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किसानों की आत्महत्याओं के बाद अधर में फंसते उनके बच्चे 

१३ नवम्बर २०१९

किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़ों को लेकर पारदर्शिता में कमी के साथ ही कम और अनियमित सरकारी सहायता राशि की वजह से बच्चों को स्कूल छोड़ना पड़ रहा है. लगभग 60,000 आत्महत्याओं के लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार माना गया है. 

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फाइल तस्वीर: Isabell Zipfel

19 वर्षीया रेणु वानखेड़े को उनके मां बाप ने शुरू से यही बताया कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में उनका परिवार जिन बुरे हालात से गुजर रहा है उनसे बाहर निकलने का शिक्षा ही एक मात्र रास्ता है. हालंकि रेणु को अब ऐसा लग रहा है कि शायद ये सच नहीं था. जून 2016 में, रेणु के पिता देवराओ ने कीटनाशक दवा पी कर आत्महत्या कर ली. कई वर्षों तक फसल लगातार खराब हो जाने के कारण उनके ऊपर करीब 51,000 रुपये का ऋण चढ़ गया था और उन्होंने उसे चुका पाने की उम्मीद छोड़ दी थी. 

उनकी मौत के लगभग तीन साल बाद तक रेणु अपने पिता के दिखाए रास्ते पर चलती रहीं और पढ़ाई करती रहीं. इस साल जब उन्होंने खुद को लगभग 3500 रुपये की सालाना फीस चुका पाने में असमर्थ पाया तो उन्होंने अपने बी ए कोर्स को छोड़ दिया. 

रेणु कहती हैं, "मैं हमेशा आगे पढ़ना चाहती थी. पर अब सवाल जिंदा रहने का है. मेरी मां को मेरी जरूरत थी ताकि मैं हमारे खेत में काम कर सकूं और हम कम से कम इतना तो कमा सकें कि अपना पेट भर सकें." भारत के पश्चिम राज्य महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में रेणु जैसी लड़कियों या लड़कों की यही कहानी है. 1997 से 2012 के बीच 2,50,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली थी. 

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फाइल तस्वीर: SARG Vikas Samiti

सरकार ने छुपाये आंकड़े 

2016 से भारत सरकार ने आत्महत्या करने वाले किसानों के आंकड़ों को एक तरह से छिपा रखा था. जुलाई 2018 में सरकार ने संसद में बताया कि 2016 में 11,370 किसानों ने आत्महत्या कर ली थी और इनमें से 3661 मामले महाराष्ट्र से थे. 

किसानों के हित में मांगें रखने वाले जानकार मानते हैं कि प्रामाणिक आंकड़ों की कमी की वजह से उनके लिए सरकार से यह मांग करना मुश्किल हो रहा है कि वो पीड़ितों के लिए और भी कुछ करे.

जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम के स्वरूप में बदलाव आ रहे हैं और इनकी वजह से कभी भारी वर्षा हो रही है तो कभी अक्सर सूखे की स्थिति बन जा रही है. इसकी वजह से इस इलाके में देवराओ जैसे किसानों को बड़ा घाटा उठाना पड़ रहा है और वे भारी कर्ज के नीचे दब जा रहे हैं.

2017 में पीएनए नाम की पत्रिका में छपे एक अध्ययन के अनुसार ऐसा अनुमान है कि भारत में लगभग 60,000 आत्महत्याएं जलवायु परिवर्तन की वजह से हुईं. 

समाज का संकट बनती कृषि की समस्या

कृषि संकट बहुत तेजी से एक सामाजिक संकट भी बनता जा रहा है. पर्याप्त सरकारी मदद की कमी, गरीबी के कुचक्र और खेती में हुए घाटे के कारण बढ़ता कर्ज का बोझ रेणु जैसे नौजवानों को पढ़ाई छोड़ने पर विवश कर रहा है. स्थानीय कार्यकर्ताओं का कहना है कि खतरनाक बात ये है कि इसकी वजह से गरीब परिवार अपने बच्चों को मजदूरी में धकेल रहे हैं और बाल श्रम को बढ़ावा मिल रहा है.

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तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M. Swarup

अंग्रेजी अखबार द हिन्दू में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार एक भारतीय एन जी ओ चाइल्ड राइट्स एंड यू (सीआरवाई) ने अनुमान लगाया था कि महाराष्ट्र में मजदूरी करने वाले बच्चों में 60.67% बच्चे कृषि में काम करते हैं. इनकी कुल संख्या कम से कम ढाई करोड़ है. 

अमरावती में महिला किसानों और उनके परिवारों के लिए काम करने वाले संगठन स्वराज्य मित्र के सह-संस्थापक राहुल बैस का मानना है कि कृषि संकट और बाल श्रम में एक मजबूत रिश्ता है. 

बैस कहते हैं, "इन हालात में बाल श्रम एक मजबूरी बन जाता है. अगर परिवारों को जिंदा रहना है, तो उन्हें छोटे बच्चों को बाल श्रम में धकेलना ही होगा". 

