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लंबी है पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा की परंपरा

प्रभाकर मणि तिवारी
१२ अप्रैल २०२१

केंद्र सरकार और चुनाव आयोग ने रिकॉर्ड तादाद में केंद्रीय बलों की तैनाती कर विधान सभा चुनावों में हिंसा पर अंकुश लगाने का दावा किया था. बावजूद इसके चौथे चरण में केंद्रीय बलों की फायरिंग में ही चार लोगों की मौत हो गई.

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Indien, Kalkutta | Parlamentswahlen
तस्वीर: IANS

पश्चिम बंगाल विधान सभा के चुनावों में मतदान के चार चरण हो चुके हैं और चौथे दौर के मतदान में हुई हिंसा के बाद बाकी चार चरणों के दौरान भी हिंसा का अंदेशा बढ़ने लगा है. दूसरी ओर, इस हिंसा के लिए बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा करने में जुटी हैं. पश्चिम बंगाल की छवि भद्रलोक वाली रही है. लेकिन राज्य में चुनावों के दौरान यह छवि कहीं गुम हो जाती है.

भारी सुरक्षा के बावजूद हिंसा

यूं तो राज्य में चुनावी हिंसा की परंपरा बहुत पुरानी रही है. लेकिन मौजूदा विधानसभा चुनावों में जैसी हिंसा शुरू हुई है वैसी पहले कभी नहीं हुई थी. यह पहला मौका है जब शांतिपूर्ण चुनाव कराने के लिए तैनात केंद्रीय सुरक्षा बलों की फायरिंग में ही चार लोगों की मौत हुई हो. चौथे चरण के चुनाव में हिंसा के दौरान कुल पांच लोगों की मौत हुई है. वैसे वर्ष 2018 के पंचायत चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए इस बार भी हिंसा की आशंका तो बहुत पहले से जताई जा रही थी. बीते लोकसभा चुनाव में बीजेपी की कामयाबी के बाद राज्य में राजनीतिक हिंसा की घटनाएं लगातार तेज हुई हैं. कोई भी महीना ऐसा नहीं बीता है जिस दौरान किसी न किसी पार्टी के कार्यकर्ता की हत्या नहीं हुई हो.

मौजूदा विधानसभा चुनाव के पहले तीनों चरण भी हिंसा से अछूते नहीं रहे थे. इस तथ्य के बावजूद कि टीएमसी पर हिंसा का आरोप लगाने वाली बीजेपी और उसके नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने इस बार रिकॉर्ड तादाद में केंद्रीय बलों की तैनाती की है. पहले चरण में कई नेताओं के काफिले पर हमले हुए तो दूसरे चरण में नंदीग्राम में भी मतदान केंद्रों पर कब्जा करने और हमले के आरोप सामने आए. इस दौरान टीएमसी और बीजेपी से जुड़े कुछ लोगों की रहस्यमय हालत में मौतें भी हुईं. दोनों दलों ने इनको हत्या करार देते हुए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराया था. लेकिन चौथे चरण ने अब तक की तमाम हिंसा को पीछे छोड़ दिया है. इससे यह भी बात साबित हो गई है कि राज्य के चप्पे-चप्पे में केंद्रीय बलों की तैनाती के बावजूद इस हिंसा पर लगाम लगाना संभव नहीं है.

Indien, Kalkutta | Parlamentswahlen Narendra Modi
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीतस्वीर: Kuntal Chakrabarty/IANS

आजादी जितना पुराना है हिंसा का इतिहास

पश्चिम बंगाल देश विभाजन के बाद से ही हिंसा के लंबे दौर का गवाह रहा है. विभाजन के बाद पहले पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों के मुद्दे पर भी बंगाल में भारी हिंसा होती रही है. वर्ष 1979 में सुंदरबन इलाके में बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों के नरसंहार को आज भी राज्य के इतिहास के सबसे काले अध्याय के तौर पर याद किया जाता है. उसके बाद इस इतिहास में ऐसे कई और नए अध्याय जुड़े. दरअसल, साठ के दशक के द्वितीयार्ध में उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुए नक्सल आंदोलन ने राजनीतिक हिंसा को एक नया आयाम दिया था. किसानों के शोषण के विरोध में नक्सलबाड़ी से उठने वाली आवाजों ने उस दौरान पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थीं. वर्ष 1971 में सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के बाद तो राजनीतिक हत्याओं का जो दौर शुरू हुआ उसने पहले की तमाम हिंसा को पीछे छोड़ दिया. वर्ष 1977 के विधानसभा चुनावों में यही उसके पतन की भी वजह बनी. सत्तर के दशक में भी वोटरों को आतंकित कर अपने पाले में करने और सीपीएम की पकड़ मजबूत करने के लिए बंगाल में हिंसा होती रही है.

