हमारे ख़ून में पहुंचा प्लास्टिक
१८ मार्च २०१०अलग अलग रूपों और रंगों में यहां वहां बिखरा प्लास्टिक. जब हमने प्लास्टिक की खोज की तब बड़े ख़ुश हुए कि वाह भई, इतना टिकाऊ, हल्का और बहुत सारा वज़न उठाने वाला एक पदार्थ हमने ईजाद कर लिया है और उसे मनचाहे ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन धीरे धीरे वह भस्मासुर की तरह ईजाद करने वाले के लिए ही मुसीबत बन गया है. वह धरती की सबसे क़ीमती चीज़ पानी को ख़राब कर रहा है और झीलों-तालाबों ही नहीं, महासागरों के लिए भी ख़तरा बनता जा रहा है.
जानलेवा कूड़ा
धरती का सारा कूड़ा, जिसमें बहुत सारा प्लास्टिक भी है, महासागरों की जान ले रहा है. पुराने समय में कचरा प्राकृतिक होता था, समुद्र में घुल मिल जाता था.प्लास्टिक के साथ ऐसा नहीं होता. ग़ैर सरकारी संगठन ग्रीन पीस के थीलो माक कहते हैं "दुनिया के समुद्रों में बड़ी बड़ी भंवरों वाली पांच जगहें हैं. वहीं समुद्री कूड़ा इकट्ठा होता रहता है. चूंकि हम बड़ी मात्रा में प्लास्टिक फेंकने लगे हैं तो वहां भी प्लास्टिक ही जमा हो रहा है. वह अधिकतर ज़मीनी कचरे के साथ समुद्रों में पहुंचता है. 80 फ़ीसदी नदियों के रास्ते से और बीस फ़ीसदी शिपिंग उद्योग के माध्यम से."
थीलो माक सागर विज्ञान विशेषज्ञ हैं और ग्रीनपीस के एक जहाज़ द्वारा यह देखने निकल पड़े कि महासागरों में कितना कचरा जमा हुआ है. "हम सोच भी नहीं सकते कि महासागरों में प्लास्टिक वाला कचरा जमा हो रहा है. हमने पानी में गोता लगाया और समुद्री भूतल पर हमने नीले, लाल, सुनहरे, हरे रंग के प्लास्टिक के ऐसे टुकड़े देखे, जो ज़मीन से हज़ारों किलोमीटर दूर वहां पहुंचे थे."
इसका सीधा असर पड़ता है समुद्री जीवों पर, क्योंकि वे अपने चारे के साथ इसे भी निगल जाते हैं और फिर बन आती है उनकी जान पर "कई समुद्री जीव और चिड़ियां समुद्र में तैर रहे या उस के पानी में मिलने वाली चीज़ों को खाती हैं. वे अक्सर पानी में पड़े प्लास्टिक के टुकड़ों, ब्रश के टुकडों या टूटी चेनों जैसी चीज़ें खा लेते हैं. यह चीज़ें उनके पेट में भरती जाती हैं और फिर वे मर जाते हैं."
ख़ून में भी
ऐसा नहीं है कि हम ये सोच कर शांत रहें, कि चलो, हमारे पेट में तो प्लास्टिक नहीं जा रहा. जी नहीं, इन कृत्रिम पदार्थों से निकले ख़तरनाक केमिकल कभी न कभी हमारे शरीर में भी पहुंच जाते हैं. बात बिलकुल साफ़ है. हम भी तो प्रकृति के खाद्य चक्र में आते हैं, तो फिर ख़तरे के कुचक्र से हम भला छूट कैसे सकते हैं.
प्लास्टिक नाम की डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म बनाने वाले ऑस्ट्रिया के फ़िल्म निर्माता वेर्नर बूटे ने अपना ख़ून ये जानने के लिए टेस्ट करवाया कि उनके ख़ून में क्या कार्सिजेनिक यानी कैंसर पैदा करने वाले तत्व हैं? बूटे बताते हैं कि "मैं पहले से ऐसे शोधों के बारे में जानता था कि हममें से हर एक के ख़ून में प्लास्टिक है. इसलिए मेरे ख़ून में भी थोड़ा बहुत बिस्फ़ेनॉल ज़रूर होगा. लेकिन इस ख़तरनाक रसायन की मात्रा मेरे शरीर में इतनी ज़्यादा थी कि मुझे शॉक लगा. फिर हमने पूरी फ़िल्म टीम का ख़ून चेक करवाया और सभी के ख़ून में वो रसायन थे, जो प्लास्टिक जैसे कृत्रिम पदार्थों से आते हैं."
शोध, फ़िल्में, तथ्य-- हमारे सामने ऐसे अनेक तथ्य हैं. लेकिन हम आंखों पर गुलाबी चश्मा लगा कर आराम से गाने सुनते हैं और सोचते हैं सारी दुनिया गुलाबी है, हर जगह गुलाब के बाग़ीचे हैं.
रिपोर्टः डॉयचे वेले/आभा मोंढे
संपादनः राम यादव