शंभूड़ी से सोनिया
७ जनवरी २०१४प्राइमरी स्कूल की छात्रा शंभूड़ी अब अपने नए नाम सोनिया से पहचानी जाएगी, वहीं दूसरी कक्षा में पढ़ने वाले मंगलिया को मनोहर पुकारा जाएगा. इसी तरह कचरा को अब कचरा नहीं बल्कि कमलेश पुकारा जायेगा. ऐसे कई आदिवासी छात्र है जिनका नाम बदला गया है. नाम परिवर्तन करने की अनोखी पहल करने वाले झाबुआ के एसडीएम अम्बाराम पाटीदार ने डॉयचे वेले से बात करते हुए कहा कि नया नाम पाकर छात्र और उनके अभिभावक दोनों ही खुश हैं.
अपनी पहल से चर्चा में आए अंबाराम पाटीदार ने बताया कि इन दिनों एसडीएम कार्यालय में स्कूली बच्चों के जाति प्रमाण पत्र बनाने का काम चल रहा है. इस दौरान प्रमाण पत्र पर हस्ताक्षर करने के दौरान उन्होंने देखा कि ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के नाम अजीबो-गरीब रखे गए हैं. इस बारे में पड़ताल करने पर मालूम हुआ कि अशिक्षित माता-पिता ने बच्चों के लिए जो भी नाम समझ में आया वही रख दिया.
ऐसे रखे जाते हैं नाम
शिक्षा विभाग में योजना अधिकारी ज्ञानेन्द्र ओझा ने बताया कि एसडीएम कार्यालय से शुरू हुई इस पहल में अब शिक्षक भी शामिल हो गए हैं. अजीबोगरीब नामों वाले छात्रों के अभिभावकों के पास शिक्षक सामान्य और प्रचलित नामों की एक सूची के साथ जाते हैं और उनकी पसंद के अनुसार नया नाम रख दिया जाता है. ज्ञानेन्द्र ओझा कहते हैं, "माता-पिता को ऊटपटांग नामों से भविष्य में हो सकने वाली दिक्कत के बारे में बताया जाता है."
शिक्षा अधिकारी भूपेंद्र सिंह बताते हैं कि ग्रामीण इलाकों में नाम रखने के पहले ज्यादा सोच विचार नहीं किया जाता. बच्चा सोमवार के दिन पैदा हुआ तो सोमू या सोमी, मंगलवार के दिन पैदा हुआ तो नाम रख दिया मंगलिया, बीमार और कुपोषित बच्चा होने पर उसे केकड़िया या केकड़ी पुकारने लग जाते हैं. और इसी नाम को स्कूल के रजिस्टर में भी लिखवा देते हैं. शंभूड़ी, काली, कल्लू, कालिया, समसू, मांगू, पीदिया, झाड़ू, चारी, मगनी, हल्दी, बद्दूबाई ऐसे नाम वाले कई बच्चे यहां मिल जाएंगे. अम्बाराम पाटीदार बताते हैं कि कई बार खूबसूरत और गोरी लड़की का नाम कल्ली या काली रख दिया जाता है. नाम रखने के पूर्व भविष्य के बारे में बिलकुल नहीं सोचा जाता.
अम्बाराम पाटीदार के अनुसार आदिवासी और ग्रामीण अंचलों के युवाओं में अपने ऊटपटांग नाम को लेकर हीनभावना रहती है. वे कहते हैं, "झाबुआ के जोवट में अपनी नौकरी के दौरान मैंने अनुभव किया कि कई कर्मचारी अपने नाम से असहज महसूस करते हैं. इन युवाओं को अपना नाम बदलवाने के लिए लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ा."
नाम बदलने की जरूरत
अम्बाराम पाटीदार कहते हैं कि उनकी पहल से ऐसे कई बच्चों को फायदा होगा जो प्रारंभिक शिक्षा के बाद उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज या बाहर जाएंगे, उस समय उनमें अपने नाम को लेकर हीन भावना नहीं आएगी. मनोवैज्ञानिक डॉ. सरला द्विवेदी कहती हैं कि घर और अपने इलाके तक ऐसे ऊटपटांग नाम चल जाते हैं लेकिन युवावस्था में ऐसे नाम तनाव का कारण बनते हैं. कॉलेज में सहपाठी नाम को लेकर मज़ाक उड़ाते हैं. वे आगे कहती हैं, "हालांकि इन नामों को ऊटपटांग कहना भी ठीक नहीं. ये जरूर है कि ऐसे नाम शहरी और गैर आदिवासी क्षेत्रों में प्रचलित नहीं होते." गांवों और शहरों के बीच सिमटती दूरी के चलते आधुनिक जीवन शैली के प्रभाव में आने वाले युवाओं में इस तरह की हीन भावना ज्यादा पाई जाती है. ऐसे में शुरू में ही बच्चों को सही नाम दिए जाने की पहल को सराहा जा रहा है.
झाबुआ ही नहीं बल्कि देश के कई आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों में इस तरह की समस्याएं हैं. छत्तीसगढ़ के भाटापारा में रहने वाले शिक्षक आनंद कुमार का कहना है कि प्रवेश के समय छात्र और पालकों को नाम के महत्व के बारे में समझाना शिक्षकों की ही जिम्मेदारी है. उनका यह भी मानना है कि अगर अजीब से लगने वाले नाम किसी विशेष अर्थ या संस्कृति का हिस्सा हों तो इसे नहीं बदलना चाहिए.
रिपोर्ट: विश्वरत्न श्रीवास्तव
संपादन: महेश झा