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शिक्षाभारत

क्या भारत के बच्चे बिना परीक्षा और किताब वाले स्कूल जायेंगे

२८ मई २०२२

सोचिये कोई ऐसा स्कूल हो जहां बच्चे पूरा दिन नहीं बल्कि कुछ घंटे ही बितायें और उन्हें कोई परीक्षा भी ना देनी हो. फिनलैंड के स्कूलों में ऐसा ही है और इसे लेकर अब भारत में भी चर्चा हो रही है.

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फिनलैंड के स्कूल देर से शुरू होते हैं और टीचर और छात्रों के बीच ज्यादा बातचीत होती है
फिनलैंड के स्कूल देर से शुरू होते हैं और टीचर और छात्रों के बीच ज्यादा बातचीत होती हैतस्वीर: Xinhua/picture alliance

आठ साल की नताशा (बदला हुआ नाम) हर रोज सुबह 5:30 बजे उठती है ताकि वो समय से अपने स्कूल पहुंच सके. स्कूल की घंटी सुबह 7:15 पर बजती है लेकिन उनके माता-पिता की कोशिश होती है कि वो उसे 6:45 बजे तक स्कूल पहुंचा दें ताकि ट्रैफिक की वजह से नताशा को समय पर स्कूल पहुंचने की हड़बड़ी ना रहे. नताशा के स्कूल की छुट्टी दोपहर में 3:00 बजे होती है, लेकिन यदि बच्चों को किसी विषय में कोई दिक्कत होती है तो उसके बाद भी उनके लिए अलग से क्लास लगती है.

नताशा की पढ़ाई के दौरान उसकी शारीरिक शिक्षा या फिर दूसरी चीजें सीखने पर कोई खास ध्यान नहीं दिया जाता क्योंकि उसकी पढ़ाई का भविष्य परीक्षा में मिलने वाले ग्रेड के आधार पर तय होना है.

यह सिर्फ नताशा की नहीं है बल्कि भारत में करोड़ों बच्चों की स्कूली शिक्षा की यही कहानी है. रट कर सीखना, सभी का एक जैसा पाठ्यक्रम और एक जैसी परीक्षा, पूरे देश की स्कूली पढ़ाई का यही आधार है. 

हालांकि फिनलैंड की बेहतरीन स्कूली शिक्षा व्यवस्था का जैसे-जैसे प्रसार हो रहा है, कुछ भारतीय स्कूल खुद को इसी आधार पर ढालने और उसे अपनाने की कोशिश कर रहे हैं.

फिनलैंड के स्कूलों में बच्चों के बस्ते का बोझ कम है और वो पूरा दिन स्कूल में नहीं बिताते
फिनलैंड के स्कूलों में बच्चों के बस्ते का बोझ कम है और वो पूरा दिन स्कूल में नहीं बितातेतस्वीर: Alessandro Rampazzo/Getty Images/AFP

कैसे होती है फिनलैंड के स्कूलों में पढ़ाई?

फिनलैंड के पढ़ने पढ़ाने के तरीकों की दुनिया भर में प्रशंसा होती है. यह मुख्य रूप से सामान्य ज्ञान और पढ़ाई के बेहतरीन तरीकों से भरपूर वातावरण पर जोर देती है ताकि उत्कृष्टता से ज्यादा समानता को बढ़ावा दिया जा सके.

भारत की पारंपरिक पढ़ाई लिखाई के उलट, फिनलैंड में बच्चों को स्कूल भेजने की शुरुआत छह और सात साल के बीच होती है. यहां दिन में भी स्कूल देर से ही खुलते हैं यानी नौ बजे के बाद.  भारत में बच्चों को लोग कुछ जगहों पर तो तीन साल की उम्र से ही स्कूल भेजने लगते हैं और स्कूल भी सुबह सात बजे खुल जाते हैं.

फिनलैंड में छात्रों की योग्यता मापने का कोई मानक तरीका नहीं है. वहां के स्कूल प्रतियोगिता की बजाय सहयोग पर जोर देते हैं और छात्रों और अध्यापकों के बीच ज्यादा से ज्यादा बेहतर तालमेल को बढ़ावा देते हैं.

