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पच्चीस साल से डाक्टरी की पढ़ाई

७ अप्रैल २०१२

भारत के मेडिकल कॉलेजों में ऐसे छात्र भी हैं, जो पचीस पचीस साल से पढ़ाई पूरी नहीं कर पा रहे हैं. कुछ छात्र तो इसके लिए जातीय भेद भाव को जिम्मेदार ठहराने लगे हैं. कैंपस से आत्महत्याओं की खबर भी आ रही है.

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तस्वीर: DW

पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के प्रभुदयाल का सीना उस समय फख्र से खूब चौड़ा हो गया था जब उसके बेटे हरदयाल का एमबीबीएस में एडमिशन हो गया. आस पास के गांव के लोग शुभकामनाएं देने आ गए थे. उन लोगों ने भी बधाई दी थी जो उसे पसंद तक नहीं थे. लेकिन प्रभुदयाल अब अपने उस नौनिहाल के बारे में बात भी करना पसंद नहीं करता जो पिछले करीब 26 साल से लखनऊ में डाक्टरी की पढ़ाई मुकम्मल नहीं कर पाया है. कुछ इसी तरह की कहानी राजेश कटियार की भी है. हरदयाल 1985 में तो राजेश कटियार 1986 में एमबीबीएस में दाखिल हुए थे लेकिन अभी तक पास नहीं हो पाए हैं. पास होना तो बहुत दूर की बात है ये लोग डाक्टरी के इस कोर्स की पहली इन्टरनल प्रोफेशनल परीक्षा भी पार नहीं कर पाए हैं.

लखनऊ की छत्रपति शाहू जी महाराज मेडिकल यूनिवर्सिटी में इस तरह के एक दो नहीं 26 मेडिको छात्र हैं जो पिछले 25-26 साल से पास नहीं हो पाए हैं . इनमें से 16 ऐसे हैं जो पहले साल का पहला इन्टरनल प्रोफेशनल इम्तहान भी पास नहीं कर पाए हैं. ये सब बीस बीस साल से यहां हैं. वर्ष 2002 से 2007 के बीच भी 10 छात्र ऐसे आए हैं जो अभी तक पहला प्रोफेशनल पास नहीं कर पाए हैं. इनमें से अधिकांश दलित हैं जिनका दाखिला आरक्षित सीटों पर हुआ है. लगातार फेल होने वाले छात्रों का आरोप है कि उन्हें जानबूझकर दलित होने के कारण फेल किया जाता है. उनके साथ भेदभाव किया जाता है. फेल होने वाले कुछ छात्र अपनी कापियों के पुनर्मूल्यांकन की मांग को लेकर धरने पर भी बैठ गए हैं. हालांकि धरने पर बैठे छात्रों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि हर साल कई दर्जन दलित छात्र पास कैसे हो जाते हैं. कुछ ही तो फेल होते हैं. आरक्षण छात्रों का ही नहीं फैकल्टी में भी है और कई दलित प्रोफेसर भी हैं तब भेदभाव कैसे हो जाता है. इसके जवाब में इनका कहना है कि वे सब अपनी नौकरी बचाते हैं. "दरअसल सब कुछ विभगाध्यक्ष के हाथों में होता है और इस पद पर किसी दलित को आने नहीं दिया जाता है." अपने इस तर्क में ये कई उदहारण भी देते हैं.

Uttar Pradesh Bundesstaat Minister Mayawati
पूर्व मुख्यमंत्री मायावतीतस्वीर: AP

जातीय भेदभाव के आरोप

मेडिकल साइंस में कभी अपने दबदबे के लिए मशहूर रहे किंग जॉर्ज मेडिकल कालेज को मायावती सरकार ने छत्रपति शाहू जी महाराज मेडिकल यूनिवर्सिटी बनाया था. यूपी की इस इकलौती मेडिकल यूनिवर्सिटी में एमबीबीएस के पांच वर्षीय कोर्स में हर साल 250 दाखिले होते हैं. जिनमें अनुसूचित जाति के लिए करीब 45 सीटें आरक्षित हैं. इन सीटों पर दाखिला लेने वाले छात्रों को तरह तरह के लांछनों से दो चार होना पड़ता है. छात्रों का कहना है कि फैकल्टी के सवर्ण प्रोफेसर जब तब जो जी में आता है क्लास या प्रयोगशाला में बोल देते हैं. उन्हें सबके सामने अपमानित होना पड़ता है. उनका मजाक बनाया जाता है. वे मुख्यधारा से अक्सर अलग ही रहते हैं. एक दलित छात्र ने गुमनाम रहने की शर्त पर बताया कि बहुत कम दलित छात्र ऐसे हैं जिन्हें ये तिरस्कार सहे बिना डाक्टरी की डिग्री मिली हो. ये सब तो झेलना ही पड़ता है. इनमें से ज्यादातर डिप्रेशन के शिकार हो चुके हैं और कई को तो कुछ बीमारियां भी लग गई हैं. अल्कोहल और ड्रग की लत भी इनकी दिनचर्या का हिस्सा बन चुकी है.

हर साल जब मेडिकल यूनिवर्सिटी का दीक्षांत समारोह होता है और तालियों की गडगडाहट के बीच टॉपर छात्र-छात्राओं के गोल्ड मेडल लेते हुए फोटो खिंच रहे होते हैं तो ये छात्र अपने हॉस्टल के कमरों में सिगरेट के धुंए के साथ गम गलत कर रहे होते हैं. लखनऊ यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्र के प्रोफेसर राजेश मिश्र कहते हैं कि इस तरह की घटनाओं से परेशान होने की जरूरत नहीं है. "देखने की बात ये है कि आरक्षित वर्ग के कितनी अधिक संख्या में छात्र पास हो रहे हैं. इस वर्ग के चंद छात्र ही अवसाद के शिकार हैं, लगभग इतनी ही संख्या में सवर्ण छात्र भी हो सकता है कि पास न हुए हों."

