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महेश्वर की नर्मदा और अहमदुन्निसा की साड़ियां

स्वाति मिश्रा मध्यप्रदेश के महेश्वर से
११ मई २०२४

महेश्वर में होल्कर राजपरिवार से मिल कर नर्मदा और पवित्र हो जाती है. प्रदूषण ने नदी की सुंदरता छीन ली लेकिन जीवनरेखा की भूमिका नहीं बदली. यहां के सौंदर्य में माहेश्वरी साड़ियों के भी रंग हैं, जो बुनकरों के जीवन में नहीं.

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Indien | Schönheit von Narmada
तस्वीर: Swati Mishra/DW

"कांता ने मुझे अंगूठी दी,

अंगूठी मैंने सुनार को दी,

सुनार ने मुझे रुपये दिए,

रुपये मैंने अंटी से बांधे,

और परिक्रमा पर निकल पड़ा!”

अमृतलाल वेगड़ ने अपने यात्रा वृतांत "सौंदर्य की नदी नर्मदा” में इस छंद का परिचय "स्तुतिगान” के रूप में दिया है. नर्मदा की सैकड़ों किलोमीटर लंबी पदयात्राएं करने वाले वेगड़ बताते हैं कि साल 1984 में एक बार नर्मदा पदयात्रा के लिए जब उनके पास पैसा नहीं था, तो उन्होंने पत्नी कांता से उनकी अंगूठी मांगी और बेचकर यात्रा पर चले गए. अपनी नर्मदा यात्राओं पर लिखे इस संस्मरण में वेगड़ के पहले अध्याय की पहली पंक्ति ही है, "नर्मदा सौंदर्य की नदी है.”

नर्मदा, मध्य प्रदेश और गुजरात की जीवन रेखा! इसे मैंने पहली बार 9 मई, 2024 को देखा. जगह, महेश्वर. मैंने कमला, बागमती, कोसी, गंगा, गंडक, सोन, यमुना, घाघरा, रिस्पना, सोंग, झेलम, सतलुज, व्यास, बस्पा, कृष्णा, कावेरी, ब्रह्मपुत्र के अलावा भारत की कई बरसाती नदियां देखी हैं. प्राग की वल्टवा और बॉन में अपनी पड़ोसी राइन को देखा है. मतलब अभी इतने ही नाम याद आ रहे हैं. हालांकि नर्मदा बड़ी देर में दिखीं.

मध्यप्रदेश के महेश्वर में अहिल्यादेवी होल्कर की प्रतिमा
इस इलाके में आज भी लोग अहिल्यादेवी होल्कर को मां के रूप में सम्मान देते हैंतस्वीर: Swati Mishra/DW

स्थानीय लोगों की 'मां' अहिल्याबाई

महेश्वर होलकर राज की पूर्व राजधानी है, जहां आज भी अहिल्यादेवी होलकर की मूर्ति के आगे लोग हाथ जोड़ते, सिर झुकाते हैं. यहां आज भी उनके लिए "मां” का संबोधन प्रचलित है. सुबह रजवाड़ा में स्वर्ण झूला के पास उनकी गद्दी के सामने एक अधेड़ उम्र के आदमी को माथा झुकाकर प्रणाम करते देखकर, मैंने पूछा कि अहिल्याबाई होलकर उनके लिए पूजनीय क्यों हैं? जवाब मिला, "वो महादेव की बड़ी भक्त थीं, इतने मंदिर बनवाए.” यकीनन, अहिल्याबाई के बनवाए मंदिर उनकी विरासत का बड़ा हिस्सा हैं. अगले साल 31 मई को उनकी 300वीं सालगिरह मनाई जाएगी.

56 साल में पूरा हुआ उम्मीदों और चिंताओं का बांध

महेश्वर के जिक्र में नर्मदा नत्थी है. नर्मदा के बखान का मेरा निजी संदर्भ तो बहुत सीमित है, लेकिन मैंने कई लोगों को इस नदी के नाम से भावुक होते देखा है. अभी बहुत ताजा कल ही एक अनंत नाम के कैब ड्राइवर बता रहे थे कि वो नर्मदा को बहुत मानते हैं, बल्कि पूजते हैं क्योंकि वो जीवन देती है. यह बताते-बताते उन्होंने अपनी बांह मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, "देखिए, मेरे रोएं खड़े हो गए!” सच में, उनके रोंगटे खड़े थे.

नर्मदा को प्रणाम करते कैब ड्राइवर अनंत
नदी प्रदूषित भले हो गई हो लेकिन वह अभी जीवनरेखा है और आस्था का प्रतीक भीतस्वीर: Swati Mishra/DW

आस्था और प्रदूषण भी

नदियां शायद हमेशा से आस्था और श्रद्धा की पात्र रही हैं. ये अलग बात है कि भारत में ज्यादातर नदियों की प्रदूषण से हालत खराब है. मध्य प्रदेश अपवाद नहीं. नर्मदा, चंबल, मही, केन, क्षिप्रा, बेतवा समेत ज्यादातर प्रमुख नदियां प्रदूषण की शिकार हैं. लोक आस्था और संस्कृति में नर्मदा का ओहदा भले बहुत पवित्र हो, लेकिन प्रदूषण के मामले में इसकी स्थिति बेहद गंभीर बताई जाती है.