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डीडब्ल्यू से बातचीत में महाराष्ट्र के पुणे स्थित फिनलैंड इंटरनेशनल स्कूल की प्रिंसिपल मिन्ना मारिका रेपो कहते हैं, "फिनलैंड में हर दस साल में पाठ्यक्रम को सुधारा जाता है. इस बारे में फ्यूचरोलॉजिस्ट्स की राय ली जाती है और उसी के अनुरूप ये सुधार किए जाते हैं.”

रेपो आगे कहते हैं, "पाठ्यक्रम में इस बात पर मुख्य जोर होता है कि कौशल विकास कैसे किया जाए. सामान्य तौर पर नौकरी पाने की चाहत रखने का समय अब खत्म हो गया है. इसीलिए चीजों को याद करने और रटने की बजाय उन्हें सीखने और कुशल बनाने पर ज्यादा जोर दिया जाता है. अब क्षमता पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है.”

क्या इसे भारत में भी अपनाया जा सकता है?

परंपरागत रूप से देखें तो भारतीय स्कूलों की कक्षाओं में कुछ खास विशेषताएं आमतौर पर होती हैं- मसलन, केंद्रीय स्तर पर तैयार एक पाठ्यक्रम, छोटे-छोटे क्लासरूम और पढ़ाई का एक ऐसा माहौल जिसमें परीक्षा में ज्यादा अंक लाने का दबाव रहता है.

छोटी कक्षाओं से ही छात्रों को इस तरह पढ़ाया जाता है और उनका मूल्यांकन होता है ताकि आगे चलकर यानी दसवीं और बारहवीं की परीक्षा में वो राष्ट्रीय स्तर पर अन्य छात्रों से प्रतियोगिता के लिए तैयार रहें. तमाम अच्छे कॉलेजों में प्रवेश के लिए हर साल कटऑफ बढ़ता ही जा रहा है और यह 99 फीसदी तक पहुंच चुका है, इन स्थितियों में बच्चों के ऊपर एक प्रतियोगी माहौल का दबाव और ज्यादा रहता है.

हालांकि पढ़ाई के इस तरीके में अकसर बच्चों की तमाम दूसरी क्षमताएं नजरअंदाज कर दी जाती हैं क्योंकि सभी बच्चे एक ही पैटर्न पर पढ़ाई करते हैं, परीक्षा देते हैं और ज्यादा से ज्यादा अंक पाने की कोशिश करते हैं.शुरुआती तौर पर दोनों व्यवस्थाओं में साफ अंतर दिखता है लेकिन जानकारों का कहना है कि भारत में बच्चों का एक समूह ऐसा है जो बदलाव के लिए तैयार है. यह भी पढ़ेंः दिल्ली के स्कूलों में देशभक्ति का पाठ पढ़ेंगे बच्चे

कई स्कूल फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था को अपनाने की कोशिश कर रहे हैं और ऐसे संस्थानों को  आशीष श्रीवास्तव का फिनलैंड एजूकेशन हब काफी मदद दे रहा है.

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डीडब्ल्यू से बातचीत में आशीष श्रीवास्तव कहते हैं, "हम फिनलैंड की शिक्षण प्रणाली से सर्वोत्तम बातों को लेना चाहते हैं और इसे भारत की शिक्षा व्यवस्था में एक उपयोगी विकल्प के तौर पर स्थापित करना चाहते हैं.”

श्रीवास्तव कहते हैं कि इसके तहत एक सांस्कृतिक संदर्भ देना करना और फिनलैंड की पद्धति को अपनाने के लिए जरूरी तरीकों को समझाना शामिल है.

भारत में विभिन्न राज्यों के अपने बोर्डों के अलावा केंद्रीय स्तर पर मुख्य रूप से चार बोर्ड हैं- सीबीएसई, आईसीएसई, आईबी और आईजीसीएसई.

चूंकि स्कूल खुद से पाठ्यक्रम में बदलाव नहीं कर सकते हैं, इसलिए कुछ स्कूल अब फिनलैंड एजुकेशन हब जैसे सलाहकारों की मदद ले रहे हैं ताकि वो अपने यहां फिनलैंड स्कूल के तौर तरीके और उनकी तकनीक का उपयोग कर सकें.

