नजरिया: दम तोड़ रहा है भारतीय लोकतंत्र
९ जनवरी २०२०नई दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, जेएनयू भारत के सबसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में से एक है. यह भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का ड्रीम प्रोजेक्ट था. नेहरू चाहते थे कि जेएनयू में विशिष्टता और समानता का संगम हो, जहां गरीब और कमजोर राज्यों समेत देश के सभी हिस्सों से आने वाले छात्रों को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा मिले.
मुझे अच्छी तरह याद है जेएनयू के कैम्पस में मेरे शुरुआती दिन. सेंटर फॉर सोशल साइंसेज की ओर जाने वाले एक छोटे से रास्ते में एक पुराना बरगद का पेड़. ये वो पेड़ था जिसके नीचे रोमिला थापर, सुदीप्ता कविराज, राजीव भार्गव और देश के सबसे नए नवेले नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी जैसे नामी स्कॉलर बैठा करते थे.
सहपाठियों ने ऐसी कितनी ही कहानियां सुनाईं जो कैम्पस में हुए ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शनों से जुड़ी थीं. जैसे कि जब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 70 के दशक में देश में इमरजेंसी लागू कर दी थी, या फिर जब दिल्ली के 1984 के दंगों के दौरान सिखों को सुरक्षा दी गई. मैंने खुद भी स्टूडेंट काउंसलर की हैसियत से यूनिवर्सिटी के दिनों में कई भूख हड़तालों में शिरकत की. मैं सोच भी नहीं सकती थी कि कभी उसी यूनिवर्सिटी कैंपस में नकाबपोश गुंडे लाठी और पत्थर लेकर घुसेंगे और छात्रों, शिक्षकों पर हमला करेंगे.
बुद्धिजीवियों और आम जनता के बीच गहराती खाई
जेएनयू समेत कई भारतीय विश्वविद्यालों का विचारधारा की लड़ाई का अखाड़ा बनते जाना खतरनाक है. दक्षिणपंथी गुट राष्ट्रवाद की बातें कर किसी भी तरह की असहमति को दबाने की कोशिश कर रहे हैं. जेएनयू पर लगातार ऐसे आरोप लगे हैं कि वह सरकार विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देती है. शायद यही वजह थी जिसके कारण 5 जनवरी को धर्मनिरपेक्ष छात्रों पर कथित रूप से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के हमले के दौरान पुलिस ने फौरन कार्रवाई नहीं की.
नकाबपोश हमलावरों ने अपने हमले को सही ठहराते हुए उसे "लेफ्ट के खिलाफ अपनी एकता" का प्रदर्शन बताया और शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे छात्रों , शिक्षकों पर आतंक बरसाया. परिसर में जमा छात्र-शिक्षक फीस में बढ़ोत्तरी और देश में लागू हुए नए नागरिकता संशोधन कानून के प्रति विरोध जता रहे थे, जो मुसलमानों के प्रति भेदभाव करता है.
ताजा हालात किसी भी तरह की प्रगतिवादी सोच के लिए मुफीद नहीं लगती. महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा पर जो भाषण दिए, अनुशासन को लेकर माइकल फोकॉल्ट के टेक्स्ट या फिर पार्थ चटर्जी के अच्छे और बुरे राष्ट्रवाद पर लेक्चर सब इस समय खोखले से लग रहे हैं. बुद्धिजीवियों और आम जनता के बीच की खाई भारत में बहुत तेजी से चोड़ी होती दिख रही है. इससे सबसे गंभीर खतरा देश के सेक्यूलर मूल्यों और संवैधानिक सर्वोच्चता को ही है.
फिलहाल भारत जिस दलदल में फंसा दिख रहा है उसकी वजह केवल उसकी सत्ताधारी बीजेपी सरकार ही नहीं है जो देश के सेक्यूलर चरित्र को कमतर करने पर आमादा दिख रही है. इसका दूसरा कारण यह भी है कि बीते कुछ सालों में लोग भी धर्मनिरपेक्षता को लेकर संदेहवादी हो गए हैं. ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि देश में बौद्धिक संस्कृति और राजनीतिक गरिमा का अभाव है.
भारतीय लोकतंत्र को पंगु बनाने वाला
मैं इस बात से विचलित हूं कि सरकार की तरफ से एक के बाद एक उठाए जा रहे तमाम मुस्लिम विरोधी कदमों की ना केवल हिंदू वर्चस्ववादी बल्कि ज्यादा से ज्यादा "नरम" मध्यमवर्ग के लोग स्वागत कर रहे हैं. यह बहुत बड़ा समूह है जिसमें कई "उदारवादी हिंदू" भी आते हैं, यानि वे जो मुसलमान विरोधी नहीं हैं. दुर्भाग्य से डर के माहौल के कारण वे भी हिंदू वर्चस्ववादियों के एंटी-सेक्यूलर प्रोपेगैंडा के शिकार बन रहे हैं. यही कारण है कि अब केवल अति दक्षिणपंथी ही मुसलमानों के मिलने वाले विशिष्ट अधिकारों का विरोध करते नहीं दिख रहे.
यह चलन विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को कमजोर बना सकता है. यही वक्त है जब भारत के धर्मनिरपेक्ष लोग एक संयुक्त मोर्चा बनाकर इस वक्त के बुनियादी सवालों का सामना करें. भारत का भविष्य इस सरकार के शासन में तो अनिश्चितताओं से भरा है ही. मुझे तो डर है कि अगर कभी विपक्षी दल वापस सत्ता में आ भी जाते हैं तो भी उन्हें बीजेपी की दक्षिणपंथी नीतियों को पलटने में बहुत मशक्कत करनी पड़ेगी.
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