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जर्मनी में महिला अधिकारों के पचास साल

मेधा३ जुलाई २००८

1 जुलाई 1958 को जर्मनी में महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार देने वाला कानून पास किया गया. इस कानून को पचास साल पूरे हो गए हैं. तो जर्मनी में क्या महिला वाकई हर मामले में पुरुष की बराबरी कर पाई है?

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हर क्षेत्र में तरक्की के बावजूद आज भी असमानतातस्वीर: picture-alliance/chromorange

1958 से पहले जर्मनी में महिलाओं को पुरुषों के बराबर के अधिकार नहीं थे. खासकर पारिवार में सब महत्वपूर्ण निर्णय लेने का हक़ पुरुष को दिया गया था. बच्चों की परवरिश, पढ़ाई लिखाई के बारे में अंतिम फ़ैसले लेने का अधिकार महिलाओं को नहीं था. और ये बातें सिर्फ़ सामाजिक रीति रिवाज़ों की ही नहीं थी, बल्कि बक़ायदा संविधान में दर्ज थीं.

रूढ़ीवादी विचारधारा आज भी क़ायम

आज देखा जाए तो यहां महिलाओं को सब अधिकार प्राप्त हैं - वे खुद अपना व्यवसाय चुनती हैं, खुद कमाती हैं, और अपने सभी फैसले खुद ही लेती हैं. लेकिन फ्रैंकफर्ट की योहान वोल्फ़गांग गोएथे यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र की प्रोफ़ेसर उटे गेरहार्ड के मुताबिक जब बात पेशेवर और परिवारिक ज़िम्मेदारियां को एक साथ निभाने की बात होती है, तो महिलाओं को कई सवालों से जूझना पड़ता है.

इसकी वजह वह बताती हैं कि महिलाओं को हमेशा से ही सिखाया जाता रहा है कि उनके जीवन का लक्ष्य शादी करना और एक खुशहाल पारिवारिक जीवन निभाना ही है. वे कहतीं हैं कि आज भी ये बात लोगों के दिमाग़ में पूरी तरह बैठी हुई है. सब यही समझते हैं कि चाहे महिला नौकरी पेशा हो या नहीं, घर की ज़िम्मेदारियों को पूरा करना उसी का काम है.

कानूनी तौर पर भी समानता लाने में समय लगा

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अंगेला मेर्केल जर्मनी की चांसलर ज़रूर हैं, लेकिन यहां राजनीति में अब भी महिलाओं की भागीदारी बराबरी की नही हैतस्वीर: AP

यही नहीं, 1958 में समान अधिकारों के कानून में दो नई धाराएं भी जोड़ी गईं थी उनमें भी यही बात कही थी कि घर की ज़िम्मेदारी महिलाओं की ही है. वो बाहर काम ज़रूर कर सकती है, लेकिन तभी, जब परिवार को पैंसों की ज़रूरत हो, और उसका पति इस बात से सहमत हो. उटे गेरहार्ड बताती हैं कि सही मायने में महिला को परिवार में बराबरी के हक़ 1976 में बनाए गए और 1977 में लागू किए गए. तो इसके बाद ही महिलाओं को पुरुषों के साथ बराबरी का हक़ दिया गया.

ज़ाहिर सी बात है कि उस वक्त इस परिवर्तन का कई लोगों ने विरोध किया. चर्च भी इसके खिलाफ़ ही था. और कानूनी बदलाव के बाद भी लोगों की सोच में बदलाव लाना आसान नहीं था.

शक्ति बांटने में अब भी हिचकिचाहट

जर्मन संसद की पूर्व स्पीकर रीटा ज़्युसमुथ, जो जर्मनी की पहली महिला परिवार कल्याण मंत्री भी रह चुकीं हैं, बताती हैं कि अस्सी के दशक में भी महिलाओं के लिए नौकरी ढ़ूंढना मुश्किल ही था. वे कहती हैं कि आज भी ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां महिलाओं को भेदभाव का सामना करना पड़ता है.

