीतर भी इन दोनों ही पक्षों का समर्थन करने वाले लोग मौजूद थे और इसके साथ ही कश्मीर में एक आवाज उसे आजाद क​श्मीर बनाने की भी थी.

नेहरू की आशंका

Indien Kaschmir Auseinandersetzungen in Srinagar Polizeioffizier sichert
तस्वीर: Getty Images

इसी उहापोह भरे माहौल में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर के महाराजा हरि सिंह को एक अहम पत्र लिखा. इस पत्र में उन्होंने क​श्मीर में भारत के लिए संभावनाओं और आशंकाओं दोनों पर ही टिप्पणी कीः

''..भारत के दृष्टिकोण से यह बात सबसे महत्वपूर्ण है कि कश्मीर भारत में ही रहे. लेकिन हम अपनी तरफ से कितना भी ऐसा क्यों न चाहें, लेकिन ऐसा तब तक नहीं हो सकता जब तक कि कश्मीर के आम लोग नहीं चाहते. अगर यह मान भी लिया जाए कि कश्मीर को सैन्य बल के सहारे कुछ समय तक अधिकार में रख भी लिया जाए, लेकिन बाद के वक्त में इसका नतीजा यह होगा कि इसके खिलाफ मजबूत प्रतिरोध जन्म ले लेगा. इसलिए, आवश्यक रूप से यह कश्मीर के आम लोगों तक पहुंचने और उन्हें यह अहसास दिलाने की एक मनोवैज्ञानिक जरूरत है कि भारत में रहकर वे फायदे में रहेंगे. अगर एक औसत मुसलमान सोचता है कि वह भारतीय संघ में सुरक्षित नहीं रहेगा, तो स्वाभाविक तौर पर वह कहीं और देखेगा. हमारी आधारभूत नीति इस बात से निर्देशित होनी चाहिए, नहीं तो हम यहां नाकामयाब हो जाएंगे.''

'नाकामयाब' भारतीय राज्य

नेहरू के उपरोक्त विश्लेषण को अगर आधार बनाया जाए तो उन्हीं की शब्दावली में भारतीय राज्य कश्मीर के मसले पर आज 'नाकामयाब' हो चुका है. भारत ने कश्मीर के मसले पर लगातार वही रास्ता अपनाया जिसे लेकर नेहरू ने आगाह किया था. बे​शक कश्मीर का एक बड़ा भूगोल आज भारतीय संघ का हिस्सा है लेकिन उसका आधार वही सैन्य बल है जिसे लेकर नेहरू ने चेताया था. वह कश्मीरी आवाम के भीतर भारत में रहने के लाभ को मनोवैज्ञानिक तौर पर स्थापित करने में नाकामयाब हो गया. केवल यही बात कश्मीर के असल अर्थों में भारत में बने रहने का रास्ता हो सकती थी.

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आज हालत यह है कि भारतीय सेना की तकरीबन 75 फीसदी से अधिक फौज केवल ​कश्मीर में तैनात हैं और उसे 'आफ्सपा' जैसे मनावाधिकार विरोधी कानूनों से लैस किया गया है. शेष भारत में सेना की लोकप्रियता के चलते आम धारणा में यह बात स्वीकार कर पाना बेहद कठिन है, लेकिन ऐसे कई वाकये हैं जहां सेना ने इन कानूनों का दुरुपयोग किया है.

सेना के दम पर कश्मीर पर कब्जा किए रखने की परिणति के चलते ही आज कश्मीरी जन मानस में भारतीय राज्य की स्वीकार्यता लगातार घटती गई है. इसकी असल वज​ह भारतीय राजनीतिज्ञों की कूटनीतिक नाकामी है.

शेख से वानी तक

Kaschmir Auseinandersetzungen in Srinagar
तस्वीर: picture-alliance/dpa/F. Khan

अलगाववादी चरमपंथी वानी की शवयात्रा में उमड़ पड़े 'कश्मीर' से पहले भी कश्मीर का एक लंबा इतिहास है. अलगाववादी विचार और चरमपंथ के चरम पर पहुंच जाने के बीच में और उससे पहले कई ऐसे मौके थे जब भारतीय राज्य कश्मीरी जनता के प्रति ईमानदार और कूटनीतिक प्रयास करके उनका विश्वास जीत सकता था. शुरुआत में जब कश्मीर मसला अपनी जटिलताओं के साथ आकार ले रहा था कश्मीर के अंदर भारत के लिए बेहद संभावनाएं थीं. इसकी सबसे बड़ी वजह एक ऐसा व्यक्ति था ​जिसकी उस दौर में कश्मीर की जनता के बीच सबसे गहरी पैठ थी और वह कश्मीर का निर्विवाद रूप से सबसे बड़ा नेता था. नेश्नल कॉन्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला का पूरा झुकाव भारत की ओर था. वे पाकिस्तान विरोधी थे और उसे एक सांप्रदायिक और 'सिद्धांतवि​हीन दुश्मन' करार दिया था. इसके अलावा वे कश्मीर को अलग राष्ट्र बनाए जाने के भी ​हिमायती नहीं थे. उनका मानना था कि इस लिहाज से यह बहुत छोटा और गरीब सूबा था. उन्हें संदेह था, ''अगर हम आजाद हुए तो पाकिस्तान हमें निगल जाएगा. उसने पहले भी कई बार कोशिश की है और वे आगे भी ऐसा करेगा.''

ताज या नासूर

Kaschmir Ausgangssperre in Srinagar
तस्वीर: picture-alliance/dpa/F. Khan

सूबे के सबसे बड़े जनाधार वाले नेता के इतने स्पष्ट समर्थन के बावजूद भी पिछले तकरीबन 7 दशकों के दौरान भारतीय राज्य एक ऐसी रणनीति नहीं बना सका जिससे कि आम ​कश्मीरी में उसके प्रति सौहार्द पैदा हो पाता. उल्टा वहां तैनात फौज की तादाद और उनके बूटों की धमक लगातार बढ़ती गई. सेना की दखलंदाजी और उसकी असीम शक्तियों ने कश्मीर के लोगों को भारतीय राज्य से विमुख होने के लिए अधिक प्रेरित किया. इसकी परिणति यह हुई कि हिंदुस्तान का कथित ताज ताज़िंदगी हिंदुस्तान का एक भयानक नासूर बन गया है.

अलग-अलग किस्म के हितों के बीच बेशक ​कश्मीर आज विश्व के जटिलतम राजनीतिक भूगोलों में से एक में तब्दील हो गया है जिसका हल निकट भविष्य में नहीं दिखाई देता. लेकिन इसका सबसे अधिक खामियाजा ​और तकलीफें कश्मीर की जनता को ही झेलनी पड़ी हैं. बावजूद इसके भारत में कश्मीर की यह जटिल राजनीतिक समस्या बेहद सतही तरह से समझी और प्रचारित की जाती रही है और ​कश्मीरियों पर संदेह गहरे जड़ें जमाता गया है.

ब्लॉगः रोहित जोशी