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समाज

देह व्यापार से बचाई गईं लेकिन घर जाना अब भी मुश्किल

प्रभाकर मणि तिवारी
९ अक्टूबर २०१९

पश्चिम बंगाल में देह व्यापार से बचाई गई बांग्लादेशी युवतियों का भविष्य अधर में है. अपनी पहचान साबित करने में ही इन्हें सालों लग जाते हैं.

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Indien Devadasi-System Prostitution
फाइलतस्वीर: Imago/ZumaPress

महिला तस्करी के खिलाफ अभियान चलाने वाले संगठनों की सहायता से कोलकाता के रेडलाइट इलाकों से बचाई गईं 180 बांग्लादेशी युवतियां सरकारी संरक्षण गृह में अपने भविष्य का इंतजार कर रही हैं. उनकी घरवापसी भारत और बांग्लादेशी सरकारों की लालफीताशाही के बीच फंसी हुई है.

बीते आठ वर्षों के दौरान ऐसी लगभग 1,750 युवतियों को बांग्लादेश वापस भेजा जा चुका है. बांग्लादेश से तस्करी के जरिए देह व्यापार के लिए हर साल हजारों की तादाद में युवतियों को बंगाल में ले आया जाता है. समय-समय पर इनमें से कुछ को पुलिस रेडलाइट इलाके से बचाती रहती है.  इन युवतियों की घरवापसी में डेढ़ से दो साल का समय लग जाता है. कोलकाता पूर्वी भारत में महिलाओं की तस्करी और खरीद-फरोख्त के सबसे बड़े केंद्र के तौर पर उभर रहा है. राज्य के ग्रामीण इलाकों में भारी गरीबी और पड़ोसी बांग्लादेश व नेपाल से लगी लंबी सीमा को इसकी सबसे बड़ी वजह माना जा रहा है.

नेपाल व बांग्लादेश से भोली-भाली युवतियों को रोजगार और बेहतर भविष्य के सपने दिखा कर हर साल हजारों युवतियों को पश्चिम बंगाल ले आया जाता है. यहां से देह व्यापार के धंधे में सक्रिय गिरोह और महिला तस्कर उनको मोटी रकम के एवज में देश के दूसरे शहरों में बेच देते हैं. कई बार सामाजिक संगठनों व पुलिस की सक्रियता से इनमें से कुछ महिलाओं को बचाने में कामयाबी मिलती है. लेकिन उसके बाद राजनीतिक, व सामाजिक वजहों से इन युवतियों की घरवापसी का सपना धुंधलाने लगता है. कई ऐसी युवतियां कोलकाता और आसपास के इलाकों में बने सरकारी संरक्षण गृह में समय बिताने पर मजबूर हैं. उनके वतन लौटने के मामले में लालफीताशाही ही सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो रही है. कई मामलों में बदनामी के डर से युवती के घरवाले ही उसे अपनाने से इनकार कर देते हैं.

फिलहाल कोलकाता से सटे दक्षिण 24-परगना जिले के एक सरकारी संरक्षण गृह में लगभग 180 बांग्लादेशी युवतियां अपनी घरवापसी का अंतहीन इंतजार कर रही हैं. इनमें रहने वाली सूफिया (बदला हुआ नाम) को चटगांव का एक युवक होटलों में गायिका के तौर पर नौकरी दिलाने का लालच देकर दस साल पहले कोलकाता ले आया था. उसने उस युवक के साथ अवैध रूप से सीमा पार की थी. लेकिन यहां लाकर उस युवक ने सूफिया को एशिया की सबसे बड़ी देहमंडी सोनागाछी में एक कोठा मालकिन के हाथों बेच दिया. वहां लगभग सात साल तक अमानवीय हालात में समय गुजारने के बाद एक महिला संगठन की सहायता से वह देह व्यापार के दलदल से बाहर निकल आई थी. उसकी आंखों में घरवापसी के सपने भी खिलने लगे थे. लेकिन बीते लगभग साढ़े तीन साल से वह जरूरी कागजातों का इंतजार कर रही है.

बीते आठ वर्षों के दौरान बंगाल व महाराष्ट्र से देह व्यापार के धंधे से बचाई गई 1750 युवतियों को बांग्लादेश भेजा जा चुका है. लेकिन सामाजिक संगठनों का कहना है कि सीमा पार से अवैध रूप से यहां पहुंचने वाली युवतियों की तादाद के मुकाबले यह संख्या ऊंट के मुंह में जीरे के समान है. इन संगठनों का कहना है कि देह व्यापार से बचाई गई युवतियों को अदालती कार्यवाही और उसके बाद वापसी की प्रक्रिया के लिए बरसों लंबा इंतजार करना होता है. इस दौरान उनको जिन संरक्षण गृहों में रखा जाता है वहां भी हालात बेहतर नहीं हैं. नतीजतन थक-हार कर कई युवतियां दोबारा देह व्यापार के धंधे में लौट जाती हैं.

