1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
समाजभारत

गंगुबाई की कहानी से यौनकर्मियों को मिली उम्मीद

२४ मई २०२२

रोशनी से भरे कोठे, साफ गलियां और बढ़िया गाने पर झूमते यौनकर्मी, भारत में ये जगह सचमुच ऐसी नहीं है, लेकिन मुंबई के कमाठीपुरा पर बनी फिल्म ने देश के लगभग 10 लाख यौनकर्मियों से रिश्ता जोड़ लिया.

https://p.dw.com/p/4Blb7
गंगुबाई की कहानी ने यौनकर्मियों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा दी है
गंगुबाई की कहानी ने यौनकर्मियों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा दी हैतस्वीर: Bhnasali Productions/Pen Studios/IMAGO

'गंगूबाई काठियावाड़ी' एक बायोपिक है जिसमें इसी नाम की एक यौनकर्मी की कहानी है. जवानी में तस्करी का शिकार बनी गंगुबाई 1950 के दशक में इस कारोबार में शामिल औरतों के हक के लिए लड़ती है. यह वो लड़ाई है जो कमोबेश आज भी जारी है.

मुंबई के रेडलाइट इलाके कमाठीपुरा और पूरे भारत में कई यौनकर्मियों का कहना है कि फिल्म की नायिका आलिया भट्ट ने उनके रोज रोज के संघर्ष को सही मायने में समझा है, जो दुर्लभ है. नेशनल नेटवर्क ऑफ सेक्स वर्कर्स की प्रमुख किरन देशमुख कहती हैं, "हमने बहुत ध्यान से फिल्म को देखा, एक एक मिनट. हम जैसी औरतों पर कई फिल्में बनी हैं लेकिन किसी ने इन मुद्दों को नहीं उठाया."

काम तो काम है

थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन से बातचीत में देशमुख ने कहा, "लोग जो फिल्मों में देखते हैं उसी पर भरोसा करते हैं और इस फिल्म ने दिखाया है कि सेक्स बेचने का काम भी एक काम है जो हमें हमारी जिंदगी जीने में मदद करता है, हमारी भूख मिटाता है और हमारे बच्चे पालता है."

भारत के यौनकर्मी यहां के सबसे ज्यादा हाशिये पर जीने वाले समूहों में से एक हैं. भले ही वेश्यावृत्ति भारत में वैध है लेकिन इससे जुड़ी ज्यादातर गतिविधियां मसलन कोठे चलाना, सेक्स के लिए उकसाना और बिचौलिये का काम करना आदि अपराध है. इसका नतीजा यह होता है कि यौनकर्मियों को पुलिस के साथ आए दिन उलझना पड़ता है.

आलिया भट्ट ने यौनकर्मियों की तकलीफों को इस किरदार में जीया है
आलिया भट्ट ने यौनकर्मियों की तकलीफों को इस किरदार में जीया हैतस्वीर: Bhnasali Productions/Pen Studios/IMAGO

इनमें से ज्यादातर ना तो वोट दे सकती हैं, ना बैंक खाते खोल सकती हैं और ना ही इन्हें राज्यों से गरीब लोगों को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ मिलता है. इनके पास जरूरी दस्तावेजों का नहीं होना इसकी वजह है और अकसर ये कर्ज के जाल में फंस जाती हैं जहां साहूकार इनसे मनमाना ब्याज वसूलने के साथ ही परेशान भी करते हैं. 

यौनकर्मियों के बच्चों के लिए काम करने वाले गैरलाभकारी संगठन प्रेरणा की संस्थापक प्रीति पाटकर बताती हैं, "कमाठीपुरा की महिलाओं के बैंक खाते खुलवाने के लिए हमने 30 साल तक संघर्ष किया." पाटकर का संगठन यौनकर्मियों के बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाने में मदद करता है. कोविड-19 की महामारी ने यौनकर्मियों को भारत के विशाल असंगठित कामगारों में शामिल करने की मांग को बल दिया. इस दिशा में जब बात आगे बढ़ रही थी तभी गंगूबाई काठियावाड़ी फिल्म पर्दे पर उतरी.

पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार को आदेश दिया कि वह यौनकर्मियों को राशन और वोटर कार्ड जारी करे. भारत की राजधानी मुंबई में यह काम शुरू हो चुका है. पिछले महीने यह फिल्म नेटफ्लिक्स पर भी रिलीज हुई. यौनकर्मियों के लिए काम करने वाले गैरलाभकारी संगठन संग्राम की महासचिव आरती पाई कहती हैं, "बातचीत को जारी रखने का यह उचित समय है."

संजय लीला भंसाली ने कहानी तो सच्ची दिखाई लेकिन माहौल सच्चा नहीं दिखा पाये
संजय लीला भंसाली ने कहानी तो सच्ची दिखाई लेकिन माहौल सच्चा नहीं दिखा पायेतस्वीर: Bhansali Productions (India) LLP

मुंबई की रानियां

पत्रकार एस हुसैन जैदी और जेन बोर्गेस की किताब "माफिया क्वींस ऑफ मुंबई" के एक अध्याय को फिल्म के रूप में गंगूबाई काठियावाड़ी में फिल्म की शक्ल दी गई है. फिल्म आलोचकों का कहना है कि यह फिल्म बॉलीवुड में यौनकर्मियों का जो एक बना बनाया ढांचा है उसे तोड़ती है.

