सुशांत मामले में जागा मीडिया का जज, जूरी, और जल्लाद का रूप
५ सितम्बर २०२०बगल में रखे मेरे मोबाइल की टेक्स्ट मैसेज की रिंगटोन आज कुछ ज्यादा ही बज रही है. उठाकर देखता हूं तो पता चलता है कि कजन भाई-बहनों के व्हाट्सऐप ग्रुप पर बहुत हलचल हो रही है. जिज्ञासा अमूमन हम पत्रकारों की शक्ति होती है लेकिन ग्रुप पर हो रही हलचल के रहस्य का पता लगाने के लिए मोबाइल को उठाते हुए मुझे जरा भी आभास नहीं हुआ कि आज मेरी जिज्ञासा मुझे फंसाने वाली है.
ग्रुप को खोल कर एक के बाद एक मैसेज पढ़ते हुए मुझे ऐसा लगा कि मैं वंडरलैंड वाली ऐलिस की तरह किसी खरगोश के खोदे हुए एक ऐसे गड्ढे में गिरता चला जा रहा हूं जिसका कोई अंत ही नहीं है. ग्रुप पर सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर चर्चा हो रही थी. ग्रुप पर मौजूद मेरे-बहन भाई अलग अलग उम्र के हैं, देश के अलग अलग कोनों में हैं, कुछ तो अमेरिका में भी हैं. लेकिन इस समय सब की दिलचस्पी इसी केस में है.
ग्रुप पर हो रही इस चर्चा के अंतहीन गड्ढे में गिरने से पहले पिछले कई हफ्तों से मैं अपने आप को इस केस से जान बूझकर दूर रख रहा था. सुशांत के मरने की खबर जब आई थी तब यह कथित रूप से मानसिक रोग से ग्रसित बॉलीवुड के एक सितारे की आत्महत्या का मामला भर था. उस समय पूरी चर्चा सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य के दुष्प्रभाव को लेकर थी. लेकिन अगले कुछ दिनों में देखते ही देखते यह एक अजीब सा धारावाहिक बन गया. नए नए किरदार जुड़ते चले गए, नए नए साजिश के सिद्धांत आते चले गए.
फिर पूरे मामले पर राजनीति हावी हो गई. कुछ ही दिनों के अंदर इसमें इतनी संस्थाओं का नाम आ गया, जितनी व्यापम कांड में भी शामिल नहीं हुई थीं, बावजूद इसके की व्यापम 40 से भी ज्यादा जिंदगियां ले गया. पहले मुंबई पुलिस, फिर बिहार पुलिस, फिर सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई, ईडी और यहां तक कि नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो भी. मानो भारत में कानूनी संस्थाओं पर प्रतियोगिता दर्पण का कोई विशेष अंक निकल आया हो.
मामला थाली में रायते की तरह इस कदर फैल चुका था की जब तक एक मैं सिरे को पकड़ पाता था तब तक रायता चार और जगहों से बहने लगता था. लेकिन यहां तक भी मैं मामले पर नजर रखे हुए था. मेरा मन खट्टा होना तब शुरू हुआ जब टीवी मीडिया अपने चिर-परिचित अंदाज में सुशांत के निजी जीवन में घुसने लगा. उसकी कथित मानसिक अवस्था, उसके परिवार के साथ उसके रिश्ते, उसकी पूर्व गर्लफ्रेंड्स आदि सब के बारे में तरह तरह की कहानियां आने लगीं और जल्द ही मरे हुए हाथी को टटोलती अंधी मीडिया को अपना निशाना मिल गया - रिया चक्रवर्ती.
राजनीतिक दबाव में एजेंसियां चालू जांच में सामने आ रहे तथ्यों को सावधानी से चुन चुन कर टीवी चैनलों को लीक करतीं और चैनल बिना उस पर सवाल उठाए सिर्फ वैसे का वैसा जनता के सामने परोस देते. यही नहीं, टीवी चैनल लीक किए गए उन तथ्यों के आधार पर ही अपना मत भी बना लेते और फिर "स्वर्ग की सीढ़ी", "रावण की गुफा", "सनकी तानाशाह" के स्तर वाली रचनात्मकता का भी आह्वान कर ऐसे रूप में मामले को पेश करते जिसके आगे सस्ता रोमांच लिखने वाले किसी लेखक को भी शर्म आ जाए.
