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उम्रदराज बांधों के संभावित खतरों के लिए कितने तैयार हैं हम

शिवप्रसाद जोशी
१८ फ़रवरी २०२१

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की आधी आबादी पर बड़े और पुराने होते बांधों से तबाही का खतरा मंडरा रहा है. दुनिया में करीब 59 हजार बड़े बांध हैं और सबसे ज्यादा बांध चीन, अमेरिका और भारत में हैं.

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China Drei Schluchten Damm Wasserablass
तस्वीर: China Foto Press/imago images

भारत सहित अन्य देशों में बड़े और बुढ़ाते बांध अपनी उम्र पूरी होते ही क्या एक बड़ा खतरा बन सकते हैं? इसे लेकर चिंताएं तो लंबे समय से जताई जा रही हैं लेकिन संयुक्त राष्ट्र यूनिवर्सिटी के एक नए अध्ययन ने इस मुद्दे को फिर से बहस में ला दिया है. दुनिया के तमाम बड़े बांध 1930 से 1970 के बीच बनाए गए थे जो अपनी 50 से 100 साल की निर्धारित उम्र पूरी कर रहे हैं. या अगले कुछ साल में कर लेंगे और तब ये अपने ढांचे में कमजोर पड़ जाएंगें, उनके विशाल जलाशयों में जमा पानी का आकार सात हजार से आठ हजार घन किलोमीटर हो चुका है, जलाशयों में गाद और मलबा बहुत ज्यादा भर जाएगा, उनकी मोटरें, गेट, स्पिलवे और अन्य मशीनें भी कमजोर या पुरानी पड़ चुकी होंगी, इसीलिए संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में समय रहते आवश्यक कदम उठा लेने की ताकीद की गई है.

दुनिया के 55 प्रतिशत बांध सिर्फ चार एशियाई देशों- भारत, चीन, जापान और दक्षिण कोरिया में हैं. बेशक बांध जलापूर्ति, ऊर्जा उत्पादन, बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई के अलावा प्रत्यक्ष और परोक्ष रोजगार और अर्थव्यवस्था की वृद्धि में बड़ी उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं लेकिन जलाशय वाले अधिकतर बांध पुराने पड़ रहे हैं. अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि दुनिया को इस बारे में बताने का यह सही समय है. रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में 4,407 बड़े बांध हैं जो 2050 तक 50 साल की उम्र पार कर लेंगे. इनमें से 64 तो 100 साल पुराने बांध हैं. और एक हजार से अधिक बांध 50 साल या उससे पुराने हो चुके हैं. वैसे भारत के केंद्रीय जल आयोग के 2019 के आंकड़ों में बड़े बांधों की संख्या 5,334 बताई गई है लेकिन इस अध्ययन में बड़े बांध की गिनती परिभाषा के अंतरराष्ट्रीय मानकों के लिहाज से की गई है.

भारत के लिए 2025 यानी आज से चार साल बाद का समय बांधों के लिहाज से अहम और ध्यान देने योग्य माना गया है क्योंकि तब एक हजार से अधिक बांध 50 साल या उससे पुराने हो चुके होंगे. निर्माण और देखरेख पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है, लिहाजा ठोस ढंग से निर्मित बांध 100 साल की उम्र तक काम कर लेते हैं. लेकिन विशेषज्ञ आमतौर पर 50 साल को बांध की क्षमता में गिरावट का एक मोटा सा पैमाना मानकर चलते हैं. कई बार बांध के गेट और मोटर भी बदलने पड़ते हैं. रिपोर्ट में बताया गया है कि बड़े बांध न सिर्फ सुरक्षा के लिहाज से जोखिम भरे होते हैं बल्कि उनकी देखरेख में भी बहुत पैसा खर्च हो जाता है.

