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महिला फुटबॉल को फिल्मी किक

६ जून २०११

फिल्म बेंड इट लाइक बेकहम पूरी दुनिया में मशहूर हुई. भारत में महिला हॉकी पर बनी फिल्म चक दे इंडिया लोगों के दिलों में है. लेकिन दुनिया भर में फुटबॉल की स्थिति भारतीय महिला हॉकी की स्थिति से थोड़ी ही बेहतर है.

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तस्वीर: AP

भारत में महिला क्रिकेट की तरह फुटबॉल भी हमेशा से आउट ऑफ फोकस है. वैश्विक स्तर पर भी फुटबॉल खेलने वाली लड़कियों को बहुत कम पहचान मिली है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि ये लड़कियां पुरुषों का खेल माने जाने वाले इस खेल में घुसपैठ करती हैं और लोगों को डिस्टर्ब करती हैं. बिना किसी इरादे के ये महिलाएं अपना अलग ही खेल खेलती हैं और पुरुषों के साथ किसी तरह की तुलना नहीं चाहतीं.

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बेंड इट लाइक बेकहमतस्वीर: picture-alliance / dpa

यहां मामला खेल के साथ आजादी का भी है. आजादी मन का करने की. महिला फुटबॉल पर बनी डॉक्यूमेंट्री में या फिल्मों में तो यही दिखाई देता है. जैसे बेंड इट लाइक बेकहम में जसमिंदर की कहानी, जो मां बाप की इच्छा के खिलाफ फुटबॉल खेलती है. घरवाले उसके लिए लड़के देखते हैं और वह चोरी छिपे फुटबॉल खेलती रहती है. लड़कियों के फुटबॉल को छोटे सीन्स और तेज म्यूजिक के साथ फिल्माया गया है तो कुल मिला कर प्रभाव पड़ता है कि महिला फुटबॉल धीमा कतई नहीं है.

तुर्की की लड़कियां फुटबॉल मैदान पर

तुर्की की फिल्म निर्देशक ऐसुन बादेमसॉय 1995 से 2008 तक पांच तुर्क महिला फुटबॉल खिलाड़ियों के साथ बर्लिन में रहीं. इस साथ से निकली तीन भागों वाली एक शानदार डॉक्यूमेंट्री. फिल्म में जल्द ही साफ हो जाता है कि फुटबॉल इन लड़कियों के एक मौका है, घर से हट कर कुछ करने का. परिवार, संस्कृति और मूल्यों पर जारी उलझन से दूर जाने का. लेकिन खास बात है कि इनमें से एक को भी छिपकर फुटबॉल खेलने की जरूरत नहीं है. एक लड़की को तो उसके पिताजी जबरदस्ती खेलने भेजते हैं. ये पांचों बर्लिन के क्रॉइत्सबुर्ग टीम आगिर्स्पोर में खेलती हैं. 1995 से अब तक यह यूरोप का इकलौता तुर्क महिला फुटबॉल क्लब है.

यहां लड़कियां सब कुछ पीछे छोड़ कर बस एक ही चाहत रखती हैं, फुटबॉल खेलना, जीतना, और क्लब लीग में चढ़ना. फिल्म की निर्देशक ऐसुन को यह बड़ा हैरतअंगेज लगता है कि ये लड़कियां लड़कों जैसी नहीं दिखना चाहतीं या उनकी नकल नहीं करतीं. वे लड़कियों की तरह पेश आती हैं. खेल के पहले ड्रेसिंग रूम में आईने को लेकर लड़ाई होती है. ऊंचे, टाइट बंधे हुए बालों और आंखों पर मेकअप के साथ ये लड़कियां मैदान पर आती हैं. फुटबॉल के मैदान को ये चहलकदमी की जगह की तरह इस्तेमाल कर रही हैं, लेकिन ये सब हैं भी खूबसूरत लड़कियां.

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तुर्की के साथ ईरान का मैचतस्वीर: picture alliance/dpa

हमेशा फुटबॉल?

डॉक्युमेंट्री का दूसरा हिस्सा लड़कियों के जीवन की ओर मुड़ता है. वे बड़ी होती हैं, अपनी पढ़ाई, भविष्य, रिश्ता, शादी सबके बारे में सोचती हैं. एक सीजन खत्म होता है और लड़कियां जानती हैं कि यह उनका भी आखिरी सीजन था.

तीसरे भाग में इन्हीं पांच लड़कियों के जीवन पर 10 साल बाद नजर डाली जाती है. जीवन ने इन्हें कई रंग दिखाए हैं. एक का तलाक हो चुका है, नौकरी नहीं है और बच्चा उसे अकेले ही पालना है. दूसरी एक बहुत ही भयानक अनुभव से गुजरी है, जिसके बारे में वह बात नहीं करना चाहती. खुद को कड़ी मैराथन ट्रेनिंग में भुलाना चाहती है और इस्लाम धर्म की शरण में जाकर शांति महसूस करती है. दो अन्य भूतपूर्व महिला खिलाड़ियों ने तुर्क आदमियों से शादी की है और परिवार चला रही हैं. इन पांच में से एक ही है जो अभी भी फुटबॉल खेल रही है और प्रशिक्षक के तौर पर काम कर रही है.

ऐसुन खुद ज्यादा नहीं कहतीं. वह इन लड़कियों को बोलने देती हैं. तो कुल मिला कर बहुत पैने और कसे हुए पोर्ट्रेट तैयार होते हैं.

फुटबॉल अंडर कवर

इसी तरह की एक कहानी बर्लिन के दो युवा फिल्मकार देखते हैं. ईरान के अयात नजाफी और बर्लिन के डेविड आसमान को पक्का भरोसा है कि फुटबॉल दो संस्कृतियों के बीच एक पुल बन सकता है, भले ही वे कितनी भी अलग हों. यही विश्वास उन्हें ईरान लेकर जाता है. ईरान में महिला फुटबॉल की शुरुआत 1968 में हुई, ऐसे समय में जब जर्मनी में महिला फुटबॉल प्रतिबंधित था. फिल्म टीम बर्लिन की महिला फुटबॉल टीम के साथ तेहरान जाती है. वहां पहली बार अंतरराष्ट्रीय मैत्री मैच खेला जाना होता है. ईरानी महिलाओं को पूरे पर्दे के साथ मैदान पर उतरना है. खेल देखने की अनुमति सिर्फ महिलाओं को है. हाफ टाइम में नाचने गाने पर रोक...कुल मिला कर यह सब सीन्स फिल्म में बहुत अच्छे बन पड़े हैं.

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ईरानी फुटबॉल टीमतस्वीर: picture-alliance/ dpa

फिल्मों में दिखाई जाने वाली ये कहानियां कहीं न कहीं महिला फुटबॉल के लिए विज्ञापन की तरह काम करती हैं. भले ही वह जर्मनी का डामेन फुटबॉल (महिला फुटबॉल) हो, पर्दे में खुलेआम खेलती ईरान की फुटबॉल टीम या एक भारतीय मूल की लड़की की कहानी. यह एक उम्मीद देती है अंतरराष्ट्रीय महिला फुटबॉल को. फुटबॉल का खेल उन्हें अपना जीवन जीने के लिए रोज 45 मिनट तो देता ही है, भले इसके बाद रोजमर्रा का ढर्रा शुरू होता हो.

रिपोर्टः डॉयचे वेले/आभा मोंढे

संपादनः वी कुमार

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