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समाज

कोरोना के कारण काशी की आग भी मद्धिम

समीरात्मज मिश्र
२० अप्रैल २०२०

वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर अनवरत जलने वाली चिता की आग भी इन दिनों मद्धिम पड़ गई है. कोरोना वायरस के कारण चल रहे तालाबंदी के दौर में यहां बहुत कम शव अंतिम संस्कार के लिए आ रहे हैं.

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Indien Krematorium Manikarnika Ghat in Varanasi
तस्वीर: DW/V. Dubey

हिन्दू धर्म में आस्था रखने वाले तमाम लोगों की चाहत होती है कि उनकी मृत्यु काशी में हो और गंगा नदी के किनारे स्थित मणिकर्णिका घाट पर उनकी चिता जले. यही कारण है कि बनारस के इस घाट पर चौबीसों घंटे चिताएं जलती रहती हैं और दुनिया में शायद ही ऐसी कोई जगह हो जहां हर दिन यहां से ज्यादा अंतिम संस्कार होते हों.

पिछले क़रीब तीन हफ़्तों से बनारस के मणिकर्णिका घाट पर भी सन्नाटा पसरा हुआ है. जहां हर रोज़ क़रीब दो सौ चिताएं जला करती थीं, वहां दिन भर में दस चिताओं का जलना भी दुश्वार हो गया है. मणिकर्णिका घाट के पास मैदागिन के रहने वाले पुष्प व्यवसायी दिनेश कुमार कहते हैं, "कोरोना के कारण जब जिंदा आदमी घर से नहीं निकल रहा है तो मुर्दा यहां तक कैसे आ पाएगा?”

दिनेश कुमार ने यह बात हंसते हुए कही लेकिन सच्चाई यही है. कोरोना संकट के बाद देश भर लागू हुए लॉकडाउन के चलते पिछले 24 मार्च से यहां लोगों का आना रुक सा गया है. बनारस में गंगा किनारे चौरासी घाट हैं जिनमें दो घाटों- हरिश्चंद्र घाट और मणिकर्णिका घाट पर शवों का अंतिम संस्कार किया जाता है. अन्य घाटों पर सुबह-शाम गंगा-स्नान करने वालों और पूजा-पाठ करने वालों से रौनक रहती थी तो इन दो घाटों पर अंतिम संस्कार के लिए जलती चिताओं से हर वक्त रोशनी रहा करती थी. फिलहाल ना तो दूसरे घाटों पर पुरानी रौनक है और ना ही यहां चिताओं की ज्वाला पहले जैसी है. 

Indien Krematorium Manikarnika Ghat in Varanasi
तस्वीर: DW/V. Dubey

इन घाटों पर अंतिम संस्कार कराने वाले मुख्य लोग डोम राजा के परिवार से आते हैं. इसी परिवार के एक सदस्य पंकज चौधरी कहते हैं, "बनारस के अलावा आस-पास के जिलों से भी तमाम लोग यहां शव लेकर आते थे लेकिन इस समय सभी जिलों की सीमाएं सील हैं और लोगों का आना-जाना बंद है. इसलिए कोई शव लेकर यहां आ ही नहीं रहा है. यहां तक कि बनारस के लोग भी अपने घरों के आस-पास ही शवों का अंतिम संस्कार कर ले रहे हैं. शव ना जलने से यहां करीब तीन सौ परिवारों के सामने भुखमरी का संकट आ गया है.”

पंकज चौधरी के मुताबिक, समस्य सिर्फ शवों का यहां ना आना ही नहीं है, बल्कि दूसरी समस्या यह भी है कि जो शव यहां आ भी रहे हैं, उनके अंतिम संस्कार के लिए संसाधन नहीं हैं. पंकज चौधरी के मुताबिक, स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि बाजार में कफन तक नहीं मिल रहा है.

मणिकर्णिका घाट के पास ही लकड़ी की दुकान लगाने वाले रामवीर मल्लाह कहते हैं, "हमारे पास लकड़ियों का जो स्टॉक था वो अब खत्म होने वाला है. दूसरी सामग्री भी जिनकी अंतिम संस्कार में जरूरत होती है, वो नहीं मिल रही है. दो हफ्ते तक तो जमा सामान से काम चलाते रहे लेकिन अब मिल नहीं रहा है और दूसरी जगहों से हम ला नहीं सकते.”

हिन्दू धर्म में मान्यता है कि काशी में मरने से मोक्ष की प्राप्ति होती है. यही कारण है कि काशी यानी बनारस के रहने वाले तो यहीं मरने की इच्छा रखते ही हैं, देश के अन्य हिस्सों और विदेशों से भी तमाम लोग वृद्धावस्था में यहां आकर इसीलिए रहने लगते हैं कि उनकी मृत्यु काशी में ही हो. पंकज चौधरी बताते हैं कि हर दिन जो आठ-दस लाशें यहां जलने के लिए आती भी हैं, उनमें कुछेक लावारिस लाशें भी होती हैं जिनका दाह-संस्कार हम लोग अपने खर्च पर करते हैं.

लॉकडाउन के कारण सिर्फ आवश्यक सेवाओं के लिए लोगों को आने-जाने की छूट दी गई है, बाकी सड़कों पर चलना पूरी तरह से प्रतिबंधित है. पहले यह लॉकडाउन 14 अप्रैल तक के लिए था लेकिन बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी अवधि बढ़ाते हुए तीन मई तक कर दी. हालांकि अंतिम संस्कार के लिए लोगों को नियमों के तहत शव ले जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है, फिर भी लोग ज्यादा दूर जाने से परहेज कर रहे हैं.

Indien Krematorium Manikarnika Ghat in Varanasi
तस्वीर: DW/V. Dubey

वाराणसी जिला प्रशासन का कहना है, "शवों के अंतिम संस्कार को लेकर कोई रोक-टोक नहीं है. लोग अभी भी शवों को लेकर आ रहे हैं और अंतिम संस्कार कर रहे हैं. बाहर से आने वाले शवों के लिए भी कोई रोक-टोक नहीं है. लोगों से यही अपील की जा रही है कि अंतिम संस्कार के लिए ज्यादा भीड़ ना लाएं और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करें.”

मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट पर बड़ी संख्या में शवों के दाह संस्कार होने के चलते तमाम लोगों का यहां रोजगार भी चलता है. बहुत से लोग तो घाटों पर ही दिहाड़ी मजदूरी करते हैं लेकिन शवों की संख्या में भारी कमी के चलते उनके सामने भी संकट है. मणिकर्णिका घाट पर ही काम करने वाले मुन्नीलाल कहते हैं, "एक शव को जलाने पर हमें 100-150 रुपये मिल जाते थे और दिन भर में चार-पांच शव जलाने में हम मदद करते थे. लेकिन अब तो पूरे घाट पर ही इतने शव आ रहे हैं. कई लोग घाट छोड़कर दूसरी जगहों पर चले गए हैं.”

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर कौशल किशोर कहते हैं, "इन घाटों पर होने वाले दाह संस्कार को ना तो बाढ़ रोक पाई, ना आंधी-पानी रोक पाए और न ही कभी कोई महामारी रोक पाई. लेकिन यह पहली बार है जब मणिकर्णिका घाट पर सन्नाटा है और लोग यहां आने से भी डर रहे हैं.”

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