जलवायु परिवर्तन भी बांधों की उम्र को कम करने वाला एक प्रमुख फैक्टर बन गया है. बारिशों का बदलता पैटर्न, बांधों की कार्यक्षमता को प्रभावित करता है. जानकारों का कहना है कि भारत को अपने बांधों को लेकर एक दूरगामी लाभहानि की नीति बनानी चाहिए और सुरक्षा व्यवस्था की समीक्षा का काम बढ़ा देना चाहिए. विशेषज्ञों का मानना है कि बड़े डैमों की क्षमता का आकलन करते हुए उन्हें डीकमीशन करने यानी उन्हें हटाने या काम रोक देने के लिए चिन्हित करते रहना चाहिए. कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि यह विषय सिर्फ पर्यावरणवादियों और एक्टिविस्टों की चिंता का नहीं है और ना ही एक झटके में बड़े बांधों की उपयोगिता और सरवाइवल क्षमता को खारिज किया जा सकता है, यह सही है कि प्राथमिकता और अन्य आकलनों के आधार पर प्रत्येक बांध की स्थिति का मूल्यांकन करते हुए अंतिम नतीजे पर पहुंचने की जरूरत है. यानी आपाधापी और अतिसक्रियता दिखाने की बजाय एक सुचिंतित, व्यवहारिक, सामूहिक और ठोस निर्णय करना होगा.

आपदा प्रबंधन और न्यूनीकरण की व्यवस्था को और सुदृढ़ बनाए जाने की जरूरत भी है. यह भी देखना चाहिए कि बांध के उम्रदराज होने के साथ साथ और भी कौनसे संभावित खतरे हो सकते हैं. मिसाल के लिए बांध वाले इलाकों में अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम अनियमित अनापशनाप विकास से बचना चाहिए. जोखिम का खतरा कम से कम रखना ही श्रेयस्कर होगा. रिपोर्ट में केरल के मुलापेरियार डैम का उदाहरण भी दिया गया है जो करीब 150 साल पुराना हो रहा है.

एक ओर बड़े बांधों का प्रश्न है, तो दूसरी ओर बहुत छोटी संकरी नदी घाटियों में बांधों की अधिक संख्या भी कम चिंताजनक नहीं. पारिस्थितिकी, जैव-विविधता, स्थानीय सांस्कृतिक-सामाजिक तानेबाने और पर्यावरण की तबाही के दो बड़े मंजर बहुत कम अंतराल में उत्तराखंड देख चुका है लेकिन पर्यावरणविद और पर्यावरणवादी चिंतित हैं कि सुप्रीम कोर्ट की मनाही के बावजूद सरकारों और निजी कंपनियों के जलबिजली परियोजनाओं पर काम और प्रस्ताव जारी हैं और यहां मामला बड़े बांध का नहीं, बहुत सारी छोटी छोटी परियोजनाओं का भी है क्योंकि वे अगर तीव्र ढाल वाले नदी नालों में बनने लगेंगी तो स्थानीय पर्यावरण का हश्र क्या होगा, यह किसी से कहां छिपा है.

2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ और 2021 में धौली गंगा की त्रासदियों समेत पर्यावरणीय क्षति की अन्य बड़ी घटनाओं को सिर्फ बरबादी के विचलित कर देने वाले आंकड़ों और दृश्यों के रूप में नहीं बल्कि एक स्थायी सबक की तरह याद रखा जाना चाहिए. इसी तरह बड़े विशालकाय बांधों को सिर्फ अपार लाभ और अपार मुनाफे के विशाल ढांचों के रूप में ही नहीं, ऐसे भी देखना चाहिए कि वे ढांचें हैं तो आखिरकार मानव-निर्मित ही. और बात सिर्फ भारत की नहीं है. यह स्थिति दुनिया में कमोबेश सभी जगह आ चुकी है. जलवायु परिवर्तन इन परिघटनाओं को और तीव्र और सघन बना रहा है. दुनिया में किसी एक जगह गंभीर पर्यावरणीय नुकसान होता है तो उसका असर दुनिया के दूसरे हिस्सों पर भी किसी न किसी रूप में पड़ता है.

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