लखनऊ के हिन्दू इमामबाड़े में भी अज़ाख्वानी
१७ दिसम्बर २०१०करीब सवा सौ इमामबाड़ों वाले लखनऊ में ‘इमामबाड़ा किश्नू' के नाम से मशहूर एक हिंदू इमामबाड़ा भी है. गंगा जमुनी तहजीब की बेहतरीन मिसाल इस इमामबाड़े में भी मोहर्रम में हर साल मजलिस, मातम और अजादारी होती है. इसके अलावा लखनऊ में दर्जनों ऐसे स्थान हैं जहाँ हिन्दू ताजिये रखते हैं.
हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक ये इमामबाडा 1880 में बना , तभी से इसमें बराबर ताजियेदारी हो रही है. इस इमामबाड़े के कर्ताधर्ता हरीशचंद्र धानुक हैं. इन्होंने ताजियेदार सेवक संघ बना रखी है. हरीशचंद्र इसके अध्यक्ष हैं. इस संघ में इनके परिवार के 20-25 लोगों के अलावा सैकड़ों लोग शामिल हैं. हरीश के परदादा गणेशी ने गरीबी से निजात और औलाद की मन्नत मांगी थी. मन्नत पूरी हुई और बेटा पैदा हुआ तो उसका नाम किशन रखा और फिर उसी के नाम पर इमामबाड़ा बनवा दिया जिसे अब किश्नू का इमामबाड़ा कहा जाता है.
इस परिवार की मोहर्रम में इतनी आस्था है कि हरीश के चार बेटे पंकज,आशीष, मनीष और रजनीश भी ताजियेदारी ही नहीं करते बल्कि मर्सिये भी पढ़ते हैं और मातम भी करते हैं. इनकी बेटी रंजना भी ताजियेदार हैं. इनके एक भाई राजेश दूरदर्शन में कार्यरत हैं और दूसरे भाई राकेश की पत्नी यूपी सरकार में अधिकारी हैं लेकिन ताजियेदारी में सभी बराबर से शरीक होते हैं.
शहर के दूसरे इमामबाड़ों की तरह सातवें मोहर्रम से यहां भी मजलिस मातम शुरू हो गया और बुधवार को मेयर डाक्टर दिनेश शर्मा ने भी इस इमामबाड़े में पहुंच कर जियारत की. डॉ.शर्मा हालांकि बीजेपी से ताल्लुक रखते हैं लेकिन उन्होंने किश्नू इमामबाड़े में ताजियों पर पुष्प अर्पित किए और कहा कि ताजियेदारी पर शियों का ही नहीं सभी का अधिकार है. किश्नू इमामबाड़े में गुरुवार की रात काफी संख्या में अजादारों ने पहुंच कर अजाख्वानी की. गौरतलब है कि 9 मुहर्रम कि रात को ही क़त्ल की रात कहा जाता है क्योंकि इसी रात को इमाम हुसैन को कर्बला (इराक) में उनके साथी छोड़ कर चले आए थे और सिर्फ72 लोग बचे थे जिनका 10 मुहर्रम को क़त्ल कर दिया गया था. शुक्रवार को दस मुहर्रम है.
सबसे लम्बी अवधि के मुहर्रम
ईरान-इराक में मोहर्रम दस दिन से लेकर एक महीने में निपट जाता है लेकिन लखनऊ में सवा दो महीने तक चलता है. यहां अभी भी बिल्कुल उसी तरह से पहली मोहर्रम को शाही जरीह का जूलूस निकाला जाता है जैसा अवध के पहले राजा मोहम्मद अली शाह बहादुर के जमाने में 1838 में निकला था.
मोहर्रम पर हुसैनाबाद ट्रस्ट हर साल करीब 30 लाख रुपए खर्च करता है. उसी परंपरा को अभी तक कायम रखते हुए गाजे बाजे,मातमी धुन बजाते बैंड, हाथी, नौबत, शहनाई, नक्कारे, सबील, झंडियां, प्यादे और माहे मरातिब यानी मछली, शमशीर (तलवार), चांद, सूरज और सूरजमुखी के चांदी के निशान के साथ मोहर्रम की शुरुआत होती है. यूपी पुलिस के बैंड के साथ लखनऊ की मशहूर अंजुमनें इसमें मर्सिया पढ़ती हैं. आसिफी इमामबाड़े से पहली मोहर्रम को उठने वाला यह शाही जुलूस छोटे इमामबाड़े तक का करीब सवा किलोमीटर का सफर चार घंटे में तय करता है.
शिया सुन्नी दंगे
लखनऊ की खास बात यह भी है कि यहां कभी जातीय दंगे नहीं हुए बल्कि जब भी हुए तो शिया-सुन्नी के बीच हुए. पहली बार 1971 में मोहर्रम में हुए दंगे दर्जनों लोग मारे गए और करोड़ों की संपत्ति तबाह हुई. उसके बाद से तो दंगों की भी परंपरा बन गई. प्रशासन ने शिया अजादारी पर पाबंदी लगा दी. जुलूस बंद हो गए. यह पाबंदी 1999-2000 में खत्म हुई.
रिपोर्टः सुहेल वहीद,लखनऊ
संपादनः आभा एम