लेफ्ट के सत्ता में आने के बाद कोई एक दशक तक राजनीतिक हिंसा का दौर चलता रहा था. बाद में विपक्षी कांग्रेस के कमजोर पड़ने की वजह से टकराव धीरे-धीरे कम हो गया था. लेकिन वर्ष 1998 में ममता बनर्जी की ओर से टीएमसी के गठन के बाद वर्चस्व की लड़ाई ने हिंसा का नया दौर शुरू किया. उसी साल हुए पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाकों में भारी हिंसा हुई. उसके बाद राज्य के विभिन्न इलाकों में जमीन अधिग्रहण समेत विभिन्न मुद्दों पर होने वाले आंदोलनों और माओवादियों की बढ़ती सक्रियता की वजह से भी हिंसा को बढ़ावा मिला. उस दौरान ममता बनर्जी जिस स्थिति में थीं अब उसी स्थिति में बीजेपी है. नतीजतन टकराव लगातार तेज हो रहा है.

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मुख्यमंत्री ममता बनर्जीतस्वीर: Kuntal Chakrabarty/IANS

आरोप-प्रत्यारोप तेज

अब चौथे चरण की हिंसा के बाद टीएमसी और बीजेपी के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर लगातार तेज हो रहा है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जहां इस हिंसा के लिए केंद्र सरकार, बीजेपी और गृह मंत्री अमित शाह को जिम्मेदार ठहराया है वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अमित शाह तक ने इसके लिए ममता के भड़काऊ बयानों को जिम्मेदार ठहराया है. ममता बनर्जी कहती हैं, "मैं तो पहले से ही केंद्रीय बल के जवानों के जरिए अत्याचार के आरोप लगाती रही हूं. अब मेरी बात आखिर सच साबित हो गई है. यह फायरिंग अमित शाह के इशारे पर की गई है. उनको तुरंत अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए.” टीएमसी महासचिव पार्थ चटर्जी कहते हैं, "यह बंगाल के चुनावी इतिहास में अपनी किस्म की पहली घटना है.”

दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस हिंसा के लिए टीएमसी और उसकी गुंडा वाहिनी को जिम्मेदार ठहराया है. मोदी ने अपनी रैली में कहा, "अपनी हार तय जान कर दीदी (ममता बनर्जी) और उनकी पार्टी हिंसा पर उतर आई है. उन्होंने केंद्रीय बल के जवानों का घेराव करने जैसे भड़काऊ बयान देकर ऐसी हालत पैदा कर दी है.”

समाजशास्त्रियों का कहना है कि इस बार बंगाल की सत्ता के लिए जैसी कांटे की लड़ाई है उसमें चुनावी नतीजों के बाद खासकर ग्रामीण इलाकों में भी बड़े पैमाने पर हिंसा के अंदेशे से इंकार नहीं किया जा सकता. इसलिए राजनीतिक और सामाजिक हलकों में यह मांग उठ रही है कि चुनावी नतीजों के बाद भी कुछ दिनों तक संवेदनशील इलाकों में केंद्रीय बलों को तैनात रखा जाना चाहिए. समाजशास्त्री प्रोफेसर कालीपद दास कहते हैं, "राज्य के ग्रामीण समाज में धर्म और जाति के आधार पर विभाजन साफ नजर आ रहा है. ऐसे में चुनावी नतीजों के बाद भी हिंसा का अंदेशा है. चुनाव आयोग को इस पहलू का भी ध्यान रखना चाहिए.” कोलकाता पुलिस के पूर्व आयुक्त गौतम चक्रवर्ती कहते हैं, "जिलों में मतदान के दौरान हिंसा पर अंकुश लगाने के लिए चुनाव आयोग को नई रणनीति बनानी चाहिए.”

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