कश्मीरी पंडित घाटी से फिर क्यों पलायन करने को मजबूर हैं
८ जुलाई २०२२कश्मीर में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं और स्थानीय भाषा में उन्हें पंडित कहा जाता है. 1989 में राहुल भट्ट की उम्र पांच साल थी जब उनका परिवार कश्मीर के बडगाम से भागकर जम्मू स्थित शरणार्थी शिविर में आ गया था. उस वक्त आतंकवादी घटनाओं के उभार ने हजारों हिन्दू परिवारों को वहां से पलायन करने पर मजबूर कर दिया था.
इस क्षेत्र में जैसे-जैसे आतंकी घटनाएं बढ़ती गईं, भट्ट के परिवार की तरह हजारों कश्मीरी पंडितों ने समुदाय के प्रमुख लोगों की हत्या के बाद वहां से भागना शुरू किया.
2011 में वापस आये पंडित
उन्हें भीषण ठंड में जम्मू के अंधेरे तंबुओं में रहना पड़ा जहां खतरनाक सांपों के काटने का डर बना रहता था. करीब दो दशक तक निर्वासन में रहने के बाद साल 2011 में राहुल भट्ट तब कश्मीर लौट आए जब भारत सरकार ने पलायन कर गए पंडितों को वापस लौटने के एवज में नौकरियों और घर के लिए एक भारी-भरकम पैकेज की घोषणा की.
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राहुल भट्ट शेखपुरा में बनाए गए शिविर में रहने लगे जहां उनके साथ 350 परिवार रह रहे थे. शेखपुरा, वापसी करने वाले हिन्दुओं के लिए बनाए गए उन छह प्रमुख शिविरों में से एक था जिन्हें कड़ी सुरक्षा दी गई थी.
पुनर्वास योजना के तहत करीब छह हजार कश्मीरी पंडितों को नौकरी दी गई और इस वजह से हिंदुओं में घर वापसी करने का भरोसा जगा.
इस साल 12 मई को दो बंदूकधारी आतंगवादी बडगाम जिले में भट्ट के दफ्तर पहुंचे और गोली मारकर उनकी हत्या कर दी.
नौकरी से ज्यादा जरूरी जिंदगी
हत्या के पीछे द रेजिस्टेंस फ्रंट का हाथ बताया जा रहा है जो कि लश्कर-ए-तैयबा की ही एक शाखा है. टीआरएफ उन बाहरी लोगों को हत्या की धमकी देता रहता है जो केंद्र सरकार की योजना के तहत कश्मीर में वापसी कर रहे हैं और यहां की डेमोग्राफी को बदलना चाहते हैं.
इस संगठन ने उन सभी गैर-कश्मीरी लोगों को मारने की धमकी दी है जो इस इलाके में बसने के लिए आ रहे हैं. टीआरएफ इन लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस का एजेंट कहता है.
भट्ट की हत्या के विरोध में कश्मीरी पंडितों ने प्रदर्शन शुरू कर दिए. इनमें से कई सरकारी कर्मचारी थे और हमले के डर से अपने दफ्तरों में भी नहीं जा रहे थे.
विकास हांगलू ने डीडब्ल्यू को बताया, "नौकरी से ज्यादा जरूरी हमारे लिए परिवार और जिंदगी है. जब तक सरकार हमें कश्मीर के बाहर सुरक्षित जगह पर नहीं तैनात करती है, हम लोग ड्यूटी पर नहीं जाएंगे.”
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कश्मीरी लोग मोदी सरकार पर लंबे समय से आरोप लगा रहे हैं कि वो इस मुस्लिम बहुल इलाके में हिन्दुओं को बसा कर यहां की डेमोग्राफी को बदलना चाहती है. मोदी सरकार ने अगस्त 2019 में यहां की सीमित स्वायत्ता को समाप्त करने और अक्टूबर 2020 में नए भूमि कानून लाने संबंधी फैसलों लिए तो इन आशंकाओं को और मजबूती मिली. इन दोनों फैसलों से स्थानीय लोगों में खलबली मच गई.
आतंकी समूहों ने इस ‘डेमोग्राफी में बदलाव' के भय को हथियार बनाकर धार्मिक अल्पसंख्यकों, भारत-समर्थक मुसलमानों और दूसरे राज्यों से आए श्रमिकों को निशाना बनाना शुरू किया. राहुल भट्ट भी उन 19 नागरिकों में से एक हैं जो इस साल आतंकवादियों की गोली का शिकार हुए. मारे गए ज्यादातर लोग मुस्लिम हैं.
हिंदुओं में भय?
नागरिकों की हत्या की इन ताजातरीन घटनाओं ने कश्मीरी पंडितों में खौफ पैदा कर दिया. साल 2009 में आई सरकार की विशेष योजना के तहत नौकरी कर रहे ज्यादातर कश्मीरी पंडित आतंकी हमलों के डर से कश्मीर छोड़ चुके हैं. यहां तक कि वो 800 हिन्दू परिवार अब कश्मीर छोड़ने की तैयारी कर रहे हैं जो 1990 में भी नहीं गए और हिंसक आतंकवादी माहौल में वो कश्मीर में ही रहे. हालांकिबढ़ती आतंकवादी घटनाओं के चलते अब वो भी कश्मीर छोड़ने पर विवश हो रहे हैं.
पिछले चार साल से कश्मीर में कोई भी चुनी हुई सरकार नहीं है. यहां का शासन केंद्र सरकार की ओर से नियुक्त किए गए गवर्नर मनोज सिन्हा चला रहे हैं. कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष संजय टिकू कहते हैं कि इसी वजह से यहां एक राजनीतिक शून्यता बनी हुई है, नागरिक समाज निष्क्रिय है और आम आदमी अपनी आवाज उठा नहीं पा रहा है.
