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शिक्षा

आरक्षण से क्यों कतरा रहे हैं भारत के टॉप मैनेजमेंट संस्थान

शिवप्रसाद जोशी
२ जनवरी २०२०

भारतीय प्रबंध संस्थानों (आईआईएम) ने केंद्र के ताजा फरमान के बाद उससे फैकल्टी की भर्तियों में आरक्षण लागू न करने की अपनी ‘छूट’ को जारी रखने की अपील की है. उनकी दलील है कि आरक्षण देने से उनकी गुणवत्ता पर असर पड़ेगा.

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Indien - Indian Institute of Management Bangalore
तस्वीर: picture-alliance/robertharding/M. Cristofori

करीब दो महीने पहले ही केंद्र सरकार ने देश के सभी 20 सार्वजनिक प्रबंध (बिजनेस) संस्थानों को कहा था कि वे अपने यहां फैकल्टी की भर्ती करते समय निर्धारित नियमों के तहत आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित करें. भारतीय प्रबंध संस्थानों का कहना है कि ऐसा करने से उनके अकादमिक और शैक्षणिक स्वरूप पर असर पड़ेगा और वैश्विक कार्यनिर्वाहन क्षमता भी प्रभावित होगी.

संस्थानों ने केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय से गुजारिश की है कि उन्हें "इन्स्टीट्यूशन्स ऑफ एक्सीलेंस” के तहत सूचीबद्ध कर दिया जाए. केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (शिक्षक कैडर में आरक्षण) अधिनियम के सेक्शन चार के तहत, "इन्स्टीट्यूशन्स ऑफ एक्सीलेंस” के तौर पर चिंहित संस्थानों, शोध संस्थानों, और राष्ट्रीय और सामरिक महत्त्व के संस्थानों की भर्तियों में आरक्षण का प्रावधान नहीं रखा गया है. इसी सेक्शन के आधार पर आईआईएम अपने लिए छूट मांग रहे हैं, बशर्ते सरकार उनको एक्सीलेंस वाली कैटगरी में ले आए.

संस्थानों का ये भी कहना है कि उनकी भर्ती प्रक्रिया पारदर्शी रहती है और उसी के तहत समाज के गैरलाभान्वित तबकों के अभ्यर्थियों को भी अवसर दिया जाता है. लेकिन वैश्विक प्रतिस्पर्धा में उतरने के लिए घरेलू आरक्षण व्यवस्था आड़े आ सकती है. क्योंकि वहां बहुत ऊंचे और कड़े पैमानों पर गुणवत्ता का निर्धारण किया जाता है. हालांकि किसी अभ्यर्थी को आरक्षण संस्थान की गुणवत्ता में गिरावट का पैमाना कैसे हो सकता है, ये स्पष्ट नहीं है.

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश के सभी आईआईएम में 90 प्रतिशत फैकल्टी भर्तियां सामान्य श्रेणी के तहत हुई हैं. आईआईएम में ये विवाद लंबे समय से रहा है और ये प्रबंध संस्थान अपनी भर्तियों में अनुसूचित जाति के अभ्यर्थियों को 15 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति को साढ़े सात प्रतिशत, ओबीसी को 27 प्रतिशत और आर्थिक रूप से कमजोर तबकों (ईडब्लूएस) को 10 प्रतिशत आरक्षण नहीं देते हैं.

खबरों के मुताबक आईआईएम अब तक 1975 के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के एक पत्र का हवाला देते आए हैं जिसमें कथित रूप से वैज्ञानिक और तकनीकी पदों की भर्तियों में आरक्षण की व्यवस्था लागू नहीं करने की बात कही गयी थी. आईआईएम का दावा है कि उनके शिक्षण पद तकनीकी प्रकृति के हैं लिहाजा वहां आरक्षण नहीं चलता. आईआईएम अहमदाबाद का तो इस बारे में हाईकोर्ट में वाद भी चल रहा है.

दूसरी ओर एक तथ्य ये भी है कि देश के सभी आईआईटी में तकनीकी विभागों में असिस्टेंट प्रोफेसर के स्तर पर आरक्षण का प्रावधान लागू है और मानविकी और प्रबंध विभागों में सभी स्तरों पर आरक्षण का प्रावधान रखा गया है. हालांकि इसका एक पहलू ये भी है कि आईआईटी में भी आरक्षण के तहत पर्याप्त भर्तियां नहीं हो पाई हैं.

पिछले साल नवंबर में सभी आईआईएम को जारी केंद्र के फरमान के मुताबिक पहले के सभी आदेश या चिट्ठियां या अधिसूचनाएं निष्प्रभावी मानी जाएंगीं. नये आदेशों के मुताबिक प्रबंध संस्थानों को आरक्षण का रोस्टर बनाना होगा और उसी रोस्टर के हिसाब से भविष्य में शिक्षकों की भर्ती करनी होगी. असल में एससी और एसटी के कल्याण के लिए गठित संसदीय समिति ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के साथ बैठके कर इन संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था को नजरअंदाज करने का मुद्दा उठाया गया था.

एक नजर में आईआईएम की दलीलें वजनदार लगती हैं लेकिन अगर ध्यान से देखें तो आखिर सिर्फ इसलिए कि लंबे समय से वहां आरक्षण लागू नहीं था इसलिए उसे अब न लागू होने दिया जाए और ऐसा हो जाने से प्रबंध संस्थानों को कुछ हर्जा होगा, ये बात अविश्वसनीय लगती है. क्या आरक्षण से प्रतिभा का अवमूल्यन होता है, इस सवाल का जवाब भी देना चाहिए. रही बात वैश्विक सामर्थ्य में कटौती आ जाने की तो इन संस्थानों की मौजूदा वैश्विक रैंकिंग क्या है जो आरक्षण लागू करने के बाद गिर जाने की आशंका है!

और ये तो बिल्कुल स्पष्ट होना चाहिए कि आरक्षण कोई सुविधा या दया नहीं है वो संवैधानिक अधिकार है, लोकतांत्रिक समाज की बुनियाद को मजबूत बनाए रखने के लिए जरूरी है. दूसरी ओर दाखिलों से लेकर नौकरियों में आरक्षण के तहत नौकरशाही से लेकर तमाम सार्वजनिक और निजी उपक्रमों में निचली दलित जातियों और अल्पसंख्यकों की कुल आबादी के सापेक्ष नगण्य नुमायंदगी से हालात का अंदाजा लग जाता है. इसीलिए जेएनयू जैसे संस्थानों की जरूरत बहुत अधिक हो जाती है जहां गरीब पढ़ सकें, सबको शिक्षा और सबको काम मिल सके.

कहा जा सकता है कि जब आरक्षण से कोई फायदा नहीं हो रहा है तो हटा क्यों नहीं देते. अगर आरक्षण की एक संविधान प्रदत व्यवस्था दबे कुचले सह नागरिकों को पीढ़ियों की तबाही से निकाल कर किसी आने वाले समय में बराबरी का नागरिक और सामाजिक सम्मान मुहैया कराने की क्षमता रखती है तो उसे क्यों हटाया जाए. क्यों न उसे और मजबूत, व्यापक और पारदर्शी बनाया जाए. आईआईएम की चिंताएं अपनी जगह सही हो सकती हैं और ऐसी व्यवस्था जरूर बनानी चाहिए कि गुणवत्ता पर कोई समझौता न होने पाए लेकिन आरक्षण के अधिकार की अवमानना न हो.

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