उनके मुताबिक बाधाएं वहां सबसे ज़्यादा हैं, जहां बात शक्ति के बंटवारे की होती है. ऐसी शक्ति जो सामाज को प्रभावित कर सके – फिर बात चाहे उद्योग की हो, या राजनीति की. जर्मनी में 16 राज्य हैं – इनमें से एक की भी मुख्यमंत्री महिला नहीं है. हां जर्मनी की चांसलर एक महिला ही हैं, लेकिन अगर सही रूप से देखें तो आज भी पुरुषों का पलड़ा ही भारी है.

जर्मनी अन्य यूरोपीय देशों से भी पीछे

अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी की बात हो तो जर्मनी में सिर्फ़ 26.5 प्रतिशत महिलाएं ही फैसले लेने वाले पदों पर हैं. इस मामले में जर्मनी अन्य यूरोपीय संघ के देशों से बहुत पीछे है. यूरोपीय संघ की ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि जर्मनी में महिलाएं पुरुषों की तुलना में 20 प्रतिशत कम कमाती हैं. रीटा ज़्युस्मुथ कहती हैं कि राजनीति के अलावा औद्योगिक क्षेत्र में भी साफ़ उद्देश्य तय करने की ज़रूरत है, जिनका समय समय पर जायज़ा भी लिया जाए.

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जर्मनी में महिलाएं अकसर परिवार और करियर के बीच फंस कर रह जाती हैंतस्वीर: picture-alliance / Lehtikuva

वे कहती हैं कि जर्मनी की महिलाएं परिवार और करियर के बीच फंस कर रह जाती हैं. मां बनने के बाद उनके सामने परिवार संभालने और अपने करियर में से किसी एक को चुनने की मुश्किल आती है.

अब तो यहां एल्टर्नत्साईट का भी कानून लोगू किया गया है, जिसके अनुसार मां और पिता दोनों ही बच्चे के पैदा होने के तीन साल तक छुट्टी ले सकते हैं, और इस दौरान वे 30 घंटे प्रति हफ़्ते के हिसाब से पार्ट टाईम काम करके पैसे भी कमा सकते हैं. इसके अलावा उन्हे सरकार की तरफ़ से बच्चे को पालने पोसने के लिए पैसे भी मिलते हैं. जब से ये कानून लागू हुआ है, बहुत से पिताओं ने इसका फ़ायदा उठाया है. लेकिन इनकी संख्या अब भी कम है, क्योंकि उटे गेरहार्ड बताती हैं कि वे सोचते हैं कि इससे उनके करियर को ठेस पंहुच सकती है.

सामाजिक ढांचे मे परिवरतन ज़रूरी

गेरहार्ड कहती हैं कि सही ये ज़रूरी है कि हम एक समाज के तौर पर पेशेवर ज़िन्दगी को नए नज़रिए से देखें, जिसमें व्यक्तिगत क्षेत्र में किए गए काम को भी एहमियत दी जाए - मिसाल के तौर पर बच्चों को पालना, बुज़ुर्गों की देख भाल करना - वो सब काम जिन्हे महिलाओं की ज़िम्मेदारी समझा जाता है - और इन सब क्षमताओं को रेज़्यूमे पर भी पेशेवर योग्यता के रूप में देखा जाए. इस सब के लिए समाजिक ढांचे और श्रमबाजार में परिवर्तन लाना बहुत ज़रूरी है.

हाल ही के एक सर्वे में पाया गया है कि 80 प्रतिशत लोग मानते हैं कि समाज में बढ़ती महिलाओं की भागीदारी का सकरात्मक असर हुआ है, लेकिन अगर आंकड़ों को देखा जाए तो महिलाओं को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए जर्मनी जैसे विकसित देश को अब भी बहुत कुछ करना बाकी है.