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समाज

तो क्या अब भारत में टूटने लगेंगी शादियां?

२७ सितम्बर २०१८

सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 497 को असंवैधानिक बताते हुए एक 158 साल पुराने कानून को हटाने की बात कही है. इससे कुछ लोगों को यह चिंता सताने लगी है कि शायद अब भारत में शादियां टूटने लगेंगी.

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Indische Braut steckt Ehering auf den Finger ihres Bräutigams
तस्वीर: picture-alliance

औरत के शरीर पर उसका अधिकार है, वो अपने पति की जागीर नहीं है - ये बात कहने में अदालत को कितने साल लग गए. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के लिए ये तो कहना ही होगा कि देर आए पर दुरुस्त आए. एक ऐसा कानून जिसे अंग्रेजों ने 1860 में बनाया था, हम आज भी उसका पालन कर रहे थे. हालांकि अब कानून को हटा दिए जाने के बाद से ये चर्चा शुरू हो गई है कि इससे देश में शादियां खतरे में पड़ जाएंगी, जो जिसके साथ चाहे संबंध बना लेगा.

इस तरह की अटकलें लगाने से पहले जरूरी है कि ये ठीक से समझा जाए कि आखिर कानून था क्या. आईपीसी की धारा 497 के अनुसार अगर कोई पुरुष किसी शादीशुदा महिला से संबंध बनाता है और ये संबंध महिला की मर्जी से बनता है यानी बलात्कार नहीं है, और महिला के पति ने इसकी सहमति नहीं दी है, तो ये एडल्ट्री यानी व्यभिचार है.

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ईशा भाटिया सानन

ऐसे में महिला के साथ संबंध बनाने वाले को पांच साल की सजा हो सकती थी. इसमें दिलचस्प बात ये है कि महिला को कोई सजा नहीं हो सकती थी. ऐसा इसलिए क्योंकि महिला को पीड़ित के रूप में देखा जाता था. बवाल इसी पर मचा कि जब चारों तरफ बराबरी का ढोल पीटा जा रहा है तो फिर सजा दोनों को क्यों नहीं. अदालत में भी इस पर खूब चर्चा हुई. कानून को बदल कर उसमें महिलाओं को भी दोषी ठहराने की मांग भी की गई. लेकिन अदालत ने तो कानून को ही गलत ठहरा दिया.

दरअसल इस कानून में एक कमी और थी. एडल्ट्री तभी मानी जाती जब शादीशुदा महिला के साथ किसी ने संबंध बनाया होता. शादीशुदा पुरुषों के बारे में यह कानून कुछ नहीं कहता था. यानी वो जिससे चाहे संबंध बनाए, उस पर कोई रोक टोक नहीं और महिला अपने पति या फिर उसकी प्रेमिका के खिलाफ कहीं शिकायत भी नहीं कर सकती.

तो जिन लोगों को अब लग रहा है कि कानून के हट जाने से भारत में शादियां टूटने लगेंगी, क्या उन्हें डर इस बात का है कि औरतों के पैरों से एक और बेड़ी टूट गई है? क्योंकि आदमियों पर तो पहले ही कोई बंदिश नहीं थी. वैसे आंकड़े देखेंगे तो पता चलेगा कि इस कानून के तहत कितने कम मामले अदालतों में पहुंचे हैं. इसका इस्तेमाल ज्यादातर तलाक के वक्त ही होता रहा है. और अदालत ने तो अब भी यही कहा है कि आगे भी इसे तलाक का आधार बनाया जा सकता है. तो फिर डर किस बात का है?

यह समझना भी जरूरी है कि अदालत ने "क्रिमिनल" और "सिविल" मामलों में फर्क किया है. सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि अगर कोई शादी से बाहर जा कर संबंध बनाता है, तो यह मामला "सिविल कोर्ट" का है, जहां लोग अपने पारिवारिक मामले ले कर आते हैं, जबकि अब तक इसे "क्रिमिनल कोर्ट" के अधीन किया हुआ था.

ऐसा भी नहीं है कि 2018 में अचानक ही इस पर बात शुरू हो गई. इससे पहले भी तीन बार इस कानून को बदलने की कोशिश की जा चुकी है. 1954, 1985 और 1988 में सुप्रीम कोर्ट इस पर फैसले दे चुका है और इसे बदलने से इनकार कर चुका है. यानी सालों से इस पर चर्चा चलती रही है और इसे बदलने की मांग उठती रही है.

आखिरकार भारत में कानून बदल रहे हैं. हाल ही में अदालत ने समलैंगिकों को मान्यता दी है. अब "एडल्ट्री लॉ" को भी असंवैधानिक घोषित कर दिया गया है. अब इंतजार है उस दिन का जब सुप्रीम कोर्ट वैवाहिक बलात्कार से जुड़े कानून पर अपना फैसला सुनाएगी. उस दिन इस बात के सही मायने समझ में आएंगे कि एक औरत के शरीर पर उसका अधिकार है, वो अपने पति की जागीर नहीं है.

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