अब इस्लामिक शरिया अदालत पर बहस
९ जुलाई २०१८इस बार मामला फिर धर्म को लेकर है. जहां भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का मानना है कि देश के संविधान के अलावा कोई भी समानांतर अदालत नहीं होनी चाहिए, वहीं ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसको सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप बता रहा है. दारुल कजा इस्लामिक शरिया (इस्लाम धर्म के कानून) के अनुसार अदालत होती है. यहां पर मुसलमानों के मामले जैसे शादी, तलाक, जायदाद का बंटवारा, लड़कियों को जायदाद में हिस्सा देना आमतौर पर शामिल होता है. दारुल कजा में एक या उससे अधिक जज हो सकते हैं, जिन्हें काजी कहा जाता है. ये काजी इस्लामिक शरिया के विद्वान होते हैं. वर्तमान में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अधीन देश भर में 50 ऐसे दारुल कजा संचालित हैं. आमतौर पर सुन्नी मुसलमान दारुल कजा को मान्यता देते हैं. बोर्ड 1993 से देश में दारुल कजा संचालित कर रहा है. अब बोर्ड का इरादा है कि देश के हर जिले में कम से कम एक दारुल कजा की स्थापना कर दी जाए.
कोई भी पक्ष, महिला या पुरुष अपनी अर्जी दारुल कजा में जा कर देता है. फिर इसमें दोनों पक्षों की सुनवाई होती है. काजी दोनों पक्षों को नोटिस जारी करता है. बयान दर्ज होते हैं, सुनवाई के दौरान इस्लामिक शरिया के मुताबिक लिखित फैसला सुनाया जाता है. हालांकि फैसले को जबरदस्ती लागू करवाने की काजी के पास भारत में कोई पावर नहीं है. इसको मानना या न मानना दोनों पक्षों पर निर्भर करता है. जो मुस्लिम देश इस्लामिक शरिया मानते हैं, वहां इसको कानूनी दर्जा प्राप्त है. एक अंदाज के मुताबिक एक दारुल कजा को स्थापित करने में लगभग 50 हजार का खर्चा अनुमानित है.
पिछले दिनों मुसलमानों के कई मामले जैसे ट्रिपल तलाक, निकाह और हलाला सुप्रीम कोर्ट तक पहुच गए. केंद्र सरकार भी ट्रिपल तलाक के विरोध में आ गई. बोर्ड को ऐसे में अपनी स्ट्रेटेजी बदलनी पड़ी. बोर्ड का मंतव्य है कि मुसलमानों के पारिवारिक मामले दारुल कजा से निपटाए जाएं. ऐसा करने से खर्चे की बचत, विवाद का जल्द फैसला और इस्लाम के अनुसार निपटारा संभव है. लेकिन बात इस पर चली गई कि क्या मुसलमान भारत में अपने लिए अलग अदालत लगा लेंगे. ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के सेक्रेटरी जफरयाब जीलानी सारी आशंकाओं को सिरे से खारिज करते हैं. जीलानी के अनुसार इस मामले में मीडिया में बहुत भ्रांतियां फैल गई हैं, "मैं साफ करना चाहता हूं कि दारुल कजा पैरेलल कोर्ट नहीं हैं, जिसपर 7 जुलाई 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया था."
जीलानी आगे बताते हैं, "हम दारुल कजा में काजी के जरिए सिर्फ इस्लामिक शरिया के तहत किसी मामले में इस्लामिक कानून बता देते हैं. काजी कोई एनफोर्सिंग एजेंसी नहीं है. ट्रिपल तलाक के मुद्दे से दारुल कजा को जोड़ कर देखना बिलकुल गलत है." जीलानी उत्तर प्रदेश में लखनऊ की हाई कोर्ट बेंच में अधिवक्ता हैं और पिछली समाजवादी सरकार में एडिशनल एडवोकेट जनरल रह चुके हैं.बहस हालांकि आगे बढ़ गई, जब बीजेपी सांसद मीनाक्षी लेखी ने शरिया कोर्ट को नकारते हुए एक न्यूज एजेंसी को बयान दिया कि यहां कोई इस्लामिक गणराज्य नहीं है. ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि दारुल कजा कोई पैरेलल कोर्ट नहीं है और 1993 से काम कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि इस मामले में बीजेपी के नेता और मंत्रियो को सुप्रीम कोर्ट का फैसला पहले पढ़ लेना चाहिए.
