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धरती पर ब्रह्मांडीय बंबारी

नील्स मिशाएलिस/ राम यादव४ जुलाई २००८

नासा का अनुमान है किऔसतन हर सौ वर्ष पर पृथ्वी पर कोई ऐसा आकाशीय पिंड गिर सकता है, जो पचास मीटर से बड़ा हो. ठीक सौ वर्ष पूर्व, साइबेरिया की तुंगुस्का नदी के पास ऐसी ही एक घटना हुई थी, जो दशकों तक रहस्यमय बनी रही.

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तस्वीर: AP

तरह-तरह की अटकलों और अफ़वाहों को जन्म देने वाले तुंगुस्का उल्कापात में लोगों की अब भी भारी दिलचस्पी है. इतनी कि उसकी सौवीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में मॉस्को में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ. सम्मेलन में रूसी अंतरिक्षयात्री विताली रोमेइको ने वैज्ञानिकों की कड़ी आलोचना की. आरोप लगाया कि उन्होंने 30 जून, 1908 वाली, तुंगुस्का-घटना की भलीभाँति छान-बीन नहीं की है. उसके बारे में अटकलें लगाने की अब भी ढेर-सारी गुँजाइशें छोड़ दी हैं. रोमेइको ने कहा कि वे स्वंय इस घटना के 67 अलग-अलग वर्णन जानते हैं. इनमें से एक यह है कि वह किसी उल्का के नहीं, उड़न तश्तरी-जैसी किसी अज्ञात चीज़ के गिरने की घटना थी.

हिरोशिमा बम से हज़ार गुना शक्तिशाली

बहरहाल, अब तक ज्ञात तथ्यों के आधार पर वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि 30 जून, 1908 को, रूसी साइबेरिया की तुंगुस्का नदी वाले इलाके में जो कुछ हुआ, वह अमेरिका द्वारा जापान के हिरोशिमा पर गिराये गये परमाणु बम से एक हज़ार गुना शक्तिशाली विस्फोट था. वीरान, जंगली इलाका होने के कारण किसी की जान तो नहीं गयी, किंतु दो हज़ार वर्ग किलोमीटर के दायरे में सारे पेड़-पौधे धराशायी हो गये थे.

याद करते हैं उस परिदृश्य को, जो सौ वर्ष पूर्व की इस अनोखी घटना के समय रहा होगा.

सूचीपर्ण वृक्षों वाले अंतहीन बीहड़ जंगल. रेंडियर पशुओं के बड़े-बड़े झुंड. कल-कल बहती तुंगुस्का नदी. इस सब के बीच मॉस्को से कोई तीन हज़ार किलोमीटर की दूरी पर बसा साइबेरिया का एक छोटा-सा गाँव वानावारा. स्थानीय समय के अनुसार दोपहर के पौने बारह बजे थे. वानावारा के निवासियों ने आकाश में बिजली की कौंध-जैसी एक प्रचंड चमक देखी. एक ज़ोरदार धमाका सुना. उन्हें लगा, प्रलय आ गया है....धमाके की आवाज़ के साथ ही हवा का तूफ़ानी झोंका आया. घरों की खिड़कियाँ और दरवाज़े उखड़ गये. वानावारा के निवासी हक्के-बक्के रह गये कि हुआ क्या है?

Russland Landschaft in Sibirien
सर्दियों में साइबेरियातस्वीर: picture-alliance/ dpa

स्विट्ज़रलैंड में ज़्यूरिच विश्वविद्यालय के भूवैज्ञानिक राइनर वीलर भी लंबे समय से इस बात की छान-बीन करते रहे हैं कि 30 जून, 1908 वाले उस दिन तुंगुस्का क्षेत्र में आख़िर हुआ क्या थाः

"प्रत्यक्षदर्शियों के अच्छे वृतांत एक ऐसी छोटी-सी बस्ती के लोगों से मिले हैं, जो घटनास्थल से 60 किलोमीटर दूर थी. हवा के झोंके ने वहाँ लोगों को ज़मीन पर गिरा दिया. घटनास्थल के और भी निकट के एक रेंडियर-गड़रिये के चार सौ रेंडियर मारे गये. किसी आदमी के मरने की बात नहीं सुनने में आयी."

