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विवाद धर्म और विज्ञान का

मानसी गोपालकृष्णन१३ जनवरी २००९

सोच हमारी वर्तमान विचारधारा के लिए ख़तरा बने, तो वह विवाद और निन्दा का केन्द्र बन जाती है.कुछ इसी तरह 150 साल पहले चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत ने समाज की सोच को हिला कर रख दिया.

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चार्ल्स डार्विनतस्वीर: picture-alliance / dpa

चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन का जन्म 12 फ़रवरी 1809 को श्रूस्बरी, इंगलैंड में एक समृद्ध परिवार में हुआ था. डार्विन एडिन्बर्ग विश्वविद्यालय में डॉक्टर की तालीम हासिल करने गए लेकिन पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी. 1831 में पांच साल की वैज्ञानिक यात्रा पर वह जहाज़ एच एम एस बीगल से दक्षिण अमेरिका चले गए. यात्रा के दौरान उन्होंने लॉयल की किताब प्रिंसिपल्स ऑफ़ जियॉलोजी अर्थात् भूगर्भ विज्ञान के सिद्धांत नामक किताब पढ़ी. लॉयल ने इसमें फॉसिल यानि जीवाश्म का वर्णन किया है और कहा है, कि वे पृथ्वी पर हज़ारों साल पहले रहने वाले प्राणियों के सबूत हैं. दक्षिण अमेरिका के गालापागोस द्वीपों पर विभिन्न प्रकार के जीव-जंतुओं और पक्षियों को देखकर डार्विन ने यह अनुमान लगाया कि हर द्वीप पर एक ही प्रजाति के अलग अलग पक्षी हैं.

विवाद की शुरुआत

इंग्लैंड लौट कर डार्विन ने पहेली सुलझाने की कोशिश की कि अलग अलग नस्लों या प्रजातियों का विकास किस तरह होता है. उन्होंने यह सुझाव दिया कि जो प्राणी अपने आप को पर्यावरण के अनुकूल कर लेते हैं, वे अपनी नस्ल आगे बढ़ा पाते हैं. नई पीढी़ में फिर वह सारी खूबियां आ जातीं हैं जिन के बल पर संबद्ध प्रजाती अपने आप को इस पर्यावरण में जमा लेती है.

डार्विन के ही समय में इस विषय पर काम कर रहे एल्फ्रेड रसल वॉलेस ने अपनी खोज से भी यही नतीजा निकाला. 1859 में दोनों ने मिलकर अपने अनुमानों को समाज के सामने रखा. अपनी किताब The Origin of Species (प्रजाति का उद्गम) में उन्होंने पृथ्वी पर जीवन के विकास का विश्ल्षण किया है. उन के तर्क से यह अनुमान लगाया गया कि मनुष्य भी प्रकृति के नियमों के उतना ही अधीन है जितना कि धरती पर पाए जाने वाले अन्य प्राणी. 19वीं शताब्दी के यूरोप का विज्ञान के प्रति रवैया संदेह और अविश्वास का था जिस वजह से शुरु हुआ एक ऐसा विवाद जो एक ओर वैज्ञानिकों को नई खोजों की ओर उकसा रहा है और जो दूसरी तरफ धार्मिक गुटों के लिए परेशानी का कारण बन गया है.

मनुष्य है ईश्वरीय रचना

Evolution, Entwicklung der Menschenheit
मनुष्य जाति का विकासक्रमतस्वीर: picture-alliance/ dpa

डार्विन के समय यूरोप में कई लोगों का विश्वास था कि मनुष्य को ईश्वर ने सात दिनों में बनाया है. लेकिन डार्विन के अनुसार मनुष्य, यानी होमो सेपियन भी एक क़िस्म का जन्तु ही है. इससे फिर यह नतीजा निकला कि मनुष्य भी अतीत में शायद कभी बंदर था. चर्च ने डार्विन की इस बात पर ज़बरदस्त आक्रमण किया. डार्विन के सिद्धांत ने बाईबल की जेनेसिस, यानी ईश्वर द्वारा सात दिनों में सृष्टि की रचना वाली अवधारणा का खंडन कर दिया था. आज भी पश्चिम देशों में कई लोगों का मानना है कि डार्विन का सिद्धांत धर्म के विरुद्ध जाता है, इसलिए इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता.

आज हम इस विवाद को क्रियेशन वर्सस एवल्यूशन (सृजन और विकासवाद के बीच टकराव) के नाम से जानते हैं. उद्भव या विकासवाद के सिद्धांत के मुताबिक प्रजातियों के विकास में श्रेष्ठ क़िस्में कमज़ोर क़िस्मों से आगे बढ़ जातीं हैं. इसके अलावा किसी भी प्रजाति के कमज़ोर सदस्यों को प्रकृति अपने तरीक़े से ख़त्म कर देती है (नेचुचरल सेलेक्शन), ताकि केवल अच्छे स्तर की नस्लें आगे बढ़ सकें.

विकासवाद जीवविज्ञान का एक आधारभूत सिद्धांत है. डी एन ए, जीवाश्म और ऐसे ही अन्य सबूतों से विकास की प्रक्रिया और स्पष्ट होती जा रही है. किंतु आज भी कुछ ऐसे लोग हैं जो विकासवाद को ईश्वर और धर्म के के विपरीत मानते हैं. अमेरिका में अब भी कई इसाई गुटों को इस सिद्घांत से परेशानी होती है. लेकिन पोप ने और विभिन्न प्रोटेस्टंट ईसाई गुटों ने इसे धर्म के अनुकूल मानते हुए स्कूलों में डार्विन के सिद्धांत के समावेश पर कोई आपत्ति नहीं जताई है.

ऐसे और कई विषय हैं जिन्हें कई लोग समाज के सामने लाने से कतराते हैं. डार्विन बेशक इस सूचि में पहले स्थान पर न हों, लेकिन सवाल यह है कि क्या विकास और परंपरा के बीच विवाद में हम ज्ञान को अनदेखा कर सकते हैं?