मां बाप को बताना प्लीज

पिछले दिनों इसी तरह के एक छात्र नीरज कुमार ने ढेर सारी नींद की गोलियां खाकर आत्महत्या की कोशिश की. ट्रॉमा सेंटर में उसे साथी डाक्टरों ने बचा लिया. नीरज को जैसे ही होश आया उसने सबसे पहले विनती की कि मेरे मां-बाप को प्लीज न बताना. दरअसल आरक्षित वर्ग के कई छात्र गरीब परिवारों से आते हैं जिनके परिजनों की सबसे बड़ी पूंजी उनका होनहार बेटा ही होता है. बेटे की मौत का सदमा इस परिवेश के परिवार बर्दाश्त ही नहीं कर पाते. दो साल पहले भी एक दलित मेडिको छात्र सुशील चौधरी ने लगातार चौथे साल फार्माकॉलोजी में फेल होने के बाद आत्महत्या कर ली थी और अपने सुसाइड नोट में एक सवर्ण प्रोफेसर पर जाति के आधार पर प्रताड़ित करने का आरोप लगाया था. मेडिकल यूनिवर्सिटी के प्रॉक्टर प्रोफेसर अब्बास महदी इस बारे में ज्यादा बात करना नहीं चाहते कि आरोपी प्रोफ़ेसर के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई. सुशील चौधरी भी पूर्वी यूपी के गोरखपुर जिले का था.

Medizinstudenten protestieren in Indien
छात्रों का विरोधतस्वीर: DW

अनुसूचित जाति आयोग दाखिल नहीं हुआ

सुशील चौधरी की आत्महत्या के बाद अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया चार सदस्यीय जाँच दल के साथ लखनऊ आए और उन्होंने मेडिकल यूनिवर्सिटी के वीसी और कुलपति को तलब भी किया. लेकिन वह और उनके जांच दल को मेडिकल यूनिवर्सिटी कैम्पस में जाने से रोक दिया गया. तब मायावती की सरकार थी और वह ये आरोप बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर सकती थीं कि उनके राज में दलितों पर किसी तरह का अत्याचार हो सकता है क्यों कि वह भी दलित समाज का ही प्रतिनिधित्व करती थीं. लिहाजा उन्होंने उस दिन यूनिवर्सिटी में छुट्टी करवा दी और पुनिया को अन्दर जाने से पुलिस ने रोक दिया. पूर्व नौकरशाह पुनिया कभी मायावती के प्रमुख सचिव हुआ करते थे, बाद में कांग्रेस के टिकट पर बाराबंकी से सांसद चुने गए और अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष बने. अन्दर नहीं जा सके तो उन्होंने गेट पर दिन भर धरना दिया और वापस चले गए. बाद में एसपी आयोग बना जांच हुई पर कार्रवाई क्या हुई किसी को पता नहीं.

लखनऊ की मेडिकल यूनिवर्सिटी हो या दिल्ली का एम्स, आरक्षित वर्ग के मेडिको छात्रों की खुदकुशी का सिलसिला थम नहीं रहा है. पिछले महीने ही एम्स के एक छात्र राजस्थान के अनिल कुमार मीणा ने आत्महत्या कर ली. उससे पहले एम्स में ही यूपी के छात्र बालमुकुन्द ने भेदभाव से प्रेरित इसी प्रकार की प्रताड़ना से तंग आकर जान दे दी थी. वह भी अवसाद का शिकार हो गया था. इससे पहले चंडीगढ़ के मेडिको छात्र जसप्रीत ने खुदकुशी कर ली थी. इस मामले का सबसे दिलचस्प पहलू ये है कि इसे कम्युनिटी मेडिसिन में फेल कर दिया गया था. उसकी खुदकुशी के बाद जांच में जब उसकी कापियां देखी गईं तो पता चला कि वह पास था. इस मामले में तीन प्रोफेसरों को आरोपी बनाया गया पर उनके खिलाफ आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है. जैसे लखनऊ की मेडिकल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई है.

समाधान तो दूर, बढ़ रहा आक्रोश

मेडिकल यूनिवर्सिटी के प्रॉक्टर प्रोफेसर अब्बास महदी इन छात्रों को लेकर बहुत फिक्रमंद दिखते हैं. वह दिल से चाहते हैं कि ये छात्र किसी तरह से पास हो जाएं. कई उदहारण देकर बताते हैं कि उन्होंने इन छात्रों की कितनी मदद की है. लेकिन समस्या खत्म नहीं हो रही है. कहते हैं कि जल्दी ही आप लोगों को सुखद परिणाम दिखेंगे. दूसरी तरफ आरक्षित वर्ग के छात्रों के खिलाफ आक्रोश बढ़ता जा रहा है. दो साल पुराने मेडिको छात्र अनिल का दर्द है कि आधी सीटें दलित और पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित हैं, उसके अलावा इस वर्ग के कुछ छात्र मेरिट के आधार पर जनरल सीटों को भी हथिया लेते हैं. सवर्ण आखिर जाए तो कहां जाए. हम तो लकी हैं पर हम जैसों के लिए प्राइवेट यूनिवर्सिटी में जाने के अलावा विकल्प क्या है. अनिल की बात पर हां में हां मिलाने वाले कई और छात्र भी थे वहां पर.

रिपोर्ट: एस.वहीद, लखनऊ

संपादन: महेश झा

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