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शोषण को उतार फेंकने को तैयार नौकरानियां

१९ मार्च २०११

पश्चिम बंगाल में घरों में काम करने वाली नौकरानियों ने इस शोषण के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने का फैसला किया है. उन्होंने कहा है कि अब वह और शोषण नहीं सहेंगी. उनको अपना हक मिलना ही चाहिए.

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तस्वीर: DW

सुबह पांच बजे से आधी रात तक हाड-तोड़ मेहनत करने के बावजूद उनको न तो दो जून की रोटी मिलती है और न ही ढंग का कपड़ा. नौकरी की भी कोई गारंटी नहीं. आज काम है तो कल नहीं. इनमें से कम से कम 50 हजार नाबालिग हैं. वह भारी शोषण की शिकार हैं. अक्सर उनके शारीरिक शोषण की कहानी भी सामने आती रहती हैं. लेकिन अब इन घरेलू नौकरानियों ने शोषण को उतार फेंकने का फैसला किया है.

Proteste von weiblichen Haushaltshilfen in Kolkata Indien
तस्वीर: DW

अखिल बंगाल परिचारिका समिति के बैनर तले हाल में ऐसी हजारों महिलाओं ने कोलकाता में एक रैली का आयोजन किया. रैली में आईं छाया दास ने महज 10 साल की उम्र में ही घरेलू नौकरानी के तौर पर काम शुरू किया था. लेकिन जिस घर में वह काम करती हैं वहां उनके शोषण का सिलसिला अब 35 वर्षों के बाद भी नहीं थमा है.

कोई नहीं सुनने वाला

छाया की मां भी यही काम करती थी और अब उसकी बेटी भी घरों में बरतन धोकर कर अपना पेट पाल रही है. यानी तीन पीढ़ियों के बाद भी इनकी नियति नहीं बदली है. पश्चिम बंगाल में घरेलू नौकरानियों के तौर पर काम करने वाली हजारों महिलाओं की स्थिति कमोबेश छाया की तरह ही है. सुबह पांच बजे से आधी रात तक कड़ी मेहनत के बावजूद उनको न तो भरपेट दो वक्त का भोजन मिलता है और न ही पहनने के लिए ढंग के कपड़े.

यह महिलाएं भारी शोषण की शिकार हैं. तमाम राजनीतिक दल चुनाव के समय तो उनकी हालत सुधारने की दिशा में कदम उठाने के वादे करते हैं. लेकिन चुनाव के बाद वह उनको भूल जाते हैं. इसलिए बंगाल में विधानसभा चुनावों के मौके पर इन महिलाओं ने अपने हक के लिए आवाज उठाने का फैसला किया है.

छाया कहती हैं, "हमें हर जगह काफी समस्या होती है. इसके अलावा रुपए-पैसों की भी दिक्कत है. हमें कहीं से कोई सहायता नहीं मिलती. हर काम में असुविधा होती है. अब मैं समिति की सहायता से हालत सुधरने की उम्मीद कर रही हूं. अगर ऐसा हुआ तो काफी सहूलियत हो जाएगी."

Proteste von weiblichen Haushaltshilfen in Kolkata Indien
तस्वीर: DW

घरेलू नौकरानी के तौर पर काम करने वाली महिलाएं सुबह घर के सभी सदस्यों के पहले बिस्तर छोड़ देती हैं. पूरे दिन कड़ी मेहनत की वजह से उको आराम करने का मौका नहीं मिलता. आधी रात के बाद जब घर के सब लोग सो जाते हैं, तब चौके का कामकाज निपटाने के बाद ही उनको बिस्तर पर जाना नसीब होता है. समिति का आरोप है कि इन महिलाओं का मानसिक और शारीरिक अत्याचार तो होते ही हैं, कई मामलों में उनको बलात्कार का शिकार भी होना पड़ता है. लेकिन नौकरी जाने के डर से वह चुप्पी साधे रहती हैं.

