1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

"राम ने सीता का त्याग नहीं किया"

मारिया जॉन सांचेज
१९ जुलाई २०१७

हिंदू धर्मग्रंथ रामायण को आधुनिक और सामयिक बनाया जायेगा. इस मकसद से अगले महीने देश के इतिहासकार गोरखपुर यूनिवर्सिटी में चर्चा करेंगे. कुलदीप कुमार कहते हैं कि रामायण के कई संस्करण हैं जो 2000 साल से अस्तित्व में हैं.

https://p.dw.com/p/2gjqL
Nepal Ankit Babu Adhikari
तस्वीर: Beck Photography

जब भी और जहां भी भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आती है, इतिहास के साथ छेड़छाड़ शुरू हो जाती है. जब 1998 से 2004 तक प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार केंद्र में थी, तब उसके मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने स्कूलों में इस्तेमाल होने वाली इतिहास की पाठ्य पुस्तकों का पुनर्लेखन करवाना शुरू कर दिया था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों का यह आरोप रहा है कि देश का इतिहास पश्चिमी इतिहासकारों और उनके भारतीय अनुयायियों द्वारा लिखा गया है और उसमें भारतीय परिप्रेक्ष्य नजर नहीं आता. दरअसल संघ का जोर पूरे इतिहास को हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के चश्मे से देखने पर रहा है और उसकी राय में पिछले एक हजार साल का इतिहास मुस्लिम आक्रमणकारियों और शासकों द्वारा हिंदुओं पर अत्याचारों और उनके मंदिरों को ध्वस्त करने का रहा है. "हिन्दू आत्मगौरव” के पुनरुत्थान के लिए पिछले दिनों राजस्थान की भाजपा सरकार ने आदेश जारी किया कि इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में राणा प्रताप की सेनाओं को हल्दी घाटी के युद्ध में मुगल बादशाह अकबर की सेनाओं पर विजय प्राप्त करता हुआ दिखाया जाए, ऐतिहासिक तथ्य भले ही इसके ठीक विपरीत हों. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं कह चुके हैं कि प्राचीन भारत में उन्नत प्लास्टिक सर्जरी थी और ‘महाभारत' के कर्ण वास्तव में एक परखनली शिशु थे.

Indien Theateraufführung Ramleela in Ayodhya
तस्वीर: DW/F. Fareed

इतिहास के पुनर्लेखन के लिए संघ ने कई दशक पहले अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना नाम का संगठन बनाया था. अब यह संगठन अगस्त में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में एक विशाल सेमिनार करने जा रहा है जहां "राष्ट्रवादी इतिहासकार” वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में वर्णित उन प्रसंगों को निकाल कर प्रामाणिक पाठ तैयार करने पर विचार करेंगे जो मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र पर दाग लगाते हैं, मसलन उनके द्वारा सीता का परित्याग और वनवास, तथा तपस्या करके वर्णव्यवस्था भंग करने वाले शूद्र शंबूक का वध. योजना के संगठन मंत्री बालमुकुंद पाण्डेय का कहना है कि ये अंश रामायण में बाद में जोड़े गये हैं इसलिए इन्हें निकाला जाना जरूरी है.

पाण्डेय की तरह ही अधिकांश विद्वान यह मानते हैं कि समूचा उत्तरकाण्ड ही वाल्मीकि रामायण में बाद में जोड़ा गया. यह एक सर्वविदित तथ्य है कि रामायण और महाभारत, दोनों ही पहले मौखिक रूप से रचे गए और दोनों की मूल कथा संक्षिप्त थी. उनकी कथा का वाचन किया जाता था और उन्हें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक रूप से ही पहुंचाया जाता था. इस क्रम में उनके एक ही पाठ का अपरिवर्तनीय बने रहना असंभव था. सैकड़ों साल चले इस क्रम में उनके पाठ में अंतर आया और अनेक नये अंश जुड़ते चले गये. इनके लेखन का काल भी काफी लंबा यानी 400 ईसा पूर्व से 400 ईसवी तक माना जाता है. इस दौरान ये कथाएं भारत भर में फैलीं और फिर श्रीलंका, थाईलैंड, चीन और इंडोनेशिया तक पहुंची. बौद्ध और जैन कवियों ने भी इसे अपनाया. इस प्रक्रिया में रामकथा के अनेक रूप और रामायण के अनेक संस्करण बनते गये जिनमें आपस में बहुत अंतर है. लेकिन ये सभी पिछले दो हजार साल से एक साथ अस्तित्व में हैं और किसी एक का यह दावा नहीं है कि वही एकमात्र प्रामाणिक संस्करण है. जैन आचार्य विमल सूरि के ‘पउमचर्यम' का जरूर यह दावा था कि उसमें घटनाओं का ठीक वही वर्णन है जैसे वे घटी थीं. लेकिन यह सिर्फ दावा ही है.

Indien Theateraufführung Ramleela in Ayodhya
तस्वीर: DW/F. Fareed

स्थिति यह है कि ‘वाल्मीकि रामायण' के उत्तरकाण्ड, कालिदास के ‘रघुवंश', भवभूति के ‘उत्तररामचरित', विमल सूरि के ‘पउमचरियम', रविषेण के ‘पद्मचरित', ‘कुंदमाल', ‘कथासरित्सागर', ‘भागवत पुराण', ‘पद्म पुराण', ‘जैमिनीय अश्वमेध', ‘तिब्बती रामायण', ‘उपदेशपद', ‘कहावली' हेमचन्द्र जैन की ‘रामायण', कृत्तिवास और चंद्रावली की बंगला ‘रामायण', कश्मीरी ‘रामायण', लोकगीत, गुजराती ‘रामायणसार', ‘अध्यात्म रामायण', ‘आनंद रामायण' और श्रीलंका, थाइलैंड एवं कंबोडिया जैसे देशों में प्रचलित रामायण,  इन सभी में सीता के परित्याग का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उल्लेख है. सातवीं शताब्दी में लिखे गए भवभूति के नाटक ‘उत्तररामचरित' की तो केंद्रीय कथा ही सीता के परित्याग और राम के पश्चात्ताप एवं विरह के चारों ओर घूमती है.

भारतीय परंपरा में ‘रामायण' को काव्य और ‘महाभारत' को इतिहास माना गया है. रामकथा को अनेक कालों, समाजों और देशों में कवियों ने अपने-अपने ढंग से काव्याभिव्यक्ति दी है जिसमें कवि-कल्पना की भी निर्णायक भूमिका रही है. रामकथा के इन विभिन्न रूपों में हर बिन्दु पर भेद है. कथा का आरंभ और अंत एक जैसा नहीं है, राम और सीता तक के बारे में अलग-अलग जानकारी और चरित्र-चित्रण है. यूं भी भारतीय संस्कृति के केंद्र में उसकी विविधता, अनेकरूपता और सहअस्तित्व रहे हैं. इसलिए ‘रामायण' का एकमात्र और सर्वस्वीकृत संस्करण तैयार करने का संघ का प्रयास भारतीयता के मूल पर ही आघात करने वाला है.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार