जब चर्च की घंटियों से बनाए गए हथियार
१० नवम्बर २०१८आने वाले समय की आहट को भांप कर सहायक पादरी ने पहले ही इस्तीफा दे दिया था. उन्होंने पूरी कोशिश की कि जो होने वाला है, उसे किसी तरह टाला जा सके. लेकिन जुलाई 1917 में उन्हें पता चल गया कि उनकी सारी कोशिशें बेकार हैं. आखिकार तय हुआ कि जर्मन राज्य राइनलैंड पैलेटिनेट के कुजेल शहर के चर्च के टावर से भी घंटियों को उतारा जाएगा और फिर उन्हें पिघलाकर बंदूकें और तोप की नलियां बनाई जाएंगी.
सहायक पादरी कार्ल मुंत्सिगर ने 22 जुलाई 1917 को अपने उपदेश में अपने कष्ट को बयान करते हुए कहा था, "वे भविष्य में एक अलग भाषा बोलेंगे. ये हर भावना के विपरीत है. यह कुछ वैसे है कि कि शांति का उपदेश देने वाले और टूटे दिलों पर मरहम लगाने वाले बर्बर हत्या करें और ऐसे घाव दें जो कभी ना भरें."
हथियार बनाने के लिए धातुओं की कमी को देखते हुए जर्मन शाही सरकार ने मार्च 1917 में आदेश जारी किया कि चर्च की घंटियों को उतार उससे हथियार बनाए जाएं. बहुत सारे नागरिकों को यह फैसला पंसद नहीं आया. इनमें ऐसे भी लोग थे जो ईसाई नहीं थे.
चर्च की ये घंटियां युगों से लोगों की दिनचर्या को निर्धारित करती रही थीं. कोलोन के बाहरी इलाके में रहने वाले एक प्रोस्टेस्टेंट पादरी रुडीगर पेंसेक कहते हैं, "चर्च की घंटियां आम जिंदगी में घड़ी का काम करती रही हैं और करती रहेंगी. जब मौत की घंटी बजती है तो आपको पता चलता है कि किसी को दफनाया जा रहा है. शनिवार की शाम 6.50 बजे घंटियां अगले दिन रविवार होने की सूचना देती हैं. इन्हें सुनकर काम करने वालों को लगता है कि अब आराम करने का समय आ गया है. यह घंटियों का आध्यात्मिक पक्ष है. पहले विश्व युद्ध में यह खत्म हो गया."
पेंसेक के मुताबिक जब चर्च की घंटियों को पिघला कर उनसे जंग के लिए हथियार बनाए गए तो उनके मायने ही बदल गए." आज 21वीं सदी में भी चर्च की घंटियां यूरोप में आम जिंदगी का अहम हिस्सा हैं. सोचिए अब से 100 साल पहले उनकी कितनी ज्यादा अहमियत होगी.
ऐसा नहीं है कि सरकार के आदेश का सभी जगह विरोध हुआ. मिसाल के तौर पर स्पायर शहर में चर्च संस्था से जुड़े लेखकों ने इसका स्वागत किया और इसका विरोध करने वालों की आलोचना की. उन्होंने प्रेस में इसके विरोध को भी गलत ठहराया.
पहले विश्व युद्ध में जर्मनी के चर्चों की 44 प्रतिशत घंटियों को हथियारों में इस्तेमाल किया गया था.