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राजनीतितुर्की

जर्मन तुर्कों को एर्दोवान क्यों भाते हैं?

२८ अप्रैल २०२३

रेचप तैयप एर्दोवान फिर से राष्ट्रपति बनने के लिए चुनाव मैदान में हैं. इस बार उनकी जीत की राह में कई मुश्किलें हैं. हालांकि, अगर सिर्फ जर्मनी में रहने वाले तुर्कों के वोट से फैसला हो, तो एर्दोवान आसानी से जीत जाएंगे.

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Deutschland Erdogan Anhänger in Köln
तस्वीर: picture alliance/dpa/H. Kaiser

तुर्की में रहने वाले तुर्क लोग तो नए राष्ट्रपति और संसद के लिए अगले आम चुनाव में सिर्फ 14 मई को ही वोट डाल सकेंगे, लेकिन दुनिया के दूसरे देशों में रहने वाले तुर्कों ने यह काम गुरुवार, 27 अप्रैल को ही शुरू कर दिया. इन देशों में जर्मनी भी है, जहां आप्रवासी तुर्कों का सबसे बड़ा समुदाय रहता है.

जर्मनी में प्रवासन और शरणार्थी विभाग के संघीय कार्यालय (बीएएमएफ) की पांच साल पहले की प्रवासन रिपोर्ट के मुताबिक यहां तुर्क मूल के 28 लाख लोग रहते हैं. इनमें से करीब आधे लोगों के पास तुर्क नागरिकता है.

27 अप्रैल से 9 मई के बीच जर्मनी में रहने वाले तुर्क लोग तुर्की के 14 दफ्तरों और वाणिज्य दूतावासों में वोट दे सकते हैं. चुनाव का नतीजा तो मई में पता चलेगा, लेकिन ऐसे कयास लग रहे हैं कि राष्ट्रपति रेचप तैयप एर्दोवान चुनाव हार सकते हैं. उनके प्रतिद्वंद्वी सोशल डेमोक्रैट केमाल कुरुचदारो और केमालिस्ट रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी का राजनीतिक और सामाजिक समर्थन काफी बढ़ गया है.

जर्मनी में एर्दोवान का समर्थन

अगर केवल जर्मनी के तुर्कों के वोटों से ही फैसला हो, तो एर्दोवान और उनकी जस्टिस एंड डेवेलपमेंट पार्टी, एकेपी को निर्णायक जीत मिलेगी.

मेतीन शीरीन 43 सालों से जर्मनी के कोलोन शहर में रह रहे हैं. फोर्ड मोटर्स की एक सब्सिडियरी के लिए चार दशकों से काम कर रहे शीरीन ने पहले भी एर्दोवान को वोट दिया था. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा कि इस चुनाव में भी वह उन्हें ही वोट देंगे. वह कहते हैं, "एकेपी से मेरी सहानुभूति पिछले 20 सालों में बढ़ गई है."

एर्दोवान के प्रतिद्वंद्वी केमाल कुरुचदारो
केमाल कुरुचदारो और उनकी पार्टी को तुर्की में काफी लोगों का समर्थन मिल रहा हैतस्वीर: Depo Photos/ABACA/abaca/picture alliance

डुइसबुर्ग यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर स्टडी ऑन टर्की एंड इंटीग्रेशन रिसर्च के यूनुस उलुसॉय कहते हैं, "जर्मनी में तुर्क मूल के लोग बड़े पैमाने पर एर्दोवान को ही वोट देते हैं. यह सच्चाई है."

2017 में जर्मनी में रहने वाले लगभग 63 फीसदी तुर्कों ने एर्दोवान के संविधान पर हुए जनमत संग्रह के लिए वोट दिया था. हालांकि, तब तुर्की में रहने वाले केवल 51 फीसदी लोगों ने ही एर्दोवान का समर्थन किया था. इस जनमत संग्रह ने देश के संसदीय तंत्र को राष्ट्रपति वाले तंत्र में बदल दिया. 2018 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में भी यही हाल रहा. जर्मन तुर्कों से एर्दोवान को 64.8 फीसदी वोट मिले, जबकि तुर्की में रहने वाले लोगों में महज 52.6 फीसदी लोगों ने ही एर्दोवान के दोबारा चुने जाने समर्थन किया.

एर्दोवान के लिए दुनिया के दूसरे देशों में रहने वाले तुर्कों के बीच ज्यादा समर्थन नहीं है. 2018 में एर्दोवान को अमेरिका में रहने वाले तुर्कों के 17 फीसदी वोट मिले, जबकि ब्रिटेन में यह 21 फीसदी था. इसी तरह ईरान में 35 और कतर में 29 फीसदी तुर्कों ने एर्दोवान को वोट दिया.

