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कैसा था "ग्रेट डिप्रेशन" - दुनिया का सबसे बड़ा आर्थिक संकट?

१६ अप्रैल २०२०

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, आईएमएफ ने कहा है कि कोरोना महामारी के चलते दुनिया ग्रेट डिप्रेशन के बाद का सबसे बड़ा आर्थिक संकट देखने जा रही है. क्या हुआ था आज से करीब 90 साल पहले ग्रेट डिप्रेशन के दौरान?

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USA Wirtschaft Börsenkrach 1929 Börsenspekulant bietet Auto zum Verkauf an
तस्वीर: ullstein bild

20वीं सदी के शुरुआती साल पश्चिमी जगत के लिए काफी मुश्किल भरे रहे. 1914 से 1918 के बीच पहला विश्व युद्ध लड़ा गया. जंग के खत्म होने से लोगों ने राहत की सांस ली ही थी कि 1918 में फ्लू महामारी फैल गई. स्पेनिश फ्लू के नाम से मशहूर हुई इस महामारी ने करीब पांच करोड़ लोगों की जान ली. इन दोनों ही घटनाओं का अमेरिका पर भारी असर हुआ. लेकिन 1920 का दशक अमेरिकी लोगों के लिए समृद्धि ले कर आया. 1920 से 1929 के बीच देश की संपत्ति दोगुनी हो चुकी थी. पहली बार गांवों में कम और शहरों में ज्यादा लोग रहने लगे थे. पूंजीवाद का उत्थान हो रहा था. देश भर में चेन स्टोर खुल गए थे, लोगों की खर्च करने की क्षमता बढ़ गई थी और इसने उनके जीने के तरीकों को ही बदल दिया था. चाहे रेडीमेड कपड़े हों या रसोई में इस्तेमाल के उपकरण, वॉशिंग मशीन या वैक्यूम क्लीनर, अमेरिकी लोग सामान खरीदते नहीं थक रहे थे. समृद्धि के इस दौर को इतिहास में "रोरिंग ट्वेंटीज" का नाम दिया गया.

यह वह दौर था जब अमेरिका में लोगों ने कारें खरीदना शुरू किया था. बीस के दशक के अंत तक हर पांच अमेरिकियों पर सड़कों पर एक कार मौजूद थी. लेकिन इतना सब खरीदने के लिए लोगों के पास पैसा कहां से आ रहा था? दरअसल अमेरिकी बैंकों ने लोगों को "क्रेडिट" यानी लोन लेना सिखा दिया था. लोगों के लिए यह किसी करिश्मे से कम नहीं था. एक दूसरा करिश्मा था स्टॉक मार्केट. पैसा लगाओ, इंतजार करो और उसे बढ़ता हुआ देखो. देश के बड़े बड़े व्यवसायी हों, नौकरीपेशा लोग या फिर झाड़ू पोछा करके अपना गुजारा चलाने वाले, हर कोई स्टॉक मार्केट में निवेश करना चाहता था. शेयर बाजार इस कदर बढ़ता चला गया कि अगस्त 1929 में यह अपने शिखर तक पहुंच चुका था.

USA Wirtschaft Börsenkrach 1929 Überschrift Zeitung New York Times
एक दिन मे 16 लाख शेयर बिकेतस्वीर: ullstein bild - Granger Collection

खुशहाली के बाद मंदी

और फिर इस खुशहाल देश में कुछ बदल गया. अगस्त 1929 तक बैंकों के ऊपर इतना कर्ज चढ़ गया था कि उन्हें चुकाना मुमकिन नहीं रह गया था. अब लोगों की खरीदने की क्षमता कम होने लगी थी. बाजारों में सामान नहीं बिक पा रहा था. इस कारण उत्पादन गिरने लगा और बेरोजगारी बढ़ने लगी. इस हाल में महंगाई भी बढ़ गई. 24 अक्टूबर 1924 को घबराहट में आ कर निवेशकों ने इतने शेयर बेच डाले कि स्टॉक मार्केट क्रैश हो गई. यह दिन इतिहास में "ब्लैक थर्सडे" के नाम से जाना गया. इस दिन रिकॉर्ड 1.29 करोड़ शेयर खरीदे बेचे गए. इसके पांच दिन बाद 29 अक्टूबर को निवेशकों में और भी ज्यादा असमंजस दिखा. "ब्लैक ट्यूजडे" के दिन पहले से भी ज्यादा 1.6 करोड़ शेयर बेचे गए. लाखों शेयर कौड़ियों के भाव पहुंच गए.

बाजार में हुई इस गहरी उथल पुथल के नतीजे में कई फैक्ट्रियां बंद हो गईं, लाखों की तादाद में नौकरियां गईं. जो नौकरियां बची भी उनके भी वेतन में भारी कटौती हुई. बैंक से लोन लेकर आलीशान जिंदगी जी रहे लोग अब कर्ज में डूब गए थे. 1930 में 40 लाख अमेरिकी बेरोजगार हो चुके थे. 1931 आते आते यह संख्या बढ़ कर 60 लाख हो गई थी. देश का औद्योगिक उत्पादन आधा हो चुका था. किसानों का यह हाल था कि फसल कटवाने के लिए मजदूरों को देने के लिए भी पैसे नहीं बचे थे. ऐसे में किसान खेतों में ही फसल को सड़ता छोड़ने पर मजबूर थे. एक तरफ भूखे लोग जिनके पास खाना खरीदने के लिए पैसा नहीं और दूसरी ओर खेतों में बर्बाद होता अनाज.