रेणु ने बताया कि उनके पिता की मृत्यु के बाद पैसों की बहुत दिक्कत हो गई. बहुत मेहनत करने पर भी उसे रोज का सिर्फ 102 रुपये मेहनताना ही मिल पाता था. उसकी मां मंगला को अपनी बड़ी बेटी की शादी के लिए रिश्तेदारों से कर्ज मांगना पड़ा. इसके बाद अनियमित बारिश की वजह से उसकी फसल लगातार दो साल खराब हो गई तो उसे एक कठिन फैसला लेने के लिए मजबूर होना पड़ा. 

मंगला का कहना है, "मेरी बहुत इच्छा थी कि मेरी बेटियां पढ़तीं. लेकिन मुझे कर्ज को चुकाने में संघर्ष करना पड़ रहा है और इसीलिए मुझे रेणु को कहना पड़ा कि वो पढ़ने की जगह आकर मेरी मदद करे." 

बैस कहते हैं कि इस तरह की स्थिति से बचा जा सकता था अगर सरकार रेणु के परिवार जैसे परिवारों के लिए पर्याप्त शैक्षणिक समर्थन सुनिश्चित करती. 

हाल में हुए अनुसंधान बताते हैं कि मौजूदा प्रावधान अपेक्षित लाभार्थियों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं. पिछले साल मकाम नामक किसानों के संगठनों के एक समूह ने पाया था कि सिर्फ 12 प्रतिशत बच्चों को बारहवीं कक्षा तक फीस पर मिलने वाली सरकारी छूट का लाभ मिल पाया था. सरकारी छूट पर मिलने वाली कागज-कलम का लाभ भी सिर्फ 24 प्रतिशत बच्चे उठा पाए थे.

मासिक पेंशन की उम्मीद छोड़ी

49 वर्ष की बुद्धमाला जवांजे ने आत्महत्या करने वाले किसानों की विधवाओं को मिलने वाली लगभग 600 रुपये मासिक पेंशन पर निर्भर रहना बंद कर दिया है. अमरावती जिले के बंदीपोहरा गांव की रहने वाली बुद्धमाला कहती हैं, "यह बहुत ही अनियमित है कभी तो वो हमें दो महीनों में एक बार मिलती है और कभी तीन महीनों में." 

उनके पति रामराओ ने 10 साल पहले अपने कर्ज उतारने का कोई उपाय नहीं मिलने के बाद अपने ही घर की छत से फांसी लगा ली थी. वे पीछे छोड़ गए बुद्धमाला और उनके दो बच्चों को. 

विधवाओं को अकसर संपत्ति में अपने हक के लिए संघर्ष करना पड़ता है. उसके परिवार के पास ढाई एकड़ खेत थे, लेकिन रामराओ की मृत्यु के बाद उनके पिता ने खेत बेच दिए और बुद्धमाला को उनका हिस्सा भी नहीं दिया. उन्होंने बताया, "उसकी जगह उन्होंने मेरी बेटी की शादी का खर्च उठाने का प्रस्ताव दिया." 

खेतों में मजदूरी कर के उन्हें जो लगभग 103 रुपये प्रतिदिन वेतन मिलता है उसमें बड़ी मुश्किल से उनका गुजारा हो पा रहा था. इसीलिए उन्हें अपनी बेटी प्रियंका को आठवीं कक्षा के बाद स्कूल छोड़ देने को कहना पड़ा. उनके बेटे की पढाई चलती रही. प्रियंका को एक अज्ञात बीमारी ने जकड़ लिया और वो कुछ ही महीनों बाद चल बसी. बुद्धमाला आज भी नहीं जानतीं की वो कौन सी बीमारी थी.

परिवार ने अपना एक कमाऊ सदस्य खो दिया और उसके इलाज पर हुए खर्च की वजह से परिवार पर करीब 25,000 रुपये कर्ज का बोझ लद गया. तब बुद्धमाला ने फैसला किया कि अब अक्षय को भी स्कूल छोड़ना पड़ेगा. 

अक्षय का कहना है, "मैं अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहता था. मैं ठीक-ठाक विद्यार्थी था. मैं अपनी पढ़ाई पूरी करके किसी शहर जाना चाहता था ताकि मुझे एक अच्छी नौकरी मिल सके." पढ़ाई रुक जाने की वजह से अब उसे कोई नौकरी नहीं मिल सकती. अब वो खेतों में मजदूरी करता है और एक दिन की मजदूरी में 150-200 रुपये कमाता है.

इसके बावजूद उसका परिवार आज भी बुरे हालात में है. उसे और उसकी मां को हफ्ते में सिर्फ दो दिन काम मिल पाता है. जब भी सूखे या अतिवृष्टि की वजह से फसल बर्बाद होती है तो मजदूरी का भी अभाव हो जाता है. 

अमरावती के जिला कलेक्टर शैलेश नवल ने बताया कि सरकार मौजूदा योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन के तरीके ढूंढ रही है. उन्होंने कहा, "हम हेल्पलाइन जैसी प्रणालियां बना रहे हैं जिनके जरिये लोग हमें फोन करके बता सकते हैं कि हमारी योजनाएं उन तक पहुंची या नहीं." अक्षय और रेणु जैसे युवाओं के लिए परिवार का पेट भरने के लिए कमाने और शिक्षा पाने के बीच और कोई विकल्प नहीं रह जाता. 

सीके/एनआर(रॉयटर्स)

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