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पढ़ाई में भारी लेकिन नौकरियों में बेचारी हैं महिलाएं

प्रभाकर मणि तिवारी
२५ जुलाई २०२२

रायपुर के भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) ने एमबीए के नये बैच में 62.1 फीसदी लड़कियों को दाखिला देकर एक नया रिकॉर्ड बनाया है. हालांकि भारतीय कंपनियों में मैनेजर के स्तर पर महिलाओं की भूमिका काफी कम है.

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बिट्स पिलानी के मैनेजमेंट कोर्स में 62 फीसदी से ज्यादा सीटों पर लड़कियों को दाखिला मिला है
बिट्स पिलानी के मैनेजमेंट कोर्स में 62 फीसदी से ज्यादा सीटों पर लड़कियों को दाखिला मिला है तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

देश में प्रबंधन के स्तर पर महिलाओं की भूमिका वर्ष 2019 के आठ फीसदी से बढ़कर वर्ष 2021 में 10 फीसदी पहुंच गई है. इसके बावजूद पश्चिमी व अन्य एशियाई देशों के मुकाबले भारत में शीर्ष पदों पर उनकी संख्या काफी कम है.

क्रेडिट स्विस रिसर्च इंस्टीट्यूट ने एक रिपोर्ट में बताया है कि भारतीय कॉरपोरेट जगत के बोर्ड में महिलाओं की तादाद 17.3 फीसदी है. 2015 से अब तक इसमें 6 फीसदी का सुधार आया है. 46 देशों की तीन हजार कंपनियों में सर्वेक्षण के आधार पर तैयार रिपोर्ट के मुताबिक इस मामले में भारत अभी वैश्विक औसत यानी 24 फीसदी से काफी पीछे है.

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कंपनियों के बोर्ड में कम महिलाएं

हाल में जारी डेलायट ग्लोबल विमेंस इन द बोर्डरूम रिपोर्ट के सातवें संस्करण में कहा गया है कि भारत में कंपनियों के बोर्ड में महिलाओं की तादाद 17.1 फीसदी है. वर्ष 2014 में यह आंकड़ा 9.4 फीसदी था. उसी साल कंपनीज एक्ट, 2013 के तहत हर कंपनी के बोर्ड में एक महिला को शामिल करना अनिवार्य किया गया था. लेकिन अब भी बोर्ड के सदस्यों में महिलाओं की तादाद महज 3.6 फीसदी है जो वर्ष 2018 के मुकाबले 0.9 फीसदी कम है.

वैश्विक रूप से बोर्ड के सदस्यों में महिलाओं की तादाद 19.7 फीसदी है जो वर्ष 2018 के मुकाबले 2.8 फीसदी बढ़ी है. इस रिपोर्ट में 51 देशों की 10,493 कंपनियों के आंकड़े लिए गए हैं.

वर्ष 2021 में भारत में बोर्ड के सदस्य के तौर पर महिलाओं की तादाद घटने के बावजूद मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) के तौर पर काम संभालने वाली महिलाओं की तादाद बढ़ कर 4.7 फीसदी पहुंच गई है.

डेलॉयट इंडिया के प्रमुख अतुल धवन कहते हैं, "भारत में नियामकों ने कॉरपोरेट घरानों में अहम पदों पर महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए मानक जरूर तय किए हैं, लेकिन तय मानकों और जमीनी हकीकत में काफी अंतर है. भारतीय कंपनियों को लैंगिक असमानता दूर करने की दिशा में ठोस पहल करने की जरूरत है."

डेलॉयट ग्लोबल की इस रिपोर्ट में हर देश की जमीनी हकीकत का जिक्र किया गया है. इसमें बोर्ड रूम में महिलाओं के समक्ष पेश आने वाली चुनौतियों का भी जिक्र किया गया है.

इसमें कहा गया है कि वर्ष 2021 में भारतीय कंपनियों में महिला निदेशकों के कार्यकाल में मामूली वृद्धि हुई है और यह पांच साल में बढ़ कर 5.1 साल हुआ है.

बड़े संस्थानों से पढ़ाई करने के बावजूद कंपनियों के बोर्ड में कम ही महिलायें दिखाई देती हैं
बड़े संस्थानों से पढ़ाई करने के बावजूद कंपनियों के बोर्ड में कम ही महिलायें दिखाई देती हैंतस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

प्रबंधन की पढ़ाई में बढ़ती दिलचस्पी

देश में प्रबंधन की पढ़ाई के प्रति लड़कियों की दिलचस्पी बढ़ी है. अब महज इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर नौकरी करने की बजाय वे प्रबंधन की डिग्री हासिल करना चाहती हैं. इसकी एक प्रमुख वजह सॉफ्टवेयर कंपनियों में ज्यादा मेहनत और कम वेतन है. इसलिए प्रबंधन की पढ़ाई कर लड़कियां अपना भविष्य व करियर संवारना चाहती हैं. ताजा आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं.

भारतीय प्रबंधन संस्थानों और निजी प्रबंधन संस्थानों में दाखिला लेने वालों में लड़कियों की तादाद साल दर साल बढ़ी है. आईआईएम रायपुर ने तो इस साल 62.1 फीसदी लड़कियों को दाखिला देकर एक नया रिकॉर्ड बनाया है. बिट्स पिलानी की ओर से मुंबई में शुरू बिट्स स्कूल ऑफ मैनेजमेंट (बिटसोम) के पहले बैच के 140 छात्रों में 35 फीसदी लड़कियां हैं. आईआईएम कोझिकोड में भी लड़कियों की औसत तादाद 30 फीसदी से बढ़ कर 39 फीसदी पहुंच गई है.

मुश्किलें बड़ी हैं महिला कारोबारियों की राह में

आईआईएम कोझिकोड के निदेशक देवाशीष चटर्जी के मुताबिक, "शुरुआती पचास वर्षों तक मुश्किल से 8-10 फीसदी लड़कियां एमबीए की पढ़ाई करती थी. लेकिन अब तस्वीर तेजी से बदल रही है.”

बावजूद इसके कॉर्पोरेट क्षेत्र में महिलाओं का प्रतिनिधित्व इस अनुपात में नहीं बढ़ रहा है. एक प्रबंधन संस्थान के प्रमुख डा. शीर्षेंदु कुमार बताते हैं, "ज्यादातर कंपनियां शुरुआती दौर में तो महिलाओं को नौकरियां देती हैं. लेकिन जैसे-तैसे महिलाएं तरक्की की सीढ़ी चढ़ती जाती हैं, उनके शीर्ष प्रबंधन में शामिल होने के मौके घटने लगते हैं. इसके लिए कंपनियों को अपनी प्रणाली में सुधार लाना होगा.”

बिटसोम की प्रोफेसर लीमा चटर्जी कहती हैं, "कंपनियो को महिलाओं की चुनौतियों, घर व बाहर की दोहरी भूमिका और मां बनने जैसी दूसरी जिम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए एक नया सिस्टम तैयार करना होगा. इसके बिना ना तो महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा और न ही लैंगिक असमानता की खाई को पाटने में सहायता मिलेगी.”