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ताल की मुहब्बत भरी एक शाम

६ नवम्बर २०११

कोलोन कैथेड्रल के पीछे फिलहार्मोनी में दावत उस्ताद जाकिर हुसैन के तबले, राकेश चौरसिया की बांसुरी, गणेश राजगोपालन के वायलिन, श्रीदर पार्थसारथी के मृदंगम, नवीन शर्मा के ढोलक और टीएचवी उमाशंकर के घटम के स्वरों की.

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तस्वीर: UNI

स्वर और ताल की आशिकी जब परवान चढ़ना शुरू हुई, सहसा बिहारी जी का एक दोहा याद हो आया,

कहत नटत रीझत खीजत मिलत खिलत लजियात

भरे भौन हूं करत है नैनन ही सौं बात

ठीक इसी तरह जाकिर हुसैन साहब और बाकी कलाकारों का सवाल जवाब दो घंटे रस बरसाता रहा और भरे भवन में लय सुरों से बात करती रही. मास्टर ऑफ परकशन्स यानी तालवाद्यों के उस्ताद नाम के इस कार्यक्रम की शुरुआत सरस्वती की आराधना से हुई. पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के शिष्य राकेश चौरसिया ने समां बांधा. इसके बाद शुरू हुआ उन अंगुलियों का जादू जो दुनिया को हतप्रभ करके रख देते हैं. झरने की तरह झरती दस मात्रा में बंधे टुकड़े बांसुरी के साथ सवाल जवाब करते लगते. कभी प्यार की कविता लगती, कभी दो बच्चों का खेल तो कभी खो खो की तर्ज पर जुगलबंदी. चाटी पर पड़ने वाली अंगुली जादू जगाती और डग्गे पर धिन् की गूंज उस जादू को चरम पर ले जाती.

Musikinstrument Tabla
तस्वीर: AP

पहाड़ी धुन

बांसुरी पर बजने वाली पहाड़ी धुन ने सहसा ही पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की याद ताजा कर दी. बांसुरी पर शानदार साथ घटम् और तबले का. तबले से आनी वाली आवाज कभी तो डग्गे की लगती और कभी बाउल संगीत के इकतारे में तब्दील हो जाती. तबले की स्याही पर जैसे ही उस्ताद की हथौड़ी घूमती लगता मानो बाऊल का इकतारा सुन रहे हों. बांसुरी और तबले की परवान चढ़ती मुहब्बत का साथ देने के लिए घटम पर टीएचवी उमाशंकर आए. कर्नाटकी पद्धति में मात्राओं की गिनती के साथ तबले और घटम की जुगलबंदी शुरू हुई. कभी अंगुलियों, कभी मुट्ठी, कभी हथेली से उमाशंकर जी घटम् पर आवाजों की रंगोली सजा रहे थे और तबले के साथ गुफ्तगूं कर रहे थे. तबले और घटम् की दादागिरी के बीच बांसुरी के कोमल स्वर जबरदस्त मिठास भर रहे थे. सांस की भी आवाज सुनाई दे ऐसे संगीत हॉल में दर्शकों के बीच वाह, क्या बात है की एक आध आवाज कहीं न कहीं से सुनाई दे ही जाती.

Autogramm von Zakir Hussain
तस्वीर: DW

फीलेन डांक

फीलेन डांक, यानी बहुत धन्यवाद के साथ हुसैन साहब ने जब ब्रेक की घोषणा की तो तंद्रा टूटी. यह तो जैसे ट्रेलर था. 15 मिनट के अंतराल के बाद शुरू हुआ वायलीन, मृदंगम, ढोलक, कंजीरे का अद्भुत संगम. मृदंगम की शास्त्रीय आवाज के बाद जब आठ मात्रा की सायकल में ढोलक आया तो समां ही बदल गया. शादियों में महिलाओं के हाथ में बजने वाला ढोलक नवीन शर्मा के हाथों में एक ठुमकती हुई आवाज में शास्त्रीय भाषा बोल रहा था. लय की पेचिदगियां पेश करने के बाद नीले कुर्ते सफेद पायजामें में विराजित घुंघराले बालों वाले उस्ताद ने सभी साथी वादकों का परिचय यह कहते हुए करवाया कि इन महान कलाकारों के साथ आज यहां कार्यक्रम देते हुए मुझे बहुत खुशी है.

लोक संगीत का जादू

कर्नाटकी संगीत की बूंद के साथ शुरू हुआ कार्यक्रम का दूसरा हिस्सा अचानक राजस्थान पहुंच गया. बांसुरी, वायलिन के स्वर म्हारी घूमर छे जी नखराली रे मां के स्वरों में मिल गए. लगा कि घूमर इतनी अगर नखराली हो तो क्या बात है. घूमती इठलाती, ठुमकती घूमर की स्वर लहरियां रुकीं और एक बार फिर बिजली की तरह हुसैन साहब की अंगुलियां चमकीं. कभी लगता कि झमाझम बारिश है तो कभी गरजते बादलों और लपलपाती बिजली की चकाचौंध और कभी मद्धम मद्धम बहती बयार कभी बांसुरी और वायलीन के स्वर में तबला, मृदंगम, ढोलक बोलने लगते तो कभी उनके ताल पर बांसुरी और वायलीन के स्वर खेलते. हिंदुस्तानी अंदाज में मंच पर ही रचना हो रही थी. जुगलबंदी खत्म करने के पारंपरिक तरीके से ही भारतीय वाद्यों का सुरीला सवाल जवाब खत्म हुआ.

Zakir Hussain
तस्वीर: AP

उस्तादों की उस्तादी

दो घंटे के रसपान के बावजूद दर्शकों का मन भरा नहीं था. स्टेंडिंग ओबेशन के दौरान तालियों की इतनी गड़गड़ाहट हुई कि सभी कलाकारों को दो बार स्टेज पर लौटना पड़ा. आखिरकार मृदंगम, तबला और ढोलक एक ओर और बांसुरी और वायलीन एक ओर लेकिन वाद्य नहीं थे. मुंह से ही बोल कहे जा रहे थे और ताल दिया जा रहा था और बांसुरी के साथ गणेश राजगोपालन ने भैरवी के सुर छेड़े. तीन मिनट तक इस सुरीले इम्प्रोवाइजेशन के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ.

मास्टर्स ऑफ परकशन नाम की श्रृंखला भारत के 200 वाद्यों के बारे में लोगों को बताने के उद्देश्य से शुरू की गई थी. इसी सिलसिले में 1990 से भारत में हर दो साल में अलग अलग वाद्यों के साथ कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. खुले मैदानों, हल्ले गुल्ले, शोर शराबे से भरपूर हॉलों में संगीत सुनने की परंपरा से आने के बाद 2000 दर्शकों की क्षमता वाले आलीशान कोएल्नर फिलहार्मोनी में तबला सुनना एक स्वर्गीय अनुभव रहा. ऐसा हॉल जहां तबले पर फेरा हुआ हाथ भी साफ सुनाई दे रहा था और हर घात की गूंज हवा में लंबे समय तैर रही थी.

रिपोर्टः आभा मोंढे, कोलोन फिलहार्मोनी

संपादनः एन रंजन