जर्मन तुर्कों की आलोचना

जर्मनी में रहने वाले तुर्कों के वोटिंग रुझान को लेकर बड़ी आलोचना होती है. इसमें एक विरोधाभास की तरफ खासतौर से उंगली उठाई जाती है. यह कैसी सोच है कि तुर्क जर्मन जर्मनी में तो सोशल डेमोक्रेट या ग्रीन पार्टी को वोट देते हैं, लेकिन तुर्की में वे इस्लामी, रूढ़िवादी पार्टी एकेपी के लिए समर्थन जताते हैं.

शीरीन कहते हैं कि यह उचित है और यह हठी होने के बजाय संभवत: इस बात का संकेत है कि जर्मनी में रूढ़िवादी तुर्क वोटर बदल रहे हैं. शीरीन ने कहा, "लोग उस पार्टी को वोट देते हैं, जो उनके हितों के बारे में सोचती है. यह एक सकारात्मक बात है."

जर्मन तुर्कों में एर्दोवान काफी लोकप्रिय हैं
तुर्क मूल के मेतिन शीरीन 43 साल से दिल्ली में रहते हैंतस्वीर: privat

राजनीतिक विश्लेषक भी स्थिति को इसी तरह से देखते हैं. उलुसोय कहते हैं, "विदेश में रहने के बावजूद लोग अब भी उन पार्टियों की तरफ देखते हैं, जिनका नजरिया उनके नजरिये जैसा है. तुर्कों के सामने यह मसला होता है. वह कहते हैं, 'मैं क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक सीडीयू या सोशल डेमोक्रेटिक एसपीडी को वोट दूं?'

बहुत से तुर्क कामगार वर्ग से आते हैं. इसका मतलब है कि एसपीडी का अंतरराष्ट्रीय झुकाव रूढ़िवादी तुर्कों की भी पसंद बन जाता है, न कि रूढ़िवादी सीडीयू."

जर्मनी का मोह

युद्ध के बाद जर्मनी में सबसे पहले तुर्क अनातोलियाई इलाके से आए थे. यह काफी रूढ़िवादी इलाका है. उलुसॉय कहते हैं, "जब परदेस जाते हैं, हम तो अपने साथ अपने मूल्यों को भी लेकर आते हैं, जो लगातार विकसित होते हैं. उनकी धार्मिक रूढ़िवादी विचारों को आप्रवासियों के बीच संरक्षण मिलता है."

एकेपी को वोट देने के शीरीन के फैसले में एक अहम मुद्दा एर्दोवान के शासन में तुर्की के विकास का है. वह स्वास्थ्य सेवाओं, परिवहन और रक्षा समेत कई क्षेत्रों में हुए विकास से प्रभावित हैं.

जर्मनी में तुर्की बनाना चाहते हैं एर्दोवान

शीरीन आज के तुर्की की तुलना उस दौर के जर्मनी से करते हैं, जब वह जर्मनी आए थे. वह कहते हैं, "जब हम यहां आए, तो जर्मनी पर मुग्ध थे. हमें सरकारी दफ्तर, अस्पताल और खुली सड़कें शानदार लगती थीं. हमें यह शर्मनाक लगता था कि ऐसा कुछ तुर्की में नहीं है. हालांकि, पिछले 20  सालों में हमने देखा कि हमारे अस्पताल और सड़कें भी विश्व स्तर की हो गई हैं."

शीरीन यह भी समझाते हैं कि वाणिज्य दूतावासों और कई देशों में रह रहे तुर्कों के अधिकार एर्दोवान के शासन में काफी बेहतर हुए हैं. वह बताते हैं कि तुर्क नागरिक भुगतान करके अनिवार्य सैन्य सेना से मुक्त हो सकते हैं. "यह एकेपी की बड़ी उपलब्धि है और उन्हें समर्थन देने की यही वजह है." शीरीन ने ध्यान दिलाया कि 2014 से तुर्क विदेशों में रहकर भी वोट दे सकते हैं, जो पहले संभव नहीं था.

