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समाज

कछुओं को बचा रहें हैं ओडिशा के मछुआरे

२१ मार्च २०१८

ओडीशा के मछुआरे यहां के तटों पर आने वाले कछुओं का खास ख्याल रखते हैं. आज से कुछ साल पहले तक ये मछुआरे इन कछुओं को रोजी-रोटी कमाने में बाधा मानते थे लेकिन अब माहौल बदल चुका है.

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Indien - Schildkröten
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Sharma

बचपन से ही ओडिशा के सौम्यरंजन बिस्वाल समुद्र तट पर आने वाले इन कछुओं को देख रहे हैं. साल भर तक खुले समंदर में लंबी यात्रा के बाद घर लौटने की यह परंपरा, ऑलिव रिडले प्रजाति के कछुए दशकों से निभा रहे हैं. ओडीशा का मछुआरा समुदाय अब लुप्त हो रही इस प्रजाति की हिफाजत का खास ख्याल रख रहा है. यह इलाका मादा कछुओं को अधिक आकर्षित करता है जो कुछ सालों पहले शायद इसी समुद्र तट पर पैदा हुईं थीं.

Indien Olive Ridley Schildkröten
तस्वीर: UNI

बिस्वाल ने बताया, "हम इन कछुओं का बचपन से देख रहे हैं. अब ये कछुए हमारे दोस्त बन चुके हैं. ये रात के अंधेरों में आते हैं, समंदर तट पर गड्ढे खोदते हैं और दर्जनों अंडों को उसमें जमा कर देते हैं." अपना काम पूरा करने के बाद ये मादा कछुए समंदर में वापस चले जाते हैं. इन अंडों को सेने में करीब 50 दिनों तक का समय लगता है. लेकिन इस बीच उन पर कुत्तों और चील के हमलों का खतरा बना रहता है. कई मौकों पर समंदर में आने वाले ज्वार भाटे इसे नष्ट कर देते हैं.  

मछुआरों की कोशिश

ओडीशा के समुद्र तटों पर कछुओं की जिंदगी बचाने के लिए अब मछुआरे जोर-शोर से काम कर रहे हैं. बिस्वाल ने बांस के एक पोल को लाइट लगा कर तैयार किया है. इसका मकसद कछुओं के अंडों को जोखिम से बचाना है. अगर अंडे के किसी ठिकाने पर खतरा नजर आता है, तो बेहद ही सावधानी से उन अंडों को बाहर निकाला जाता है और सुरक्षित गड्ढों में रखा जाता है. इनकी पहचान हो सके, इसलिए वहां झंडा भी लगा दिया जाता है.

Indien - Schildkröten
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Sharma

इस काम में कई बार पूरा एक दिन भी लग जाता है. कछुओं को बचाने की कवायद में जुटे लोगों को पैसों का कोई लालच नहीं है. लोगों को इस काम के पैसे नहीं मिलते. लेकिन बिच्छू के काटने और केकड़ों के हाथ में आने का खतरा हमेशा ही बना रहता है.   

Indien - Schildkröten
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Sharma

बिस्वाल जानते हैं कि कछुए के अंडों का सुरक्षित रहना लुप्त हो रही प्रजाति के भविष्य के लिए बेहद ही जरूरी है. उन्होंने कहा, "इन कछुओं की समुद्री यात्रा भी बहुत जरूरी है. मादा कछुएं तारे और चांद की दिशाओं को समझकर उसी समुद्र तट पर आ जाती हैं, जहां वे अंडे देती हैं." बिस्वाल ने बताया कि एक वक्त पर इस समुद्र तट में 20 लाख कछुए आया करते थे और यहां अंडे देते थे, जिसे अरीबादा कहा जाता है." लेकिन जलवायु परिवर्तन के चलते समुद्री जीवन में हुए बदलावों ने इन्हें प्रभावित किया और इनकी संख्या वक्त के साथ बेहद कम हो गई.   

कछुओं से प्यार

इतनी कोशिशों के बावजूद हर साल बड़ी संख्या में यहां कछुए मर भी जाते हैं. साल 2014-16 के दौरान इस तट पर कछुओं ने कदम ही नहीं रखा और लोग इसके कारण भी नहीं जानते हैं. बिस्वाल कहते हैं, "हमारे लिए कछुए भगवान विष्णु का अवतार हैं. अगर ये मर जाते हैं या नहीं आते तो हमें लगता है कि उनका आर्शीवाद नहीं मिला."  

Indien - Schildkröten
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Sharma

कछुओं और यहां के मछुआरों के बीच हमेशा से इतना प्रेम नहीं था. साल 1997 में ओडीशा के गहीरमाथा समुद्र तट को समु्द्री वन्यजीव अभ्यारण घोषित कर दिया गया, जिसके चलते इस इलाके में मछली पकड़ने पर रोक लग गई और ये मछुआरे बेकार हो गए. गैरसरकारी संस्था ह्यूमन सोसाइटी इंटरनेशनल से जुड़े सुमंत बिंदुमाधव बताते हैं, "करीब एक साल तक यहां के मछुआरे बेकार रहे, काम न मिलने का कारण वे इन कछुओं को मानते थे. इसके चलते इन लोगों को कछुओं को बचाने के लिए प्रेरित करना बहुत मश्किल था." लेकिन लंबे समय बाद यहां काम करने वाले कार्यकर्ताओं को सफलता मिली और इन कछुओं को बचाने की जिम्मेदारी मछुआरों ने भी ले ली.

बिंदुमाधव के मुताबिक अब ये लोग इन कछुओं के साथ एक गहरा नाता महसूस करते हैं. वहीं राज्य सरकार भी विश्व बैंक के कोस्टल मैनेजमेंट प्रोग्राम के तहत प्रभावित परिवारों को 25 किलो चावल रियायती दरों पर हर महीने उपलब्ध कराती है. गांववाले कहते हैं कि रियायती दर के अलावा वह किसी नए कौशल को सीखना चाहते हैं ताकि कोई काम कर सकें. कुछ एनजीओ यहां महिलाओं की मदद के लिए स्वयं सहायता समूह चला रहे हैं. साथ ही ये संस्थाएं स्थानीय लोगों को बताती हैं कि कैसे कछुओं के अंडों को सावधानी से बचाया जाए.

एए/आईबी (एएफपी)