फिल्म क्यूरेटर और बर्लिन फिल्म फेस्टिवल की साउथ एशिया डेलिगेट मीनाक्षी शेड्डे इसे "नारीवादी फिल्म" बताती हैं. उनका कहना है कि संजय लीला के निर्देशन में बनी फिल्म इसलिए भी ज्यादा मजबूत बन कर उभरी है, क्योंकि यह एक बायोपिक है. मीनाक्षी ने फिल्म के एक दृश्य की ओर ध्यान दिलाया जिसमें गंगूबाई ताकवर मैडम या फिर कोठे की बॉस बन जाती हैं, वह सारे यौनकर्मियों को इकट्ठा कर फिल्म देखने के लिए छुट्टी लेने को कहती हैं.

शेड्डे ने कहा, "एक मुख्यधारा की मसाला फिल्म यह देखना बहुत दिलचस्प है. मुझे नहीं पता कि किसी भारतीय फिल्म में एक यौनकर्मी को इस तरह से राजनीतिक, कानूनी और आर्थिक स्तर पर इतने अधिकार के साथ दिखाया गया हो."

अभिनेत्री सीमा पाहवा ने कोठे की मालकिन का किरदार निभाया है और युवा गंगूबाई की बॉस के रूप में दिखी हैं. पाहवा का कहना है कि यौनकर्मियों के लिए फिल्म के एक खास शो के दौरान उनकी प्रतिक्रिया देख कर वो सन्न रह गईं. उन्हें उम्मीद है कि फिल्म यौनकर्मियों के अधिकारों के बारे में जागरूकता जगाएगी, यहां तक कि इस पेशे में जुटे लोगों के बीच भी और यह इस मुद्दे को और आगे बढ़ाने में मददगार होगी. पाहवा का यह भी कहना है, "यहां मीडिया को एक बड़ी भूमिका निभानी है... जागरूकता पैदा करने की. यह दुखद है कि सालों से जो मुद्दे उठाये जा रहे हैं वो आज भी बने हुए हैं."

गंगुबाई फिल्म देखने के बाद लोग गंगुबाई का घर देखने आ रहे हैं
गंगुबाई फिल्म देखने के बाद लोग गंगुबाई का घर देखने आ रहे हैंतस्वीर: Bhansali Productions (India) LLP & Pen India Ltd.

'उसकी तरह मैं भी बच गई'

बॉलीवुड के शोरगुल और चमक दमक से दूर कमाठीपुरा की एक पतली गली के अंधेरे कोठे में 40 साल की रुखसाना अंसारी और दूसरी औरतें मोबाइल फोन पर फिल्म की क्लिप्स देख रही हैं. अंसारी के मां बाप की मौत के वो बाद करीब दो दशकों तक सेक्स तस्करी का शिकार रहीं. उन्हें 10 हजार रुपये में एक कोठे पर बेच दिया गया वो फिल्म के मुख्य किरदार और अपनी कहानी में बहुत समानता देखती हैं.

अंसारी ने बताया, "हम दोनों को धोखा मिला, हम दोनों कोठे से भागीं और कुछ जीतें हासिल कीः मैंने छोटे कपड़े पहनने और शराब पीने से मना कर दिया. उसकी तरह मैं भी बची रही." अंसारी की बाएं हाथ पर कई जख्मों के निशान हैं ये वो जख्म हैं जो उन्होंने खुद को दिये वह उन्हें अस्तित्व की लड़ाई की निशानी के तौर पर देखती हैं.

मुंबई के साथ ही सांगली और सोलापुर से भी हजारों यौनकर्मियों को फिल्म दिखाने के लिए गैरलाभकारी संगठनों की ओर से बुलाया गया. बहुत सी औरतों ने खुद भी टिकट खरीद कर ये फिल्म देखी. बहुत सी औरतें तो फिल्म देखने के बाद कमाठीपुरा में गंगूबाई के पुराने मकान को भी देखने गईं.

भारत में देह व्यापार तो वैध है लेकिन उससे जुड़े बाकी सारे काम अवैध
भारत में देह व्यापार तो वैध है लेकिन उससे जुड़े बाकी सारे काम अवैधतस्वीर: Bhnasali Productions/Pen Studios/IMAGO

गंगूबाई के मकान में रहने वाली सपना ने बताया, "फिल्म रिलीज होने के बाद सैकड़ों लोग यहां आये हैं. ये सब मुझसे एक ही बात पूछते हैं कि क्या मैं वही हूं जिसकी कहानी फिल्म में दिखाई गई. क्या उसकी कहानी सच्ची है." महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली गंगूबाई की एक फूलों से सजी मूर्ती कॉरिडोर के आखिर में खड़ी है. 

बाहर कमाठीपुरा की तंग और शोर भरी गलियां पुरानी इमारतों से भरी हैं, वहीं सड़कों के किनारे रंगरेजों की दुकाने हैं और कुछ चाय समोसे बेचते रेहड़ी वाले. 

देशमुख को भी फिल्म देखने के बाद गंगूबाई का घर देखने की इच्छा हुई लेकिन वो फिल्म में जिस तरह से इस जगह को दिखाया गया है वो उस पर सवाल उठाती हैं. गंगूबाई का बाथरूम तो इतना बड़ा है कि वहां एक औरत अपने काम के लिए बिस्तर लगा सकती है. फिल्म इतनी सच्ची थी तो उनके काम की जगह को भी सच्चे रूप में दिखाना चाहिए था."

एनआर/वीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)