वहीं दूसरी ओर मुस्लिम महिलाओं में इसको लेकर मतभेद भी अपने अपने समुदाय की मान्यता पर आधारित दिख रहा है. लखनऊ में रहने वाली लेखिका डॉ सदफ नईम के अनुसार दारुल कजा से आसानी तो है, मामले जल्दी निपट जाते हैं, "अब जब आप शादी इस्लामिक तरीके से कर रहे हैं, तो अपने मुद्दे भी इस्लामिक तरीके से सुलझाएं. लेकिन वही है कि अपने फायदे की बात सब मान लेंगे. लेकिन जैसे बहनों को जायदाद में हिस्सा देने की बात आएगी तो दारुल कजा के फैसलों को नदरअंदाज करने से भी नहीं झिझकेंगे. वहीं दूसरी ओर शिया समुदाय, बोर्ड के द्वारा स्थापित किसी भी दारुल कजा को नहीं मानता.
लखनऊ में मौजूद दारुल कजा के काजी-ए-शरियत मौलाना मुस्तकीम नदवी मामलों के सुनवाई करते हैं. उनके अनुसार महीने में लगभग 10-12 केस उनके पास आ ही जाते हैं. वे बताते हैं कि ज्यादातर मामले निकाह और तलाक से संबंधित होते हैं, "हम लोग सुनवाई करके दोनों पक्षों का बयान ले कर लिखित फैसला सुनाते हैं, जो इस्लामिक शरिया के अंतर्गत होता है." लखनऊ में दो जगह फरंगी महल और नदवातुल उलूम में दारुल कजा स्थापित है. नदवी हालांकि बताते हैं कि कोशिश रहती है कि दोनों पक्षों में सुलह समझौता हो जाए.
शिया समुदाय हालांकि बोर्ड के इस कदम से दूरी बनाए हैं. शिया वक्फ बचाओ आंदोलन के अध्यक्ष शमील शम्सी बताते हैं कि बोर्ड का यह कदम आ बैल मुझे मार वाली स्थिति ला देगा. शम्सी के अनुसार पहले शिया समुदाय की भी शरिया अदालत थी लेकिन 1857 में अग्रेजों ने जब कब्जा किया, तो इस पर पाबंदी लगा दी थी. शम्सी बताते हैं कि तब शिया शरिया अदालत ने बेगम हजरत महल के नाबालिग बेटे बिरजिस कद्र को अवध का नवाब घोषित किया था, जिसको अंग्रेजो ने मान्यता नहीं दी और खत्म कर दिया. उसके बाद एक बार और कोशिश हुई लेकिन सफल न हो सकी. शम्सी के अनुसार अब तो गली गली में मौलाना फैसला सुनाने लगे हैं, "अब इंटरनेट का जमाना है, इसीलिए ईरान और इराक से शरीअत के मुताबिक फतवा मंगवा सकते हैं, ये अब बहुत आसान हो गया है, इसीलिए अब यहां शरिया अदालत की कोई जरूरत नहीं हैं."
दूसरी ओर उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन यूपी शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष सय्यद वसीम रिजवी के अनुसार शरिया अदालत चलाना देशद्रोह के अंतर्गत आता है. उनके अनुसार, "हिंदुस्तान में शरिया हुकूमत नहीं है. ऐसे में बोर्ड द्वारा काजी (जज) नियुक्त करना गलत है. भारत सरकार को तत्काल ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पर पाबंदी लगा देनी चाहिए."