तस्करी से आने वाली युवतियों की वापसी की प्रक्रिया आसान बनाने के लिए भारत व बांग्लादेश ने 2015 में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. लेकिन जमीनी हकीकत में खास बदलाव नहीं आया है. सरकारी तौर पर ऐसी युवतियों की वतन वापसी में 18 से 22 महीने का समय लगने का दावा किया जाता है. लेकिन गैर-सरकारी संगठनों के मुताबिक, यह इंतजार छह साल लंबा खिंच सकता है.

भारत में कहां कहां हैं मानव तस्करी के गढ़

पश्चिम बंगाल सरकार ने देह व्यापार से बचाई गई ऐसी युवतियों को उनके घर भेजने के लिए 21 सप्ताह की समयसीमा तय की है. लेकिन शायद ही कोई मामला इस समय सीमा के दौरान निपटता हो. सरकारी अधिकारियों का कहना है कि अदालती कार्यवाही में लगने वाले लंबे समय के अलावा बांग्लादेश इस बात की पुष्टि करने में काफी समय लेता है कि वह युवती बांग्लादेशी नागरिक है या नहीं. सूत्रों का कहना है कि कई मामलों में युवतियां बदनामी के डर से अपने घर का सही पता नहीं बतातीं, तो कुछ मामलों में लंबा अरसा बीतने की वजह से घरवाले युवती को पहचान नहीं पाते. ऐसे मामलों में देरी स्वाभाविक है.

इन युवतियों की वापसी की प्रक्रिया को तेज करने के लिए अब सरकार ऐसी युवतियों के फोटो भी बांग्लादेशी अधिकारियों को भेज रही है. पहले सिर्फ नाम, पता और उम्र ही बताई जाती थी. मानव तस्करी मामलों में राज्य सरकार की सलाहकार मधुमिता हालदार कहती हैं, "तस्वीरों में चेहरा व पहनावा बदलने की वजह से घर वाले अकसर धोखा खा जाते हैं. ऐसे मामलों में काफी देरी हो जाती है.” वह बताती हैं कि बांग्लदाश लौटने के लिए इंतजार करने वाली 180 युवतियों में से 80 फीसदी की नागरिकता की पुष्टि अब तक नहीं हो सकी है.

हाल के वर्षों में पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता पड़ोसी देशों से महिलाओं की तस्करी के मामले में एक प्रमुख केंद्र को तौर पर उभरा है. कलकत्ता विश्वविद्यालय की महिला अध्ययन शोध केंद्र की निदेशक रहीं डॉ. ईशिता मुखर्जी कहती हैं,  "पश्चिम बंगाल मानव तस्करी के अंतरराष्ट्रीय रूट पर स्थित है और यहां कई घरेलू व अंतरराष्ट्रीय गिरोह इस धंधे में सक्रिय हैं. इसके अलावा पड़ोसी देशों की सीमा से सटे होने के कारण भी कोलकाता इस धंधे का सबसे बड़ा केंद्र बनता जा रहा है.”

ताजा अध्ययनों से साफ है कि राज्य में महिलाओं की बढ़ती तस्करी में पड़ोसी देशों की भी अहम भूमिका है. राज्य की लगभग एक हजार किलोमीटर लंबी सीमा बांग्लादेश से सटी है. इसके जरिए गरीबी की मारी बांग्लादेशी महिलाओं को कोलकाता स्थित दक्षिण एशिया में देह की सबसे बड़ी मंडी सोनागाछी में लाया जाता है और यहां से उनको मुंबई व पुणे जैसे शहरों के दलालों के हाथों बेच दिया जाता है.

सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के एक अधिकारी कहते हैं कि सीमा पार से आने वाली महिलाओं को देख कर यह पता लगाना मुश्किल  है कि कौन घुसपैठिया है और किसको तस्करी के जरिए यहां लाया जा रहा है. इसी तरह नेपाल से सिलीगुड़ी कॉरीडोर होकर युवतियों को बेहतर नौकरियों का लालच देकर यहां लाया जाता है. उसके बाद उनका ठिकाना देश या विदेश के किसी वेश्यालय में ही होता है. 

गैर-सरकारी संगठन इस बात पर एकमत हैं कि जब तक वेश्यालयों व दलालों के चंगुल से बचाई जाने वाली महिलाओं के लिए एक ठोस पुनर्वास पैकेज नहीं बनाया जाता तब तक इस समस्या पर काबू पाने के तमाम दावे और प्रयास खोखले ही साबित होंगे. एक गैर-सरकारी संगठन के प्रमुख समरेश्वर विश्वास कहते हैं, "मौजूदा परिस्थिति पर अंकुश लगाने के लिए सरकार को विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर एक ठोस रणनीति बनानी चाहिए.”

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