गोरा होना ही खूबसूरती नहीं
२६ अक्टूबर २०१३डार्क इज ब्यूटीफुल अभियान वैसे तो 2009 में शुरू हुआ. लेकिन धीरे धीरे इसे लोकप्रियता मिली रंग गोरा करने का दावा करने वाले ब्यूटी प्रोडक्ट्स के विज्ञापनों से, और इसमें शाहरुख खान जैसे मशहूर कलाकार भी शामिल हैं, जो विज्ञापन में एक गहरे रंग के व्यक्ति को फेयरनेस क्रीम का डब्बा थमाते हैं.
अभियान से जुड़े लोग इस विज्ञापन को रोकने की मांग कर रहे हैं. साथ ही उनकी कोशिश है कि लोगों के दिमाग से ये सोच निकाली जाए कि गोरापन ही खूबसूरती है.
शहरी लड़की हमेशा गोरी
डीडबल्यू से बातचीत में विमेन ऑफ वर्थ संगठन की निदेशक और संस्थापक कविता इमैन्युएल ने कहा, "यह धारणा कि गहरे रंग की त्वचा सुंदर नहीं होती, समाज में बहुत गहराई से जज्ब है और हम इस बारे में जागरुकता पैदा करना चाहते हैं."
इमैन्युएल का गैर सरकारी संगठन स्कूलों और कॉलेजों के साथ बात कर रहा है और उन्हें आत्म सम्मान, दबाव और विषाद से बचने के उपाय बतात है. वे अक्सर उन लोगों से दो चार होती हैं, जो गहरा रंग होने के कारण सामाजिक और पारिवारिक मुश्किलों से जूझ रहे होते हैं. अक्सर उन्हें हर स्तर पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
मशहूर बॉलीवुड कलाकार नंदिता दास इस अभियान का चेहरा हैं. वे जानती हैं कि गहरे रंग की त्वचा वाले लोगों को किस तरह का भेदभाव सहना पड़ता है. खासकर बॉलीवुड में. वह कहती हैं, "अगर आप कालें या ब्राउन हैं तो आपको गांव की लड़की या फिर गरीब परिवार का दिखाया जाएगा लेकिन प्रभावशाली, शहरी लड़की हमेशा ही गोरी होनी चाहिए."
करोड़ों की इंडस्ट्री
भारतीय फिल्म और विज्ञापन उद्योग गोरे रंग वाली मॉडलों और अभिनेत्रियों को पसंद करता है. इमैन्युएल बताती हैं, "उद्योगों ने इससे पैसे कमाये हैं, कुछ हद तक उन्होंने इसे बढ़ावा भी दिया है. लेकिन अपने बचाव में वे कहते हैं कि उन्होंने सिर्फ लोगों के पसंद की चीज परोसी है या वह दिया है जो लोगों की नजर में खूबसूरत होता है."
मुंबई की मार्केट रिसर्च कंपनी नील्सन इंडिया के मुताबिक भारत में फेयरनेस क्रीम का उद्योग फिलहाल 43 करोड़ डॉलर का है. यह उद्योग काफी समय से देश में टिका हुआ है. हिंदुस्तान लीवर ने पहली फेयर एंड लवली क्रीम 1978 में लाई थी. समय के साथ टारगेट ग्रुप बदल गया. ताजा शोध बताते हैं कि यह क्रीम अब तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के पुरुषों में भी काफी लोकप्रिय है क्योंकि वहां के लोग सामान्य तौर पर गहरे रेंग की त्वचा वाले होते हैं.
गोरी नहीं तो शादी नहीं
भारत में हल्के रंग को पसंद करना उसके इतिहास और संस्कृति से गहरा जुड़ा है. जहां ऊपरी वर्ग के लोग गोरे और निचले वर्ग के लोग काले होते हैं. इसका सामान्य कारण है कि उच्च वर्ग के लोग घरों के भीतर काम करते हैं और उन्हें खाने पीने की कोई कमी नहीं होती. जबकि दूसरे धूप में मेहनत मजदूरी करते हैं और उन्हें उतनी सुविधाएं नहीं मिलती जितनी बाकियों को मिलती हैं. इसके अलावा अंग्रेजों को साहब या मेमसाहब की तरह देखना भी आदत का हिस्सा बन गया है.
शादी के लिए लड़की देखते समय लड़का चाहे जैसा हो, लड़की गोरी, दुबली पतली होनी चाहिए. इमैन्युएल डीडबल्यू से अपना अनुभव साझा करती हैं, "ब्रिटेन के एक डॉक्टर का मेरी सहकर्मी के लिए रिश्ता आया. डॉक्टर व्हील चेयर पर था, मेरी सहयोगी ने फिर भी रिश्ता स्वीकार किया. लेकिन लड़के ने बाद में मना कर दिया क्योंकि लड़की गोरी नहीं थी."
अभागी काली लड़की
जर्मन नेशनल कमेटी, यूएन विमेन की उपाध्यक्ष डॉ. कंचना लांसेट कहती हैं, "मैंने कई बार मां बाप के या परिजनों के मुंह से सुना है, अभागी काली लड़की. उसके इतने अच्छे नाक नक्श हैं, बस गोरी होती. इसके बाद मिलियन डॉलर का ऑफर आता है, कौन एक काली लड़की से शादी करेगा. उसके लिए अच्छा लड़का ढूंढना मुश्किल हो जाएगा."
डार्क इज ब्यूटीफुल अभियान चलाने वाले कार्यकर्ताओं का मानना है कि लोगों की सोच बदलना जरूरी है. वो जानते हैं कि ऐसा एक दिन में नहीं हो जाएगा. लेकिन इस अभियान की सफलता कहीं न कहीं यह भी दिखाती है कि लोगों की सोच बदल रही है. और वह इस संवेदनशील मुद्दे पर बहस करने के लिए तैयार हैं.
लांसेट कहती हैं कि समाज की सोच तभी बदलेगी जब वह ये समझ सकेगा कि सुंदरता का त्वचा के रंग से कोई लेना देना नहीं है या फिर तब जब, "समाज महिलाओं और लड़कियों को इंसान समझने लगेगा. उन्हें सिर्फ शरीर के तौर पर नहीं बल्कि उनकी खूबियों से पहचाना जाएगा. तभी वे जान सकेंगे कि लोग उनकी त्वचा के रंग से कहीं ज्यादा हैं."
रिपोर्टः रोमा राजपाल वाइस/आभा मोंढे
संपादनः ईशा भाटिया