उल्कापिंड या उड़न तश्तरी

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एक ठोस चट्टान जैसा क्षुद्रग्रह एरोस 14 फ़रवरी 2000 को पृथ्वी के पास से गुज़रा.तस्वीर: AP

दुर्भाग्य से, पहला खोजीदल घटनस्थाल पर 19 वर्ष बाद, 1927 में पहुँचा था. किसी विस्फोट से जो क्रेटर बनना चाहिये, उसे वैसा कोई गढ्ढा वहाँ नहीं मिला. केवल ऐसे छोटे-छोटे टुकड़े मिले, जो किसी उल्का के अवशेष हो सकते थे. दूसरी ओर, 30 किलोमीटर के व्यास वाले दायरे में सारे पेड़ उखड़ गये थे. यही दल घटनास्थल के प्रथम चित्र भी लाया था.

किंतु, इस विध्वंसलीला के पीछे छिपी शक्ति का किसी हद तक सही अनुमान तभी लगाया जा सका, जब हिरोशिमा और नागासाकी पर गिरे परमाणु बम की विनाशलीला जगजाहिर हो चुकी थी.

किसी क्रेटर के अभाव में इस आरंभिक अनुमान को ठुकराया जाने लगा कि तुंगुस्का नदी के पास कोई उल्कापात हुआ था. अगले वर्षों में चटपटेदार अनुमानों और रोमांचकारी अटकलों का बाज़ार और भी गर्म हो गया. कहा जाने लगा कि यह कैसे हो सकता है कि हज़ारों वर्ग किलोमीटर तक पेड़-पौधे तो धराशायी हो जायें पर न तो किसी टक्कर या विस्फोट से बना कोई गढ्ढा मिले और न ही विस्फोटित पदार्थ की इतनी बड़ी मात्रा, कि इस विध्वंसलीला पर विश्वास किया जा सकेः

"ऐसे में एक-से-एक कथा-कहानियों और कल्पनाओं की ऊँची उड़ाने होने लगीं. ब्लैक होल की बातें होने लगीं. UFO-प्रेमी कहने लगे कि ज़रूर किसी दूसरी दुनिया से कोई उड़न तश्तरी आयी थी."

वैज्ञानिक गल्पकथा लेखक स्तानीस्लाव लेम ने 1951 में The Astronauts नाम से एक उपन्यास तक लिख डाला. हाल ही में कंप्यूटर गेम निर्मता कंपनी निन्तेन्दो ने, तुंगुस्का उल्कापात की सौंवी वर्षगाँठ को भुनाने के लिए, तुंगुस्का का रहस्य नाम के अपने गेम का एक नया संस्करण तक बाज़ार में उतार दिया.

उड़न तश्तरी कोरी कल्पना

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ब्रिटेन के ऊपर देखी गयी एक कथित उड़न तश्तरी का 13 साल के एक बालक द्वारा 1954 में लिया गया चित्र.तस्वीर: picture-alliance/dpa

तुंगुस्का-प्रकरण की बहुत-सी पहेलियाँ इस बीच सुलझ गयी हैं, भले ही सारे रहस्यों पर से पर्दा नहीं उठ पाया है. अब तक प्राप्त अनेक दस्तावेजों और प्रमाणों के आधार पर, शक्तिशाली कंप्यूटरों की सहायता से, सौ वर्ष पहले की इस घटना को दुहराया गया. इससे यही पता चलता है कि 30 जून, 1908 के दिन, केवल 20 मीटर बड़े एक पथरीले उल्कापिंड में साइबेरिया की तुंगुस्का नदी के पास आकाश में कोई 10 किलोमीटर की ऊँचाई पर विस्फोट हुआ होना चाहिये. इस विस्फोट में हिरोशिमा जैसे एक हज़ार परमाणु बमों की शक्ति छिपी थी. विस्फोट क्योंकि आकाश में ही हो गया था, इसलिए उसकी चमक और प्रघात तरंगें तो दूर-दूर तक पहुँची, पर ज़मीन पर कोई गढ्ढा नहीं बनाः