दक्षिणपंथी एर्दोवान को वोट देने की वजह से जर्मन तुर्कों की आलोचना होती है
एर्दोवान को जर्मनी में रहने वाले तुर्क मूल के लोग खूब वोट देते हैंतस्वीर: MURAT CETINMUHURDAR/PPO via REUTERS

वोटरों को क्या भाता है

उलुसॉय जर्मनों की इस बात के लिए आलोचना करते हैं कि वे रूढ़िवादी तुर्कों के मतदान की प्रवृत्ति को समझने की कोशिश भी नहीं करते. इस प्रवृत्ति को नैतिक रूप से परखना और विवादित बनाना आसान है, लेकिन इसके बजाय यह समझने की कोशिश होनी चाहिए कि वोटरों को क्या प्रेरित करता है. उलुसॉय ने कहा कि जर्मन लोग तुर्क लोगों के मतदान की आदतों पर जरूरत से ज्यादा ध्यान देते हैं.

उलुसॉय की दलील है, "क्या सिर्फ जर्मन तुर्क ही अपने देश में वोट डालते हैं? निश्चित रूप से नहीं. जर्मनी में रहने वाले इटैलियन भी वोट डाल सकते हैं और हाल ही में इटली में दक्षिणपंथी सरकार चुनी गई है. इसके बावजूद कोई नहीं जानता कि जर्मनी में रहने वाले इटैलियन कैसे वोट डालते हैं, कोई यह जानने के लिए उत्सुक भी नहीं है."

अलगाव या अपनापन

ऐसा लगता है कि जर्मनी में रहने वाले तुर्कों के मन में जो खाई थी, उसे एर्दोवान ने पाट दिया है. उलुसॉय का कहना है, "पिछले 60 सालों से जर्मन राजनेता तुर्क लोगों को स्वीकार नहीं कर पाए. न यह कह सके, 'तुम इस देश के हो. चाहे तुमने बायोंटेक की नींव रखी हो या शायद तुम एक युवा के रूप में नए साल पर हुए दंगों में शामिल हुए हो. भले ही तुमने गलती की, फिर भी तुम हममें से एक हो.' एर्दोवान इसी तरह से बात करते हैं. वह उन्हें कहते हैं, 'तुम चाहे कहीं रहो या तुम्हारे पास कोई भी नागरिकता हो, तुम हमारे हो.'

बामबर्ग यूनिवर्सिटी की समाजशास्त्री सबरीना मायर की भी यही राय है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "एर्दोवान के लिए तुर्क मूल के लोगों तक पहुंचना आसान है, जो लंबे समय से अपनी तुर्क विरासत का सम्मान करते आए हैं." उनका कहना है कि जर्मनी के राजनीतिक वर्ग ने कभी भी जर्मन तुर्कों को यह अहसास नहीं दिलाया कि वे जर्मन समाज का हिस्सा हैं.

जर्मनी में रहने वाले तुर्क चुनाव के लिए गुरुवार से वोट डाल रहे हैं
जर्मनी के कोलोन शहर में रेचप तैयप एर्दोवानतस्वीर: picture-alliance/ dpa

मायर ध्यान दिलाती हैं कि सालों तक जर्मन राजनेता जर्मनी में रहने वाले तुर्क नागरिकों के न्यूट्रलाइजेशन की प्रक्रिया को चुस्त-दुरुस्त बनाने में नाकाम रहे. उनका यह भी कहना है कि रूस या दूसरे पूर्व सोवियत देशों में रहने वाले लोगों को बहुत अधिकार दिए गए हैं. जर्मन बेसिक लॉ के आर्टिकल 116 के कारण वे तुर्कों की तुलना में ज्यादा आसानी से जर्मन नागरिक बने.

मतदान की प्रवृत्ति

उलुसॉय का कहना है कि तीसरी पीढ़ी के आप्रवासियों के लिए एर्दोवान को वोट देने के पीछे यही कारण काम करते हैं. शीरीन की दलील है, "हाल के वर्षों में एर्दोवान के कारण रूढ़िवादी लोगों को जर्मन राजनीतिक दलों से अलग कर दिया गया. यह सचमुच बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. यह अलगाव प्रतिक्रिया को जन्म देता है और इसके नतीजे में लोग एर्दोवान का समर्थन शुरू कर देते हैं."

14 मई को चुनाव का नतीजा चाहे जो हो, शीरीन चाहते हैं कि अपने वोट के अधिकार का प्रयोग करें. उनका कहना है, "भले ही मैं 43 साल से जर्मनी में रह रहा हूं, लेकिन मैं स्थानीय चुनाव में वोट नहीं दे सकता. यह अलगाव मुझे उदास करता है. दूसरी तरफ तुर्की में मुझे वोट देने का अधिकार है. मुझे गर्व है कि मैं कुछ तय कर सकता हूं, जो हमारे नागरिकों को प्रभावित करता है."