बस नाम का कानून

राज्य में नाबालिग लड़कियों से घरेलू नौकरानी के तौर पर काम लेने पर कानूनी पाबंदी है. लेकिन यह कानून किताबों में दब कर ही रह गया है. गरीब तबके की हजारों युवतियां खेलने-खाने की उम्र में घर में झाड़ू-बरतन का काम कर रही हैं. कभी-कभार ऐसे एकाध मामले सामने आते हैं. कम उम्र की बच्चियों का तो और ज्यादा शोषण होता है. घर की रोजी-रोटी चलाने के दबाव में वह न तो अपने घर वालों से अत्याचार के बारे में कुछ पाती हैं और न ही नौकरी छोड़ने की हिम्मत जुटा पाती हैं. आखिर नौकरी छोड़ दें तो पेट कैसे चलेगा?

समिति ने हाल में पुलिस की सहायता से ऐसी कुछ युवतियों को बचा कर एक रिमांड होम में भेजा है. बबीता भी उन्हीं में से एक है. बरसों एक घर की चारदीवारी में कैद बीबता को घर से बाहर भी नहीं निकलने दिया जाता था. उसे किसी से बातचीत की भी इजाजत नहीं थी. बबीता अपनी आपबीती बयान करते हुए कहती हैं, "मुझे सुबह चार बजे ही उठना पड़ता था. सबसे पहले मैं घर में झाड़ू लगाती. उसके बाद चाय बना कर सबको देती. फिर बरतन धोने के बाद खाना बनाती. मुझे दोपहर बाद ढाई बजे तक खाना मिलता था. वह भी आधा पेट. मांगने पर वह लोग कहते थे कि अब और खाना नहीं है."

Proteste von weiblichen Haushaltshilfen in Kolkata Indien
तस्वीर: DW

घर की चारदीवारी के भीतर काम करने वाली इन युवतियों का पता लगाना बेहद कठिन है. समिति के संयोजक देवेन दास कहते हैं कि कोलकाता में 50 हजार से भी ज्यादा नाबालिग युवतियां घरेलू नौकरानी के तौर पर काम करती हैं.

सरकारी टोटके

घरेलू नौकरानियों के हितों की रक्षा के लिए बनी समिति राज्य सरकार से उनकी सुरक्षा के लिए एक कानून बनाने की मांग कर रही है. लेकिन सरकार की कानों पर जूं तक नहीं रेंगी है. यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि अपने यूनियन राज के लिए कुख्यात रहे बंगाल में सरकार और तमाम दल घरेलू नौकरानियों की यूनियन के प्रति उदासीन हैं. यह समिति दो साल से पंजीकरण का अनुरोध कर रही है. लेकिन अब तक इस मामले की फाइल जरा भी आगे नहीं बढ़ी है. बंगाल की कई युवतियों को बेहतर नौकरी का प्रलोभन देकर दूसरे राज्यों में ले जाकर बेच देने के कई मामले भी सामने आए हैं. लेकिन सरकार ऐसे तमाम मामलों में चुप्पी साधे रहती है.

इन महिलाओं की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उमें से ज्यादातर के पास चुनाव आयोग का मतदाता परिचय पत्र नहीं है. यानी वह मतदान के अपने अधिकार का इस्तेमाल भी नहीं कर सकतीं. इसके लिए तमाम राजनीतिक दलों से गुहार लगाने के बावजूद अब तक कुछ नहीं हुआ है. छाया कहती हैं, "हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमें वोट डालने का अधिकार नहीं है. हमने मतदाता पहचान पत्र बनवाने के लिए बहुत कोशिश की है. लेकिन वह लोग कहते हैं कि नहीं बनेगा. हमने हाल में घर बदला है. वहां के अधिकारी कहते हैं कि पहले जहां रहते थे वहां से कागज ले आओ. अब यह बनेगा या नहीं, यह कहना मुश्किल है."

राज्य में चुनावों के दौरान तो तमाम राजनीतिक दल इन महिलाओं की हालत सुधारने के लंबे-चौड़े वादे तो करते हैं लेकिन बाद में कुछ नहीं होता. यानी ठोस पहल के अभाव में बंगाल की हजारों महिलाएं बदतर जिंदगी बिताने को मजबूर हैं.

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः वी कुमार

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