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समाजभारत

भारत के जेन-जी और मिलेनियल इतना तनाव में क्यों हैं?

तनिका गोडबोले
२ फ़रवरी २०२४

भारत की युवा आबादी पुरानी पीढ़ियों के मुकाबले ज्यादा दबाव महसूस कर रही है. इसी पीढ़ी की एक लड़की डीडब्ल्यू से कहती है, "हमने कभी ऐसी दुनिया नहीं देखी, जो संकट में नहीं थी."

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Indien | Junges Paar
शोधकर्ताओं के मुताबिक युवा भारतीयों में पिछली पीढ़ियों के मुकाबले एंग्जायटी होने की आशंका ज्यादा है.तस्वीर: Yogesh S. More/IMAGO

मुंबई में रहने वाली थिएटर कलाकार मेघना एटी ने 'प्लान बी/सी/डी/ई' नाम का इंटरैक्टिव शो बनाया है. शो में परफॉर्म करते हुए वह जलवायु को लेकर अपनी चिंताएं साझा करती हैं और अपने दर्शकों के साथ जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपाय तलाशती हैं.

28 साल की मेघना डीडब्ल्यू को बताती हैं, "मुझे अपने दर्शकों से पूछना पसंद है कि उन्होंने जलवायु परिवर्तन के बारे में सबसे पहले कब सुना. उम्रदराज लोग कहते हैं कि उन्होंने 40 या 50 की उम्र में सुना था. उनसे जवान लोग और मेरे जैसे लोग इस बारे में इतना सुनते आ रहे हैं कि याद भी नहीं है कि जिंदगी में कब हम जलवायु परिवर्तन के बारे में नहीं जानते थे. हमने कभी ऐसी दुनिया देखी ही नहीं, जो संकट में नहीं थी."

मेघना कहती हैं, "जानकारी और खबरों तक हमारी ज्यादा पहुंच है. सूचित और सजग रहना जरूरी भी है, लेकिन कभी-कभी यह बहुत थकाऊ हो जाता है."

भारत की सबसे बड़ी बीमा कंपनियों में से एक आईसीआईसीआई लोम्बार्ड की एक स्टडी में पता चला कि जेन-जी और मिलेनियल भारतीयों को पिछली पीढ़ियों के मुकाबले ज्यादा तनावग्रस्त और चिंताग्रस्त होने का खतरा है.

स्टडी के मुताबिक करीब 77 फीसदी लोगों में तनाव का कम से कम एक लक्षण दिखा था. हर तीन में से एक भारतीय तनाव और घबराहट से जूझ रहा था, लेकिन अपेक्षाकृत युवाओं, खासकर जेन-जी (1994 से 2009 के बीच पैदा हुए लोग) के तनाव, घबराहट और क्रॉनिक बीमारियों से पीड़ित होने की आशंका ज्यादा प्रबल पाई गई.

मोदी की रेसिपी

भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस संकट का मुकाबला करने के लिए तत्पर नजर आते हैं. 2018 से वह सालाना कार्यक्रमों के जरिए देशभर के विद्यार्थियों, उनके माता-पिता और शिक्षकों से बात करते हैं. उनके सवालों का जवाब देते हैं और विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा या बोर्ड परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्रों को सुझाव देते हैं कि कैसे वे रोजमर्रा की जिंदगी में तनाव कम कर सकते हैं.

2024 का कार्यक्रम सोमवार को नई दिल्ली में हुआ. इस दौरान पीएम मोदी ने आगाह किया कि "दबाव इतना भी नहीं होना चाहिए कि वह आपकी क्षमताएं ही प्रभावित कर दे" और छात्रों को "अपनी क्षमताओं को चरम सीमा तक नहीं खींचना चाहिए." उन्होंने माता-पिता, परिजन और शिक्षकों से भी आग्रह किया कि विद्यार्थियों के प्रदर्शन पर "रनिंग कमेंट्री" करने से बाज आएं, क्योंकि इससे  "नकारात्मक तुलनाएं" होने लगती हैं और ये "विद्यार्थी की भलाई के लिए काफी निर्णायक साबित होता है." हालांकि, अकादमिक दबाव तो इस पहेली का सिर्फ एक सिरा है.

Still DW Beitrag Anxiety von Sophia Wagner
सिर्फ अकादमिक दबाव ही इकलौती वजह नहीं है, जिसके चलते युवा इतना बोझ महसूस कर रहे हैं.तस्वीर: DW

इतने तनाव की वजह क्या है?

नई दिल्ली से 24 साल के मोहित डीडब्ल्यू को बताते हैं कि उनके कई दोस्त शिक्षा की दुनिया से अपने करियर की शुरुआती अवस्थाओं तक के सफर को खासा मुश्किल मानते हैं.

वह कहते हैं, "कॉलेज की मेरी ज्यादातर पढ़ाई महामारी के दौरान हुई. चीजें जब सामान्य होने लगीं, तो मैं सहसा वर्किंग प्रोफेशनल बन चुका था. मुझे यह भी लगता है कि बहुत सारे कार्यस्थल टॉक्सिक हैं और उनका वर्क-लाइफ संतुलन काफी बुरा है. मेरी पीढ़ी इस चीज को स्वीकार करने को हरगिज तैयार नहीं है."

