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बर्चस्व और हाशिए की भाषा

२५ अगस्त २००९

लोगों के बीच संवाद की ख़ातिर भाषा या भाषाओं की ज़रूरत होती है, इस ज़रूरत के आधार पर भाषाएं बनती हैं और वे हमारी सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा बन जाती हैं. जब ज़रूरतें बदलती हैं या नहीं रह जाती हैं, तो भाषाएं मर जाती हैं.

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समझने और समझाने का ज़रिया

आज के आधुनिक समाज में ऐसी मौत को एक नुकसान के रूप में देखा जाता है, लेकिन दूसरी ओर, भाषाओं के मरने की प्रक्रिया आधुनिक समाज में तेज़ हो गई है.

भाषाओं के सिलसिले में भारत और यूरोपीय संघ के बीच तुलना की जा सकती है. दोनों के मामले में निश्चित भौगोलिक दायरे में प्रतिष्ठित भाषाएं हैं, और हालांकि भारत में राष्ट्रीय एकता, और यूरोप में यूरोपीय संघ की एकता के बावजूद भाषाई-सांस्कृतिक बहुलताओं को भी बनाए रखने की नीति पर चला जा रहा है, लेकिन इन अलग-अलग भाषाई इलाकों या देशों में मुख्य भाषाओं के अलावा तथाकथित गौण या हाशिए की भाषाएं भी हैं, जिनके अस्तित्व या विकास की समस्या रह ही जाती है.

सबसे पहले हम जर्मनी के परिदृश्य पर नज़र डालते हैं. सारे देश में जर्मन रहते हैं, जर्मन बोलते हैं. उसी के साथ देश के धुर उत्तर में श्लेसविग-होलश्टाइन प्रदेश के एक छोटे से इलाके में डेनिश अल्पसंख्यक समुदाय व जर्मनी के पूर्वी हिस्से के लाउज़ित्ज़ इलाके में सोर्ब जाति के लोग रहते हैं, जो जर्मन के साथ-साथ अपनी भाषा भी बोलते हैं.

फ़्रांस में कोर्सिका और स्पेन में कैटेलोनिया और बास्क लोगों की अपनी सांस्कृतिक पहचान व भाषा है, और उनकी आबादी का एक हिस्सा इसे बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा है. इसी तरह इटली में व पूर्वी यूरोप में अनेक अल्पसंख्यक सामुदायिक भाषाएं हैं, जिनकी पहचान धीरे-धीरे मिटती जा रही है.

भाषा के अलावा स्थानीय बोलियां या डायलेक्ट हैं, जिन्हें आधुनिक संदर्भ में अक्सर उपभाषाओं का नाम दिया गया है. जर्मनी में हर क्षेत्र की अपनी स्थानीय बोली है, और उनमें से कुछ एक को, मसलन देश के उत्तर में बोली जाने वाली प्लाट डॉएच को किसी हद तक एक अलग भाषा भी कहा जा सकता है.भारत में भोजपुरी की तरह जर्मनी में प्लाट डॉएच का इस्तेमाल भी बोलचाल के लिए किया जाता है - कम से कम आंशिक रूप से, और उसमें साहित्य भी रचा जाता है. भोजपुरी की तरह यह भाषा भी किसी भी स्तर पर कामकाज की भाषा नहीं बन पाई है.

हाशिए की भाषाओं का इस्तेमाल या तो कुछ बुद्धिजीवी और साहित्यकार करते हैं, या फिर हाशिए पर रहने वाले वर्ग. जैसे-जैसे ये वर्ग तथाकथित मुख्य धारा में शामिल होते रहते हैं, उसी हद तक वे इन भाषाओं का इस्तेमाल छोड़ने लगते हैं. शहरीकरण की प्रक्रिया के साथ-साथ भी स्थानीय बोलियां विलुप्त होती हैं, हालांकि जर्मनी में मिसाल के तौर पर बर्लिन या कोलोन की स्थानीय बोलियां पूरी तरह से शहरकेंद्रिक हैं, और इस वजह से न सिर्फ़ टिकी हुई हैं, बल्कि आधुनिक युग में भी पहचान को ढोने वाली बोलियां बनी हुई हैं. भारत में भी कोलकाता जैसे शहरों के मामले में शहरकेंद्रिक स्थानीय बोली की मिसाल देखी जा सकती है.

राजनीतिक विकास का भी भाषा पर गहरा असर पड़ता है. देश के विभाजन व उसके बाद के विकास का असर भारत में हिंदी और उर्दू के मामले में देखा जा सकता है. आज के भूमंडलीकरण के दौर में अंग्रेज़ी जहां एक ओर स्थानीय भूगोल से मुक्त एक सर्वव्यापी भाषा के रूप में विकसित हो रही है, जिसमें अनेक संस्कृतियों का समावेश देखा जा सकता है - वहीं दूसरी ओर, दूसरी भाषाओं - मिसाल के तौर पर भारत में हिंदी के विकास पर उसका निर्णायक असर देखा जा सकता है.

इस क्षेत्र में अनेक प्रयोग भी किए जा रहे हैं, लेकिन भाषाओं के अब तक के विकास के इतिहास पर नज़र डालने पर कहा जा सकता है कि सिर्फ़ कुछ हद तक ही भाषाओं का विकास सरकारी या न्यूज़पेपर और टीवी चैनलों के मालिकों के आर्डर पर हो सकता है. लेकिन उसका रास्ता काफ़ी जटिल है, जो कभी-कभी समझ में आता है, तो कभी नहीं भी आता है.

लेखक: उज्ज्वल भट्टाचार्य

संपादन: राम यादव