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ब्लैक थर्सडे के बाद दफ्तरों में सोए बैंकों के कर्मचारीतस्वीर: ullstein bild

गांवों से लोगों का पलायन

हालात तब और खराब हो गए जब 1930 में देश में भीषण सूखा पड़ने के कारण और लोगों की जान गई. इस दौरान काम की तलाश में गांवों से शहरों में बड़े पैमाने पर पलायन हुआ. लेकिन इस सबके बीच राष्ट्रपति हरबर्ट हूवर लगातार यही कहते रहे कि वक्त के साथ साथ आर्थिक संकट खत्म हो जाएगा. पर ऐसा हुआ नहीं. 1933 तक देश में हजारों बैंकों को ताला लग चुका था. इस दौरान एक प्लान यह बनाया गया कि सरकार बैंकों को लोन दे और बदले में बैंक कंपनियों को लोन दें ताकि नौकरियां बचाई जा सकें. लेकिन रिपब्लिकन हूवर इसके खिलाफ थे. उनका मानना था कि सरकार का काम नौकरियां पैदा करना या नागरिकों को आर्थिक सहयोग देना नहीं होता.

जनता को अब हूवर से कोई उम्मीद नहीं थी. अमेरिकी लोगों ने डेमोक्रेट फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट को अपना नया राष्ट्रपति चुना. 1933 में जब रूजवेल्ट ने देश की कमान संभाली तब अमेरिका की 20 फीसदी से ज्यादा आबादी बेरोजगार थी. रूजवेल्ट ने ऐसे कई कार्यक्रम चलाए जिनसे लोगों को रोजगार दिया जा सके. उन्होंने देश में सोशल सिक्यूरिटी एक्ट भी लागू कराया. उनके प्रयासों से अर्थव्यवस्था कुछ कुछ संभाली लेकिन 1930 के दशक के अंत तक देश मंदी से उभर नहीं पाया.

Arbeitslose in Berlin um 1930 / Foto - - Chômeurs à Berlin v. 1930 / Photo
जर्मनी में ताश खेलते बेरोजगारतस्वीर: picture-alliance/akg-images

जर्मनी और भारत पर भी असर

अमेरिका से शुरू हुआ यह ग्रेट डिप्रेशन दुनिया भर में फैला. ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा, जापान और यहां तक कि भारत पर भी इसका असर पड़ा. मंदी के इस दौर ने लोगों के जीवनस्तर को तो बदला ही, उनकी राजनीतिक विचारधारा पर भी असर पड़ने लगा था. यूरोप के कई देशों में इस दौरान उग्र दक्षिणपंथ का उदय हुआ. यह वही काल था जिसमें हिटलर ने जर्मनी की बागडोर अपने हाथों में ली. 1932 में हिटलर की नाजी पार्टी जर्मन संसद में पहुंचने वाली सबसे बड़ी पार्टी बनी. छह महीने बाद हिटलर को चांसलर बनाया गया. राजनीतिक तौर पर यह यूरोप और पूरी दुनिया के लिए एक महत्वपूर्ण बदलाव था. एक ऐसा बदलाव जिसका नतीजा 1939 में यूरोप में जंग के रूप में सामने आया. दस साल तक चला मंदी का दौर दूसरे विश्व युद्ध के आगाज के साथ खत्म हुआ.

इस बीच अमेरिका हिटलर के खिलाफ फ्रांस और ब्रिटेन का साथ देने का फैसला कर चुका था. जंग के लिए हथियारों की जरूरत थी. अमेरिका ने नई फैक्ट्रियां खड़ी कीं और लोगों को यहां रोजगार मिलने लगा. 1941 में पर्ल हार्बर पर जापानी हमले के साथ अमेरिका ने दूसरे विश्व युद्ध में प्रवेश किया और फैक्ट्रियों में उत्पादन पूरे जोरों पर पहुंच गया. देश मंदी के दौर से बाहर आ गया था लेकिन 1945 तक चलने वाली जंग में फंस चुका था.

Corona-Pandemie LKW-Stau im deutsch-tschechischen Grenzgebiet
लॉकडाउन के कारण सीमा पर ट्रकों की कतारेंतस्वीर: picture-alliance/dpa/CTK/M. Chaloupka

चिंतित हैं अर्थशास्त्री

सौ साल पहले की तरह आज फिर से एक महामारी फैली है. आईएमएफ घोषणा कर चुका है कि आर्थिक तौर पर इस महामारी का असर ग्रेट डिप्रेशन जैसा हो सकता है. महज एक महीने के लॉकडाउन के बीच लोगों की नौकरियां जाने लगी हैं. अगर दुनिया 2020 के अंत तक इस महामारी से नहीं उबरी तो बेरोजगारी दर कहां तक पहुंच जाएगा, अर्थशास्त्री इसका अंदाजा लगाते हुए चिंतित नजर आ रहे हैं. पिछले कुछ सालों में दुनिया के कई देशों में दक्षिणपंथी विचारधारा बढ़ी है.

जर्मनी में उग्र दक्षिणपंथी एएफडी पार्टी ने अपनी जगह बना ली है. यूरोप में जर्मनी के अलावा ऑस्ट्रिया, फ्रांस, हंगरी, इटली और स्पेन में भी उग्र दक्षिणपंथी पार्टियों की ओर लोगों का रुझान बढ़ा है. तो क्या कोरोना संकट से होने वाली आर्थिक मंदी उग्र दक्षिणपंथ को और बढ़ावा देगी? क्या एक बार फिर इतिहास खुद को दोहराएगा? अगर ऐसा हुआ तो नतीजे वायरस से भी ज्यादा भयावह हो सकते हैं.

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