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लोकपाल की नियुक्ति का नाटक

मारिया जॉन सांचेज
२० मार्च २०१९

लोकसभा चुनाव शुरू होने के मात्र तीन सप्ताह पहले देश में लोकपाल को लाना क्या केवल दिखावा है या फिर भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन की तर्कसंगत परिणाम. पढ़िए दिल्ली से वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप कुमार की राय.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

पिछले लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार करते हुए प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान छेड़ने और विदेश से काला धन वापस लाने का वादा किया था. तथाकथित गांधीवादी अन्ना हजारे के नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन और जन लोकपाल नियुक्त किए जाने की मांग ने भी उनके इस चुनाव प्रचार को शक्ति दी थी. लेकिन प्रधानमंत्री बन जाने के बाद नरेंद्र मोदी लोकपाल को बिलकुल ही भूल गए और भ्रष्टाचार मिटाना और काला धन विदेश से लाना जुमले बन कर रह गए. उनके कार्यकाल में सीबीआई जितनी विवादास्पद और अविश्वसनीय बनी, वह अभूतपूर्व था. अब लोकसभा चुनाव शुरू होने के मात्र तीन सप्ताह पहले लोकपाल को नियुक्त करके उन्होंने केवल एक नाटक ही खेला है. चुनाव की घोषणा के बाद यह नियुक्ति एक अर्थ में आदर्श चुनाव संहिता का भी उल्लंघन है.

लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही संसद में पारित हो गया था. उसे 1 जनवरी, 2014 को राष्ट्रपति की मंजूरी भी मिल गयी थी. लोकपाल का चयन करने की समिति में लोकसभा में विपक्ष के मान्यताप्राप्त नेता भी सदस्य होने थे, लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजे कुछ ऐसे आए कि लोकसभा में किसी को भी विपक्ष का नेता नहीं चुना जा सका.

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अन्ना हजारे के नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन ने देश के युवाओं में जगाई थी नई उम्मीदें. तस्वीर: AP

इसके बावजूद सीबीआई आदि के निदेशक की नियुक्ति के लिए कानून में तो बदलाव किया गया और सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को उसका सदस्य बनाने का प्रावधान लाया गया, पर लोकपाल की नियुक्ति संबंधी कानून में इस तरह का कोई बदलाव नहीं किया गया. बल्कि उसमें बदलाव करने के लिए अन्य अनेक तरह के प्रावधानों की पेशकश की गयी, जो इतने विवादास्पद थे कि उन्हें संसद की चयन समिति को भेजा गया जहां वे बरसों धूल खाते रहे. दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एपी शाह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर मूल कानून को नरम और लचीला बनाने का आरोप भी लगाया. लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी.

सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को चयन समिति का सदस्य बनाने के लिए कानून में कोई परिवर्तन नहीं किया गया. नतीजतन जब जस्टिस पीसी घोष को लोकपाल नियुक्त करने वाली समिति की बैठक हुई, तो उसमें कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर शामिल किया गया, लेकिन उन्हें केवल अपनी राय व्यक्त करने का ही अधिकार था, फैसले के समय वोट देने का नहीं. स्वाभाविक रूप से खड़गे ने बैठक में भाग लेने से इंकार कर दिया.

इस समय मोदी सरकार राफेल लड़ाकू विमान की खरीद समेत भ्रष्टाचार के अनेक आरोपों में घिरी है. जिस तरह ललित मोदी, नीरव मोदी, विजय माल्या आदि व्यवसायी भारतीय बैंकों को भारी चूना लगाकर विदेश भागने में सफल हुए हैं और जिस तरह से उद्योगपतियों को दिए गए बैंक कर्जे माफ किए गए, उनके कारण भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की मोदी सरकार की नीयत पर सवालिया निशान लग गए हैं. यूं भी जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब वहां भी उन्होंने लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की थी और किसी न किसी बहाने उसे टालते रहे थे. जस्टिस घोष की नियुक्ति भी जिस चयन समिति ने की है, उसमें सरकार के समर्थक बहुमत में हैं. जस्टिस शाह ने अपने पत्र में प्रधानमंत्री मोदी से आग्रह किया था कि लोकपाल की चयन प्रक्रिया भी पारदर्शी होनी चाहिए. लेकिन उनके इस आग्रह पर कोई ध्यान नहीं दिया गया.

पूरे पैंतालीस महीने सत्ता में रहते हुए मोदी सरकार को लोकपाल की याद नहीं आयी, न ही मनमोहन सिंह सरकार को एक सप्ताह की मोहलत न देने के लिए तैयार अन्ना हजारे ही इस दौरान कुछ बोले. अब लोकसभा चुनाव से ठीक तीन सप्ताह पहले मोदी सरकार की नींद टूटी है, वह भी आदर्श चुनाव संहिता लागू होने के बाद! यदि उसे यह उम्मीद है कि इससे मतदाताओं में यह संदेश जाएगा कि सरकार भ्रष्टाचार मिटाने के लिए संकल्पबद्ध है, तो उसके लिए बहुत देर हो चुकी है.

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