आम नागरिकों, खासकर अल्पसंख्यक हिंदुओं की हत्या की शुरुआत पिछले साल अक्टूबर में हुई थी जब सशस्त्र आतंकवादियों ने श्रीनगर में कश्मीर के जाने-माने केमिस्ट माखन लाल बिन्द्रू की हत्या कर दी थी. साल 2003 के बाद किसी गैर-प्रवासी कश्मीरी की यह पहली हत्या थी.
टिकू भी इस घटना के बाद से अपने घर के बाहर नहीं गए हैं. वो श्रीनगर के बर्बरशाह इलाके में रहते हैं और पुलिस ने उनसे कहा कि उनकी जान को आतंकवादियों से खतरा है इसलिए वो बाहर ना निकलें.
उन्होंने कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है जिसमें सरकारी अधिकारियों पर कश्मीर में धार्मिक अल्पसंख्यकों की जान जोखिम में डालने का आरोप लगाया गया है.
आम आदमी अकेला पड़ गया
वो कहते हैं, "कश्मीर में आम आदमी बहुत डरा हुआ है. पहले मुस्लिम समुदाय के लोग हमारी समस्याओं में हमारे साथ खड़े रहते थे लेकिन अब उन्हें भी डर लगा रहता है कि कहीं सरकार उन्हें गिरफ्तार ना कर ले. कोई भी मदद करने वाला नहीं है.”
राहुल भट्ट की हत्या के बाद कश्मीर से पलायन करने वाले अश्विनी साधू कहते हैं, "पहले हम लोग यहां सुरक्षित महसूस कर रहे थे लेकिन अब कश्मीर में बहुत ही भयावह माहौल बन गया है जैसा पहले कभी नहीं था.”
साधु कहते हैं, "हमें नहीं पता कि हम कश्मीर में किससे बात करें. पहले, इन स्थितियों में अलगाववादी नेता कश्मीरी पंडितों के लिए लोगों के पास जाते थे लेकिन अब यहां कोई नहीं है मदद के लिए.”
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पुलिस महानिरीक्षक विजय कुमार कहते हैं कि इस साल अब तक 118 आतंकवादी मारे गए हैं जिनमें 32 विदेशी लड़ाके शामिल हैं. पिछले साल इसी अवधि में सिर्फ 55 आतंकवादी मारे गए थे. इससे यह संकेत मिलता है कि इस एक साल के दौरान आतंकवादी घटनाओं में कितनी बढ़ोत्तरी हुई है.
आकांक्षा कौल एक कश्मीरी पंडित टीचर हैं. वो कहती हैं, "कश्मीर किसी के लिए इस समय सुरक्षित नहीं है. हमारा परिवार भी यहां से जाने की तैयारी कर रहा है.”
35 साल की आकांक्षा कहती हैं कि अज्ञात लोगों के हाथों चुन-चुनकर की रही नागरिकों की हत्या ने यहां के लोगों में अभूतपूर्व भय और असुरक्षा का माहौल बना दिया है. वो कहती हैं, "पहले, हम नागरिकों और आतंकवादियों के बीच पहचान कर लेते थे. लेकिन अब तो आतंक का जैसे कोई चेहरा ही नहीं रहा. आप पता ही नहीं कर सकते कि कौन आपकी हत्या कर सकता है और कौन आपकी रक्षा कर सकता है.”
1990 में पंडित कश्मीर छोड़कर क्यों चले गए थे?
1990 में कश्मीर में आतंकवाद के दौरान करीब दो लाख कश्मीरी पंडित घाटी छोड़कर चले गए थे. 21 अगस्त 1989 को भारत-समर्थक मुस्लिम राजनेता मुहम्मद यूसुफ हलवाई की सशस्त्र आतंकवादियों ने हत्या कर दी थी. आतंकवादियों द्वारा की गई यह पहली हत्या थी.
इसके बाद 14 सितंबर 1989 को कश्मीरी पंडित और बीजेपी के स्थानीय नेता टीका लाल टपलू की हत्या कर दी गई. 4 नवंबर 1989 को जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट यानी जेकेएलएफ के सशस्त्र आतंकवादियों ने एक रिटायर्ड जज नीलकांत गंजू की हत्या कर दी. जेकेएलएफ एक स्थानीय संगठन है जो कि कश्मीर की भारत से आजादी की मांग करता है.
ऐसे महत्वपूर्ण कश्मीरी पंडितों की हत्या ने वहां के हिन्दू अल्पसंख्यकों में भय पैदा कर दिया. 19 जनवरी 1990 को कश्मीरी पंडितों ने वहां से पलायन करना शुरू कर दिया और भारत के विभिन्न हिस्सों में अपनी सहूलियत के हिसाब से चले गए. कश्मीरी पंडित इस दिन को "निष्कासन दिवस या पलायन दिवस” के रूप में मनाते हैं.
मार्च 2010 में जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार ने विधानसभा में बताया कि 1989 से लेकर 2004 के बीच 219 कश्मीरी पंडितों की हत्या हुई है.
कश्मीर में नागरिकों की हत्या की ताजा घटनाओं से पुनर्वास की कोशिशों को धक्का लगा है.
आतंकवादियों के साथ यहां बहुसंख्यक मुसलमानों का भी कहना है कि केंद्र सरकार हिंदुओं को यहां बसा कर कश्मीर की आबादी के स्वरूप को बदलना चाहती है.
पिछले महीने, भट्ट उन आतंकवादियों का सबसे ताजा शिकार बने जो कहते हैं कि कश्मीर में बाहरी लोगों का स्वागत नहीं होगा.