इस सर्कस में हिंदी ही नहीं अंग्रेजी के न्यूज चैनल भी बराबरी के भागीदार थे. बात जब तक "मायानगरी की विषकन्या का डेंजरस इश्क" तक पहुंची तब तक मीडिया का सुप्रीम कोर्ट रिया को सुशांत की मौत का जिम्मेदार ठहरा चुका था. वो जहां दिखती टीवी चैनलों के रिपोर्टर वहीं एक काल्पनिक कटघरा बना देते और उस पर टूट पड़ते. कभी रिया नहीं दिखी, तो उसके पिता पर टूट पड़े. कभी वो भी नहीं मिले तो रिया की बिल्डिंग के वॉचमैन से लाइव टीवी पर यूं जिरह की गई जिससे संभव है कि उस रिपोर्टर को यह लगा हो कि वो अमेरिकी चुनावों में रूस द्वारा छेड़छाड़ के मुद्दे पर डॉनल्ड ट्रंप को घेरने की कोशिश कर रही हो और पूछ रही को कि क्या आप रूस के एजेंट हैं?
ये नजारा देश पहले भी देख चुका है. 2008 में जब दिल्ली से सटे नॉएडा में 13 साल की आरुषि तलवार की हत्या हुई थी, उस वक्त भी मीडिया का यही जज-जूरी-जल्लाद का रूप देखने को मिला था. 13 साल में जिंदगी गंवा देने वाली लड़की की आबरू को तो मीडिया ने तार तार किया ही, बोटी बोटी नोच खाने वाले गिद्धों की तरह रिपोर्टर और एंकर आरुषि के माता-पिता पर भी टूट पड़े थे.
जैसे आज रिया को मीडिया ने दोषी मान लिया है, वैसे ही आरुषि के माता-पिता को दोषी करार कर दिया था. जैसे आज रिया को लेकर अजीबोगरीब कहानियां रोज लिखी जा रही हैं, वैसे ही आरुषि मामले में भी कल्पना के घोड़े बेशर्मी से दौड़ाए जा रहे थे. जैसे आज मीडिया में रिया का चरित्र हनन किया जा रहा है, वैसे ही उस समय नूपुर तलवार का चरित्र हनन किया गया था.
12 साल बाद एक बार फिर उसी अश्लील, गैर-जिम्मेदाराना और आपराधिक आचरण का परिचय देना भारतीय मीडिया के बारे में क्या कहता है, इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं. इन्हीं कारणों से मेरा सुशांत की मौत के मामले से मन हट गया था और मैं खुद को इससे दूर रख रहा था. मेरे भाई-बहनों के व्हाट्सऐप ग्रुप में हो रही चर्चा इस बात को साबित भी कर रही थी कि आम लोग मीडिया के इस ट्रायल के आधार पर अपना मत भी बना लेते हैं.
सोचिए यह कानून के राज्य पर आधारित एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कितना खतरनाक है. जनता मीडिया पर भरोसा करती है. उसकी कही बातों को सच मानती है और ऐसे में मीडिया की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है. लेकिन टीआरपी का पीछा करती और या राजनीति या व्यापार से प्रेरित अपने मालिकों का हुक्म बजाती भारतीय मीडिया आज भी इस समझ को दर्शा नहीं रही है.
जाने कितनी आरुषि, कितनी नूपुर और कितनी रियाओं का तमाशा बनना अब भी बाकी है. और आरुषि हत्या केस का हश्र तो आप को याद ही होगा? वो गुत्थी आज भी अनसुलझी हुई ही है. आरुषि की मौत आखिर कैसे हुई, इस सवाल का जवाब आज तक सामने नहीं आया है.
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