कश्मीर में सरपंच क्यों हैं आतंकियों के निशाने पर
१७ जून २०२०सरपंच अजय पंडिता जब तक जिंदा थे तब तक उन्होंने जम्मू-कश्मीर प्रशासन को इस बारे में आगाह करने की बहुत कोशिश की थी कि उनकी और कश्मीर में दूसरे कई सरपंचों की जान को आतंकवादियों से खतरा है. उनकी जान तो नहीं बच सकी लेकिन उनकी हत्या के बाद भी घाटी में दूसरे सरपंच अभी भी आतंक से ग्रसित हैं. पंडिता की हत्या के लगभग एक हफ्ते बाद सामने आए एक महिला सरपंच को धमकाए जाने वाले वीडियो ने कश्मीर में सरपंचों पर मंडराते खतरे की ओर ध्यान खींचा है.
घाटी में सरपंच पहले भी आतंकवादियों के निशाने पर रहे हैं. पूर्ववर्ती जम्मू और कश्मीर राज्य में नब्बे के दशक के बाद आतंकवाद में कुछ कमी आने के बाद 2008 में हुए पहले विधान सभा चुनावों में लगभग 60 प्रतिशत मतदान देखा गया. इसे राज्य की जनता पर आतंकवाद और अलगाववाद की पकड़ कमजोर होने का और लोगों के मन में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति विश्वास के बढ़ने का संकेत माना जाने लगा.
इसी क्रम में 2011 में राज्य में 30 सालों में पहली बार पंचायत चुनाव कराए गए थे, जिनमें 43,000 सरपंच और पंचायत सदस्य निर्वाचित हुए थे. चुनावी प्रक्रिया का इस तरह कश्मीर में मजबूत होना वहां सक्रिय आतंकवादी संगठनों को रास नहीं आ रहा था. आतंकवादियों ने स्थानीय चुनावों का विरोध किया और उनमें हिस्सा लेने वालों को धमकियां दीं.
फिर लौटा हत्याओं का चक्र
उनके निर्वाचित होने के तुरंत बाद ही कश्मीर में जगह जगह उन्हें इस्तीफा देने की हिदायत देते हुए पोस्टर सामने आने लगे और जब इस्तीफे नहीं दिए गए तो उनकी हत्या होने लगी. कम से कम सात सरपंच और पंचायत सदस्य मारे गए. इतनी हत्याएं देख बाकी पंच और सरपंच भी घबरा गए और सैकड़ों ने आखिरकार इस्तीफा दे ही दिया.
श्रीनगर में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार जफर इकबाल कहते हैं कि घाटी में आतंकवादियों द्वारा हत्याओं के "साइकिल" होते हैं, जैसे कभी सरपंचों को मारा जाता है, कभी दूसरे राजनीतिक कार्यकर्ताओं को तो कभी सुरक्षाकर्मियों को. तो क्या एक बार फिर घाटी में ऐसा साइकिल शुरू हो गया है?
जब अक्टूबर 2018 में घाटी में पंचायत चुनाव कराए गए तब राज्य की स्थानीय पार्टियां चुनाव कराने के समर्थन में नहीं थीं क्योंकि राज्य में कई महीनों से राष्ट्रपति शासन लागू था और ये अटकलें भी थीं कि केंद्र सरकार संविधान के आर्टिकल 35ए के तहत जम्मू और कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा भी हटाने वाली है. नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के चुनावों को बहिष्कार करने की वजह से मतदान भी बहुत कम रहा और कई जगहों पर बीजीपी के उम्मीदवार निर्विरोध ही जीत गए.
सरपंचों की कोई पूछ नहीं
गांदेरबल जिले की कंगन तहसील में मामर गांव के सरपंच नजीर अहमद राणा ने डीडब्ल्यू को बताया कि पिछले चार सालों में 10 सरपंचों और पंचायत सदस्यों की हत्या हो चुकी है और अभी भी सभी सरपंचों को लगातार धमकियां मिल रही हैं. बल्कि उन्होंने इस बात पर ध्यान दिलाया कि सभी सरपंच दोहरे संकट में फंस गए हैं क्योंकि एक तरफ तो उनकी जान को खतरा है और दूसरी तरफ प्रशासन भी उनकी सुन नहीं रहा है.
राणा ने बताया कि सभी सरपंचों ने प्रशासन से अपने लिए सुरक्षा का इंतजाम करने की मांग की है लेकिन उनकी "सुनने वाला कोई नहीं है". उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि चुनाव के पहले प्रशासन ने सभी उम्मीदवारों से वादा किया था कि उन्हें आठ लाख का बीमा मिलेगा, लेकिन चुनाव के बाद ये वादे पूरे नहीं किए गए. राणा कहते हैं कि चुने हुए जन-प्रतिनिधि होने और बीजेपी से जुड़े होने के बावजूद उनकी तरफ सरकार का ध्यान ना के बराबर है.
उन्होंने बताया कि उन्होंने और दूसरे सरपंचों ने पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मालिक और मौजूदा लेफ्टिनेंट गवर्नर जी सी मुर्मू से कई बार मिलने की कोशिश की लेकिन उन्हें मिलने का समय नहीं दिया गया. राणा का कहना है कि अगर हालात ऐसे ही रहे तो सभी सरपंचों को मजबूर हो कर इस्तीफा देना ही पड़ेगा.
ऐसी ही शिकायत कुलगाम जिले में सरपंच विजय रैना ने भी ट्विटर पर की. रैना भी बीजेपी से ही जुड़े हुए हैं और अपना परिचय जिले में पार्टी के प्रवक्ता के रूप में भी देते हैं.
अजय पंडिता की हत्या के बाद प्रशासन में हरकत हुई है. पंडिता के परिवार को बीस लाख रुपये की अनुग्रह राशि देने की घोषणा की गई है. सरपंच राणा ने बताया कि इसके पहले बीजेपी से ही जुड़े एक और सरपंच की हत्या हुई थे लेकिन उसके परिवार को सिर्फ एक लाख रुपए दिए गए. उन्होंने यह भी बताया कि उससे भी पहले जिसकी हत्या हुई थी उसके परिवार को तो अनुग्रह राशि अभी तक नहीं मिली है.
देखना यह है कि इस बार प्रशासन का कदम क्या सिर्फ अनुग्रह राशि देने तक सीमित रहेगा या सरपंचों की सुरक्षा के कुछ इंतजाम भी किए जाएंगे.
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