जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक सरगर्मियां
२२ नवम्बर २०१८अपवादस्वरूप ही राज्यपालों ने अपने संवैधानिक पद की गरिमा और जिम्मेदारी के अनुरूप काम किया है. अमूमन नाजुक वक्त में वे केंद्र सरकार के एजेंट की भूमिका निभाते हैं. और अगर जम्मू-कश्मीर के कुछ ही समय पहले राज्यपाल बने सत्यपाल मलिक ने भी यही किया, तो इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है.
जैसे ही राज्य में भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध तैयार हो रहे पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के महागठबंधन की सरकार बनने की संभावना प्रबल हुई, वैसे ही उन्होंने विधानसभा भंग कर दी. उनका कहना था कि यदि परस्पर विरोधी विचारधाराओं वाले दल मिलकर सरकार बनाते हैं तो वह स्थाई सिद्ध नहीं होगी और इससे सेना एवं सुरक्षा बालों को मदद नहीं मिलेगी.
जून में जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को निलंबित करके वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था क्योंकि सत्तारूढ़ गठबंधन में से भारतीय जनता पार्टी निकल गई थी और मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की पीडीपी अकेली रह गई थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार उसी समय विधानसभा को भी भंग कर सकती थी लेकिन उसने ऐसा न करके उसे मात्र निलंबित किया.
यह कदम तब उठाया जाता है जब यह उम्मीद हो कि वर्तमान विधानसभा के भीतर से नई सरकार के गठन की संभावना है, भले ही उसमें कुछ वक्त लगे. सरकार के गठन में विचारधारा की भूमिका तो तभी खत्म हो गई थी, जब आतंकवादियों के प्रति नर्म रुख के लिए जानी जाने वाली पीडीपी और अपने को सबसे बड़ी देशभक्त पार्टी बताने वाली बीजेपी ने एक-दूसरे के साथ हाथ मिलाकर सरकार बना ली थी. इसलिए मलिक का यह तर्क किसी के भी गले नहीं उतर सकता.
दो विधायकों वाली पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के नेता और आतंकवाद के पूर्व समर्थक सज्जाद लोन के साथ बीजेपी की काफी समय से बात चल रही थी. पार्टी के पास जम्मू से 25 विधायक थे. बहुमत के लिए उन्हें कम से कम 17 अन्य विधायकों के समर्थन की जरूरत थी. जाहिर है कि ये विधायक अन्य पार्टियों को तोड़कर ही जुटाए जा सकते थे.
कश्मीर मुद्दे की पूरी रामकहानी
पीडीपी के वरिष्ठ नेता मुजफ्फर बेग के लोन की तरफ झुकाव के सार्वजनिक होने से बीजेपी को जो आशा बंधी थी, वह महबूबा मुफ्ती, फारूक अब्दुल्ला और गुलाम नबी आजाद के बीच बीजेपी विरोधी महागठबंधन बनाकर नई सरकार बनाने पर सहमति बनते ही समाप्त हो गई. नतीजतन तुरत-फुरत विधानसभा को भंग कर दिया गया. हालांकि महागठबंधन बनाने वाले दल शुरू से ही मांग कर रहे थे कि विधानसभा को तत्काल भंग करके चुनाव कराए जाएं, लेकिन उसे तब तक भंग नहीं किया गया जब तक बीजेपी को नई सरकार बनाने की उम्मीद रही.
विधानसभा भंग होने से राज्य की राजनीतिक बिसात एक बार फिर से बिछाई जा रही है. नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह ने स्पष्ट कर दिया है कि उनकी पार्टी पीडीपी के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ेगी. कांग्रेस का रुख अभी स्पष्ट नहीं है लेकिन लगता है कि वह भी अकेले ही लड़ेगी. पीडीपी का आतंरिक विद्रोह दब जाएगा या और भी अधिक उग्र होकर उभरेगा, कहा नहीं जा सकता. यानी जम्मू-कश्मीर राज्य की राजनीति एक बार फिर अस्थिरता की ओर बढ़ चली है.
इसी बीच भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और जम्मू-कश्मीर मामलों के प्रभारी राम माधव ने दूसरों की देशभक्ति पर संदेह करने की संघ परिवार की परंपरा का पालन करते हुए यह आरोप लगा कर राजनीतिक तापमान और भी बढ़ा दिया है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी पाकिस्तान के इशारे पर काम कर रहे हैं. उमर अब्दुल्लाह द्वारा इसे साबित करने की चुनौती दिए जाने पर उन्होंने इस पर लीपापोती करने की कोशिश की लेकिन अब्दुल्लाह इस पर कानूनी कार्रवाई करने की सोच रहे हैं. यानी कुल मिलाकर राज्य का राजनीतिक परिदृश्य बेहद दिलचस्प और अनेक प्रकार की संभावनाओं से भरा लगने लगा है.
कहां कहां है आजादी की मांग