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"Great Game" Afghanistan

११ जुलाई २०११

अफगानिस्तान कच्चे मालों की बहुतायत वाले क्षेत्र में स्थित है. उसकी भूसंपदा ने हमेशा ही क्षेत्रीय और विश्व सत्ताओं की लालसा जगाई है. इस बीच अमेरिका और चीन भी मध्य एशिया के इन संसाधनों को हासिल करने की होड़ में लग गए हैं.

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अफगानिस्तान में प्राकृतिक संपदातस्वीर: picture alliance/dpa

19 वीं सदी में इलाके में प्रभाव जमाने की होड़ में रूस और ब्रिटेन थे. यह एक अत्यंत विस्फोटक राजनीतिक खेल था, तथाकथित ग्रेट गेम. अफगानिस्तान की धरती के नीचे छुपा कच्चा माल अरबों डॉलर का है. दूसरे मध्य एशियाई देशों का ऊर्जा भंडार भी इससे कई गुना होने का अनुमान है, एक विशाल अब तक अनछुआ केक.

कच्चे माल की भूख

Bodenschätze in Afghanistan
तांबा खानों का निरीक्षण करते चीनीतस्वीर: AP

ईरान, पाकिस्तान, भारत, रूस और सबसे बढ़कर अमेरिका और चीन इस केक के बड़े हिस्से पर अपना दावा ठोकना चाहते हैं. विशेषज्ञों के बीच इस पर सहमति है कि अफगानिस्तान में आतंकवाद विरोधी संघर्ष से परे संसाधनों की लड़ाई भी चल रही है. बर्लिन की फ्री यूनिवर्सिटी के राजनीतिशास्त्री थोमस ग्रेवेन कहते हैं कि खनिज भंडारों तक पहुंच का अबतक पर्याप्त नियमन नहीं हुआ है. "यदि विवाद की स्थिति आती है तो खनिज पदार्थों के खनन की संधि होने भर से काम नहीं चलेगा. खानों तक पहुंच को सैनिक अड्डों और सुरक्षा सहयोग के जरिए सुनिश्चित किया जाना चाहिए."

कौन करेगा अगुवाई

अमेरिका और चीन कम से कम एक दशक से दुनिया भर के खनिज भंडारों के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं. दोनों देशों को पता है कि ऊर्जा स्रोतों तक सीधी पहुंच इस बात का फैसला करेगी कि कौन अपनी समृद्धि बनाए रखेगा और उसे बढ़ाएगा. थोमस ग्रेवेन कहते हैं कि मध्य एशिया में नया "ग्रेट गेम" इस बात के लिए संघर्ष है कि 21वीं सदी चीनी होगी या अमेरिकी. "अमेरिका इस बात के प्रति उदासीन नहीं है कि अफगानिस्तान और मध्य एशिया के दूसरे देशों में खनिज भंडार मिल रहे हैं." राजनीतिशास्त्री ग्रेवेन का मानना है कि इसके अलावा अमेरिका को अच्छा नहीं लग रहा कि चीन अफगानिस्तान में अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में हिस्सा लिए बगैर वहां के खनिज पर दावा कर रहा है.

Straßenbau Helmand Afghanistan
अमेरिका ने बनाया, चीन को लाभतस्वीर: DW/Rohullah Elham

चीन सरकार कई सालों से अफगानिस्तान और दूसरे मध्य एशियाई देशों में खरीद की आक्रामक नीति चला रही है. मसलन बीजिंग ने अमेरिका की खीज बढ़ाते हुए पूर्वी अफगानिस्तान के सबसे बड़े तांबा खान में खनन अधिकार खरीद लिए हैं. कीमत: तीन अरब डॉलर. अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान में बनाए हुए रोड से अब तांबे के खनिज से भरे ट्रक चीन की ओर जाएंगे. औपचारिक रूप से चीन अफगानिस्तान और उस इलाके में राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के इंकार करता है. लेकिन बहुत से प्रेक्षक मानते हैं चीन का लक्ष्य कम से कम एशिया में अगुआई करना चाहता है. फ्रीडरिष एबर्ट फाउंडेशन के युर्गन श्टेटेन का मानना है कि सच्चाई कहीं बीच में है. "चीन, अगर चाहे भी तो भूरणनैतिक खिलाड़ी न होने का जोखिम नहीं ले सकता.और यह अफगानिस्तान जैसे क्षेत्रों और अफगानिस्तान विवाद के लिए भी लागू है."

सीधे टकराव से परहेज

Obama Soldaten Abzug aus Afghanistan
अमेरिकी उपस्थिति से चिंतित चीनतस्वीर: picture alliance/dpa

चीन अब तक अमेरिका के साथ सीधे टकराव को टाल रहा है. भावी विश्व सत्ता अपने सीधे पड़ोस में एक लाख अमेरिकी सैनिकों की उपस्थिति से भारी खतरा महसूस करती है. 2014 के बाद भी अफगानिस्तान में सक्रिय रहने की अमेरिकी योजना से चीन अत्यंत चिंतित है, कहना है युर्गन श्टेटेन का. "साफ है कि अमेरिकी सैनिक अड्डों से घिरे होने में चीन की कोई दिलचस्पी नहीं है." लेकिन श्टेटेन के अनुसार चीन को पता है कि इस स्थिति को तुरंत बदलना बहुत मुश्किल होगा. इसलिए वह पाकिस्तान के साथ निकट सहयोग पर जोर दे रहा है, एक देश जो चीन और अफगानिस्तान के बीच में है.

पाकिस्तान के साथ नजदीकी बहुत से कारणों से अत्यंत महत्वपूर्ण है. बीजिंग इस्लामाबाद को क्षेत्र मं अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी भारत के खिलाफ भरोसेमंद सहयोगी मानता है. दूसरे, चीन मानता है कि इस्लामिक गणतंत्र पाकिस्तान की मदद से अफगानिस्तान में अपने हितों को बेहतर तरीके से पूरा कर पाएगा, खासकर अमेरिका के हटने के बाद.

नए "ग्रेट गेम" की परिणति के बारे में एशिया विशेषज्ञ श्टेटेन कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकते. अभी तक खुला है कि अंत में इस बड़े खेल में विजेता कौन बनेगा. लेकिन श्टेटेन का कहना है कि अफगानिस्तान के लिए इसका अंत तबाही में हो सकता है. "क्योंकि तालिबान की वापसी या क्षेत्र में बड़ी सत्ताओं का छद्मयु्दध, चाहे वह चीन हो, भारत या अमेरिका, अफगानिस्तान को स्थायी रूप से विवाद में धकेल देगा, जिससे वह आनेवाले समय में बाहर नहीं निकल सकता." बेचारा धनी अफगानिस्तान.

लेख: रत्बिल शामेल/मझा

संपादन: आभा मोंढे

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