हालांकि फिनलैंड के तरीकों को अपनाना एक ऐसे देश के लिए बहुत मुश्किल है जहां प्रति व्यक्ति जीडीपी दो हजार डॉलर से भी कम हो. साल 2021 में देश की कुल राष्ट्रीय आय का पांचवां हिस्सा देश के सिर्फ एक फीसदी लोगों के पास था और यही लोग फिनलैंड के स्कूलों का खर्च उठा सकते हैं जो कि करीब सात हजार डॉलर वार्षिक होता है. यानी भारत की बहुसंख्यक आबादी इस खर्च को उठाने में सक्षम नहीं है.

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छोटे बच्चों से शुरुआत

रेपो का फिनलैंड इंटरनेशनल स्कूल अगस्त में छात्रों के प्रवेश के लिए तैयार है. इस साल स्कूल में सिर्फ कक्षा चार तक के छात्रों को प्रवेश दिया जाएगा और स्कूल टीम को उम्मीद है कि ये बच्चे स्कूल के साथ ही बड़े होंगे. रेपो कहते हैं, "बच्चों के लिए हमारे साथ ही बड़ा होना आसान होगा, बजाय इसके कि उन्हें किसी चलती ट्रेन में बैठा दिया जाए.”

स्कूल ने पढ़ाई के जिस तरीके को अपनाया है, यह उसी के अनुसार हो रहा है. यह बदलाव उन छात्रों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है जिन्होंने स्कूली शिक्षा का अनुभव पहले ले रखा होगा. रेपो कहते हैं, "छोटे बच्चों का दाखिला दे कर उन्हें स्कूल के साथ आगे बढ़ाने से सीखने की प्रक्रिया ज्यादा प्रभावी होगी.”

इस बात से आशीष श्रीवास्तव भी सहमत हैं. वो कहते हैं, "प्री-प्राइमरी और प्राइमरी कक्षाएं बहुत ही अहम हैं क्योंकि इस दौरान बच्चों के अंदर नई चीजों को ग्रहण करने की क्षमता सबसे ज्यादा होती है.”

लागू करने में तमाम बाधाएं हैं

फिनलैंड की पढ़ाई को लागू करने में सबसे बड़ी बाधा तो यही है कि अभिभावकों को कैसे तैयार किया जाए कि इस प्रतियोगी माहौल में उनके बच्चे किसी तरह से भी स्कूल के बाहर नुकसान में नहीं रहेंगे.

कुछ अभिभावक इस परिवर्तन के पक्ष में हैं जो कि सीखने का ज्यादा स्थायी तरीका प्रदान करता है लेकिन बहुत से लोग एक ऐसी पद्धति को अपनाने को लेकर आशंकित हैं जो भारत के परीक्षा तंत्र से अलग है.

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श्रीवास्तव कहते हैं, "शुरुआती कक्षाओं के लिए हमारे यहां कोई टेक्स्ट बुक्स नहीं हैं. अभिभावकों को सबसे ज्यादा यही बात आशंकित करती है. हालांकि उसके बाद हम उन्हें बताते हैं कि बच्चों को सिखाने के लिए सिर्फ किताबें ही जरूरी नहीं हैं बल्कि उन्हें कई तरह की गतिविधियों के साथ भी सिखाया जा सकता है और स्कूल के बाहर ले जाकर भी बहुत सी चीजें बताई और सिखाई जाती हैं.”

रेपो कहते हैं कि हमारा लक्ष्य बच्चों में क्षमता विकसित करना है ताकि वो वास्तविक दुनिया में प्रतियोगिता के लायक बन सकें.”

ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवेलपमेंट यानी ओईसीडी के मुताबिक, "फिनिश यानी फिनलैंड की पढ़ाई, स्थानीय जरूरतों के हिसाब से और गुणवत्ता से भरी शिक्षा को सार्वजनिक बनाने के लिए साफ तौर पर प्रतिबद्धता दिखाती है.”

फिनलैंड के लिए ओईसीडी की शिक्षा नीति 2020 के मुताबिक, "यह तरीका काफी विकेंद्रीकृत है और शिक्षा से संबंधित ज्यादातर फैसले या तो नगर निगम के स्तर पर या फिर स्कूल के ही स्तर पर लिए जाते हैं और इसमें अभिभावकों की भागीदारी भी काफी अहम होती है.”

इसकी वजह से ओईसीडी के प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट यानी पीआईएसए की रैंकिंग में फिनलैंड ने पढ़ने, गणित और विज्ञान में औसत से बेहतर प्रदर्शन किया है.