क्या दिया नर्मदा बचाओ आंदोलन के 35 सालों ने

अभी पिछले ही साल नेशनल ग्रीन ट्राइब्युनल ने मध्य प्रदेश सरकार को नर्मदा में प्रदूषण घटाने के लिए सख्त निर्देश जारी किए थे. वहीं, करीब एक महीने पहले रतलाम जिले के एक गांव मैलुखेड़ी से खबर आई कि यहां चंबल में सैकड़ों मरी हुई मछलियां मिलीं. आशंका है कि ये प्रदूषण के कारण हो सकता है.

सूखती नदियों और बढ़ते जल संकट के बीच नदियां और संवेदनशील मुद्दा होती जाएंगी. पानी के बंटवारे का मुद्दा और गहराता जाएगा. ये ऐसे मसले हैं, जिनसे लाखों-करोड़ों लोगों का वर्तमान और भविष्य जुड़ा है, लेकिन तब भी ये चुनाव के मुद्दे नहीं बनते. नॉन-इशूज, गढ़े गए मसले और बतकहियां चर्चा में रहती हैं.

साड़ियों के वर्कशॉप में मोबाइल देखते बुनकर और ठेकेदार वसीम
माहेश्वरी साड़ियां मध्य प्रदेश के महेश्वर में ही बनती हैंतस्वीर: Swati Mishra/DW

माहेश्वरी साड़ी

नर्मदा घाट और रजवाड़ा तो हैं ही, लेकिन इनके अलावा महेश्वर की छोटी-तंग गलियों में सुनाई देने वाली एक खट-खट की आवाज भी है, जो शहर की प्रसिद्धि से जुड़ी है. यहां कई इलाके हैं, जहां घर-घर में हैंडलूम का काम होता है. इस हथकरघा विरासत का एक चर्चित किरदार है, माहेश्वरी साड़ी. इस साड़ी का नाता भी अहिल्याबाई होलकर से बताया जाता है. कहते हैं कि महेश्वर में अपनी राजधानी बसाने के बाद रानी अहिल्याबाई दूर-दूर से बुनकरों को यहां लाई थीं. महेश्वर के लोगों ने उनसे साड़ी बुनने का हुनर सीखा और इस सिखाई-पढ़ाई से आगे चल कर जन्म हुआ माहेश्वरी साड़ी का.

कारीगर वसीम बताते हैं कि अब भी होलकर किला और नर्मदा की लहरें, माहेश्वरी साड़ी के डिजाइन का अहम हिस्सा हैं. हालांकि, कुछ बदलाव भी आया है. पहले लकड़ी से बनने वाले ढांचों की जगह लोहे ने ले ली है. दूसरी जगहों से कारीगरों-बुनकरों का यहां आना जारी है. मसलन, अहमदुन्निसा का परिवार जो दो साल पहले काम की तलाश में लखनऊ से महेश्वर आ बसा. लखनऊ में ये परिवार पावरलूम पर काम करता था. महेश्वर आकर उन्होंने हाथ का काम सीखा, माहेश्वरी साड़ी बुनना सीखा. अब वो, उनके पति और तीन बेटियां सुबह आठ से शाम के आठ बजे तक हैंडलूम चलाते हैं. इतनी मेहनत के बाद पूरा परिवार मिलकर महीने में 20 से 25 हजार रुपये कमा पाता है.

महेश्वर में साड़ियों के करघे के साथ अहमदुन्निसा
सुबह से देर शाम तक अहमदुन्निसा का परिवार कड़ी मेहनत करने पर भी महीने में 20-25 हजार रुपये ही कमा पाता हैतस्वीर: Swati Mishra/DW

तपती गर्मी में साड़ी की बुनाई

अहमदुन्निसा से जब मिलना हुआ, तब शाम के करीब छह बज रहे थे. ईंट की बनी सादी सी इमारत की दूसरी मंजिल पर जहां उनके परिवार के पांचों लोगों के लिए पांच लूम लगे थे, उस कमरे की छत टीन की थी. 40 डिग्री सेल्सियस से पार के तापमान में कमरा तप रहा था. कई घंटों की तीखी धूप को सोखकर बैठी वो छत अभी कुछ और घंटे तपाने का माद्दा रखती थी. अहमदुन्निसा ही नहीं, महेश्वर में यह काम करने वाले 6,000 से ज्यादा कारीगरों में से अधिकतर इन्हीं स्थितियों में काम करते हैं. गर्मी के कारण कई कारीगर दिन में कुछ घंटे काम बंद कर देते हैं और उसके बदले देर शाम तक जुटे रहते हैं.

हम बड़ी दुकानों में जिस माहेश्वरी साड़ी की मोटी रकम देते हैं, उन्हें बनाने वाले कारीगर बहुत मामूली मेहनताना ही पाते हैं. वसीम बताते हैं कि फर्क मामूली नहीं, काफी ज्यादा है. वो अफसोस जताते हुए कहते हैं कि उनके पास ना तो बड़े निवेश का जरिया है, ना साड़ी को कई दिन तक होल्ड करके अपने पास रखने की गुंजाइश. इसलिए खुद बाजार पहुंचना बड़ा मुश्किल है.

अहमदुन्निसा बड़ी हाजिरजवाब हैं, और हंसोड़ भी. मैंने वापसी की सीढ़ी पर पहुंचकर जब नोट्स लेते हुए एक बार फिर उनका नाम पूछा, तो बोलीं, "अहमदुन्निसा! आधार दिखा दूं क्या?” फिर हम दोनों हंस पड़े. जाते-जाते मैंने अपनी नोटबुक में लिखा, "खुद साड़ी ना पहनने वाली अहमदुन्निसा साड़ियां बुन कर तीनों बेटियों के लिए पैसे जोड़ रही हैं!”

कैसे बचेगी नर्मदा