"आकाश में ही विस्फोट हो जाने से हुआ यह कि छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गयी सामग्री की हवा से रगड़ खाने वाली सतह का क्षेत्रफल, मूल पिंड की अपेक्षा, कई गुना बढ़ गया. इससे हवा के साथ घर्षण और तापमान भी बहुत ज़्यादा बढ़ गया. यानी, गतिज-ऊर्जा बहुत तेज़ी से ताप-ऊर्जा और ध्वनि-तरंगों में बदलने लगी."

कंप्यूटर-अनुकरणों से इस प्रश्न का भी उत्तर मिला कि ध्वस्त उल्कापिंड के कोई भरोसेमंद अवशेष क्यों नहीं मिलेः

"उल्कापिंड के असंख्य टुकड़ों के साथ रगड़ से हवा बेहद गरम हो गयी. गरम हवा ठंडी हवा से हल्की होती है, ऊपर उठती है. ऊपर उठती हवा के साथ उल्कापिंड के विस्फोट से बने धूलकण भी स्ट्रैटोस्फ़ियर की ऊँचाई तक ऊपर उठ कर पूरी पृथ्वी पर फैल गये."

हर सौ वर्ष पर एक उल्का प्रहार

कंप्यूटर-अनुकरणों से जहाँ यह पता चला कि सौ वर्ष पूर्व रूसी साइबेरिया के तुंगुस्का नदी-क्षेत्र में किसी दूसरी दुनिया से कोई उड़न तश्तरी नहीं आयी थी, वहीं यह चेतावनी भी मिली कि इस तरह के आकाशीय पिंड औसतन हर सौ वर्ष पर पृथ्वी पर बंबारी किया करेंगे. अमेरिकी अंतरिक्ष अधिकरण नासा के "पृथ्वी के निकटवर्ती आकाशीय पिंड कार्य्रकम" के वैज्ञानिकों ने तुंगुस्का वाले पिंड की तरह के अब तक कोई एक लाख, और ऐसे क़रीब एक हज़ार आकाशीय पिंडों का पता लगाया है, जो पृथ्वी के सौर-परिक्रमापथ को इतने ख़तरनाक ढंग से काटते हैं कि कभी-न-कभी पृथ्वी से ज़रूर टकरायेंगे. सबसे नज़दीकी विभीषिका शुक्रवार 13 अप्रैल, 2029 को हो सकती है, जब 300 मीटर बड़ा एक आकाशीय पिंड एपोफ़ीस पृथ्वी से केवल 30 हज़ार किलोमीटर की दूरी पर से गुज़रेगा. यह दूरी पृथ्वी से चन्द्रमा की दूरी की अपेक्षा दस गुना कम है.

वैज्ञानिक इस तरह के आकाशीय पिंडों से बचाव के लिए उन पर रॉकेट दाग कर उन्हें आकाश में ही नष्ट कर देने से लेकर उन पर हाइड्रोजन बम उतारने और उसका इस तरह विस्फोट करने की सोच रहे हैं कि उनका रास्ता बदल जाये और संकट टाल जाये. सबसे अच्छी बात यह है कि इस बीच अंतरिक्ष में इतने सारे मानव निर्मित वैज्ञानिक उपग्रह और पृथ्वी पर इतने सारे सशक्त दूरदर्शी हैं कि ख़तरनाक आकाशीय पिंडों का समय रहते पता लगाना और उनसे बचाव के उपाय करना समय के साथ अधिकाधिक संभव होता जायेगा.