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शहर की जिंदगी में घुलती सेहत

१७ जून २०११

भारत में आबादी का एक बड़ा हिस्सा देहातों से शहर की ओर जा रहा है और जितने लंबे समय तक वे शहर में जिंदगी बसर करते हैं, दिल की बीमारी या डायाबिटीज जैसी बीमारियों का जोखिम उतना ही बढ़ता जाता है.

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तस्वीर: picture alliance/ANN/The Statesman

अमेरिकन जर्नल ऑफ एपिडेमियोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि शहर में 10 साल तक रहने के बाद ही शरीर में चर्बी बढ़ने, ब्लड प्रेशर या इनसुलिन की समस्याएं जैसे रुझान दिखने लगते हैं. कुछ एक दशकों के बाद शहरी और ग्रामीण लोगों की सेहत का फर्क साफ साफ सामने आ जाता है. सारी दुनिया में बढ़ती शहरी आबादी के मद्देनजर ये सार्वजनिक स्वास्थ्य की आम समस्याएं होने लगी हैं.

इस अध्ययन को पेश करने वाली टीम के प्रधान लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के संजय किनरा कहते हैं कि शहर में आप्रवास के साथ ही चर्बी बढ़ने की रुझान इस अध्ययन में देखा जा सकता है. बाकी लक्षण धीरे धीरे विकसित होते हैं.

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार भारत में शहरों की आबादी हर साल 1.1 फीसदी की दर से बढ़ रही है, जबकि ग्रामीण आबादी में कमी का परिवर्तन 0.37 फीसदी प्रतिवर्ष की गति से हो रहा है. वैसे तुलना के रूप में अगर देखा जाए तो भारत में सिर्फ 30 फीसदी आबादी शहरों में रहती है, जबकि अमेरिका में यह अनुपात 82 फीसदी है.

इस अध्ययन के तहत किनरा और उनकी टीम ने ऐसे भाई बहनों की जांच की, जिनमें से एक शहर में व दूसरा गांव में रहता है. शहर में लंबे समय तक रहने वाले का औसत ब्लडप्रेशर अधिक पाया गया. मिसाल के तौर पर 30 साल से अधिक समय तक शहर में रहने वाले का सिस्टोलिक प्रेशर औसतन 126, दस से बीस साल तक रहने वाले का 124 व गांव में रहने वाले का औसत प्रेशर 123 पाया गया. इसी प्रकार गांव के लोगों में चर्बी की मात्रा औसतन 21 फीसदी थी, जबकि दस साल तक शहर में रहने वाले की 24 फीसदी.

इसके संभव कारणों की चर्चा करते हुए संजय किनरा कहते हैं कि शहर के लोगों का तेजी से वजन बढ़ना, असंतुलित आहार और कम सक्रिय जीवन शैली इन नकारात्मक रुझानों को आगे बढाते हैं. उनका कहना है कि खासकर कम आमदनी वाले आप्रवासी वर्गों के बीच मोटापे को कम करने वाले कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना जरूरी है.

रिपोर्ट: एजेंसियां/उभ

संपादन: ओ सिंह

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