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समाज

दहेज लोभी अब भी ले रहे हैं जान

२८ नवम्बर २०१८

राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़े दिखाते हैं कि भारत में महिलाओं की जान लिए जाने की सबसे बड़ी वजह आज भी दहेज है. तमाम कानून भी उन्हें बचाने में क्यों हैं नाकाम.

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Schmuck an der Hand einer frisch verheirateten, einheimischen Frau, Indien
तस्वीर: picture-alliance

भारत में साल 1999 से 2016 के बीच एक बात जिसमें ज्यादा बदलाव नहीं आया है, वो है हर साल दहेज से जुड़ी महिलाओं की हत्या. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े दिखाते हैं कि हर साल जान से मारे जाने वाली महिलाओं के करीब 40 से 50 फीसदी मामले दहेज से जुड़े होते हैं.

यानी तमाम कानूनी प्रतिबंध लगाए जाने के बाद भी अब तक महिलाओं की हत्या का सिलसिला कम नहीं हुआ है. हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने भी पूरी दुनिया की महिलाओं के लिए घर को ही सबसे खतरनाक जगह बताया था. यूएन के ड्रग्स और अपराध विभाग (यूएनओडीसी) के अनुसार, 2017 में मारी गई कुल महिलाओं में से करीब 58 प्रतिशत को उनके पार्टनर या किसी करीबी परिजन ने ही मारा था.

बस, अब बहुत हुआ!

अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, साल 1995 से 2013 की बीच भारत में 15 से 49 साल की उम्र वाली करीब एक तिहाई महिलाएं अपने जीवन में कभी ना कभी शारीरिक हिंसा की शिकार बनी हैं. 1961 में भारत सरकार ने दहेज के विरुद्ध कानून बना दिया था लेकिन आज भी देश भर में दहेज देना और लेना खत्म नहीं हुआ है. इसके साथ ही जारी हैं दहेज की मांग से जुड़ी प्रताड़ना और हत्याएं.

इसके अलावा महिलाओं को जादू टोना करने वाली बता कर उन्हें हिंसा का शिकार बनाए जाने की घटनाएं काफी होती हैं. मुख्य रूप से अफ्रीका और एशिया में महिलाओं पर ऐसे आरोप लगाना प्रचलित है. अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट कहती है, "इसके आंकड़े लिंग के हिसाब से वर्गीकृत नहीं किए गए हैं. बहुत संभावना है कि इसके ज्यादातर पीड़ित महिलाएं ही हैं."

यूएन की स्टडी में पाया गया है कि हाल के सालों में घरों में और अपने ही परिवारजनों से महिलाओं की जिंदगी बचाने की दिशा में कोई ठोस सुधार नहीं लाया जा सका है. हालांकि इस दौरान महिलाओं के खिलाफ हिंसा रोकने के लिए कई कानून और कार्यक्रम चलाए गए. घर और बाहर दोनों को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने तक अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना बाकी है. साथ ही उन पर अत्याचार करने वाले दोषियों को उनके अपराध के लिए सजा दिलवाने में भी पुलिस और न्याय व्यवस्था के साथ साथ स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं को भी अच्छी तरह अपनी भूमिका निभाने की जरूरत है.

आरपी/आईबी (एएफपी,रॉयटर्स)