इस भावना की झलक उस अध्ययन में भी दिखाई देती है, जिसमें कार्यस्थल पर सेहत में गिरावट के संकेत दिए गए हैं. खासकर महिलाओं और जेन-जी के कर्मचारियों के लिए. सर्वे के मुताबिक महामारी ने "दफ्तरों को बुनियादी रूप से बदल डाला है और कर्मचारी बेहतर मानसिक तंदरुस्ती की अपेक्षा करने लगे हैं."

मानसिक स्वास्थ्य संगठन अमाहा में सीनियर क्लिनिकल मनोचिकित्सक प्रतिष्ठा त्रिवेदी मिर्जा ने डीडब्ल्यू से कहा, "हड़बड़ी या भागमभाग की संस्कृति के साथ दबाव भी रहता ही है. युवा खुद को लगातार मुस्तैद रखने की जरूरत महसूस करते हैं. फिर यह पर्याप्त न कर पाने या जितना सोचा था, उतना हासिल न कर पाने की कुंठा या चिंता में तब्दील होता जाता है.

"इसके अलावा युवा अक्सर अपने साथियों या अपने आदर्शों, जैसे नामी शख्सियतों, इन्फ्लूएंसरों और इंडस्ट्री के प्रासंगिक लोगों से अपनी तुलना करते हुए अपना नकारात्मक मूल्यांकन करने लगते हैं. इस वजह से स्वाभिमान की भावना कम होने लगती है और आत्मसम्मान कमजोर पड़ने लगता है."

'बच्चे पैदा करके क्या होगा?'

क्रेया यूनिवर्सिटी में सेपियन लैब्स सेंटर फॉर द् ह्यूमन ब्रेन एंड माइंड की एक रिपोर्ट के मुताबिक आय के विभिन्न स्तरों में करीब 51 फीसदी भारतीय युवा (18-24 साल) जूझ रहे थे या तनावग्रस्त थे. ये रिपोर्ट उन प्रतिभागियों से मिली सूचना पर आधारित थी, जिन्हें अप्रैल 2020 से अगस्त 2023 के दरमियान इंटरनेट हासिल था. महामारी के बाद मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट भी इसमें दिखाई गई.

बेंगलुरु से 22 साल की छात्रा अनीशा ने डीडब्ल्यू को बताया, "मेरी उम्र में मेरे माता-पिता की शादी हो गई थी और परिवार हो गया था. लेकिन मुझे नहीं लगता है कि मैं इस तरह के किसी वयस्क काम के लिए तैयार हूं. बच्चे पैदा करने की आखिर क्या तुक है? सब जगह से तो बुरी खबरें आ रही हैं. उम्मीद की कोई बात ही नहीं है." वह कहती हैं, "जब भी सोशल मीडिया देखती हूं, लगता है हर कोई मुझसे ज्यादा अच्छी जिंदगी बिता रहा है. लेकिन आप सोशल मीडिया को वास्तव में अनदेखा कर भी नहीं सकते."

मनोचिकित्सक मिर्जा कहती हैं कि दुनियाभर में चल रहे सामाजिक टकराव और युद्ध भी इस नए उपजे हालात का एक हिस्सा हैं.

"जेन-जी और मिलेनियल्स सोशल मीडिया के जरिए दुनिया से ज्यादा जुड़े हैं. एक तरह के विशेषाधिकार की ग्लानि भी रहती है, जब युवा महसूस करते हैं कि उनके पास कुछ अवसर और संसाधन हैं, जो दूसरों को उपलब्ध नहीं हैं. तमाम वैश्विक हालात भी. अलग-अलग देशों में युद्ध और दूसरे सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष और अनिश्चितताएं, जो ये मुद्दे लेकर आते हैं.  इस नौजवान पीढ़ी में तनाव को बढ़ा रही हैं."

गहरी नींद में भी सीखता है दिमाग

बहुत से लोग मदद पाने के इच्छुक

मानसिक स्वास्थ्य और तंदरुस्ती को लेकर भारतीय जागरूक होने लगे हैं. लिव लाफ लव फाउंडेशन के 2021 के एक सर्वे के मुताबिक 92 फीसदी प्रतिभागी अपने लिए या किसी परिचित के लिए उपचार पाने के इच्छुक थे. 2018 में ऐसे लोगों की संख्या 54 फीसदी थी. अध्ययन में सिर्फ महानगर ही शामिल थे, लेकिन इसमें दिखा कि आम जागरूकता बढ़ी है, खासकर नौजवान पीढ़ी में.

मिर्जा कहती हैं कि हालांकि, इस जागरूकता का युवा भारतीयों के बीच बेहतर मानसिक स्वास्थ्य के रूप में परिणीत होना बाकी है. "युवा लोग मानसिक सेहत से जुड़ी चिंताओं को पहचानने में ज्यादा सक्षम हैं, लेकिन वे इस बारे में सचेत नहीं होंगे कि इस बारे में करना क्या है. इसके अलावा सामाजिक शर्म और आत्म-संकोच मौके पर मदद मांगने के आड़े आती है." उनका कहना है कि विश्वसनीय संसाधन हर किसी को उपलब्ध भी नहीं हैं.

मिर्जा कहती हैं कि बात यह भी है कि बहुत सारी व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों पर जेन-जी का नियंत्रण नहीं है, जिससे उनके तनाव में और बढ़ोतरी होती है.

उनके मुताबिक, "मानसिक स्वास्थ्य के बारे में सजगता बढ़ी है और कोविड महामारी के बाद मानसिक बीमारियों के सिलसिले में मदद पाने को लेकर शर्म-संकोच की भावना भी घटी है. लेकिन, इस पर अभी बहुत काम बाकी है."