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जलवायु बैठकों की आखिर जरूरत ही क्या है?

आने सोफी ब्रैंडलीन
२२ अक्टूबर २०२१

दो हफ्तों से भी कम समय में ग्लासगो में कॉप 26 शुरू होने वाला है. शताब्दी की पिछली तिमाही में हुए जलवायु बैठकों से क्या हासिल हो पाया है और क्या नहीं- यहां इसका एक जायजा लेते हैं.

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Italien Mailand Protest Klimakrise Global march for climate justice
तस्वीर: Guglielmo Mangiapane/REUTERS

इस साल 31 अक्टूबर से 12 नवंबर तक ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन शाखा (यूएनएफसीसीसी) के तत्वाधान में 26वां जलवायु सम्मेलन होने जा रहा है. इसे कहा गया है कॉप26 यानी 26वीं कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज.

कॉप की पहली बैठक बर्लिन में 1995 में हुई थी. सदस्य देश तभी से उत्सर्जन में कटौती की जरूरत को देख रहे थे और ग्लोबल वॉर्मिंग पर नियंत्रण बनाए रखने के तरीकों पर चर्चा के लिए हर साल मिलने पर भी राजी हुए थे.

लेकिन इन 25 साल के में कौन से ठोस कदम उठाए जा सके? बहुत से जलवायु परिवर्तन एक्टिविस्टों के मुताबिक, ज्यादा कुछ नहीं. ग्रेटा थनबर्ग ने हाल में द गार्जियन अखबार को बताया, "पिछले कुछ सालों से वास्तव में कुछ नहीं बदला है. हम चाहे जितनी मर्जी कॉप कर लें लेकिन हकीकत में उनसे कुछ निकलने वाला नहीं.”

तो क्या हमें वाकई अब भी सीओपी यानी कॉप कही जाने वाली जलवायु बैठकों की जरूरत है?

पेरिस संधिः जलवायु बैठकों का मील का पत्थर

जानकार इस बात पर सहमत हैं कि इन तमाम सालाना बैठकों में महत्त्वपूर्ण प्रगति नहीं हो पाई थी और निर्णय लेने की गति भी उम्मीद से बहुत कम रही है. फिर भी उनका मानना है कि सीओपी की अभी तक की सबसे जीवंत उपलब्धि कॉप21 के तहत हुआ पेरिस समझौता है. ये जलवायु परिवर्तन के खिलाफ सबसे बड़ी वैश्विक संधि है.

वहां तक पहुंचने के लिए वार्ताओं के 20 साल खपाने पड़ सकते थे लेकिन 2015 में 196 देशों की मंजूरी से पेरिस समझौता अस्तित्व में आ गया जिसमें औद्योगिक काल पूर्व के स्तरों के मुकाबले ग्लोबल वॉर्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का लक्ष्य घोषित किया गया, वैसे इस कोशिश को प्राथमिकता देने पर सहमति बनी थी कि ये लक्ष्य डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक आ जाए.

गैर सरकारी पर्यावरणीय और विकास संगठन, जर्मन वॉच में अंतरराष्ट्रीय जलवायु राजनीति के टीम लीडर डेविड राइफिश कहते हैं कि पेरिस संधि जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में एक बड़ा बदलाव लाने में कामयाब रही और इसने हमारे आगे का रास्ता तय कर दिया. उन्होंने डीडब्लू से कहा, "मैं मानता हूं कि पेरिस संधि बदलावों की समूची ऋंखला का प्रारंभिक बिंदु है. ये वो संकेत है जो वास्तविक अर्थव्यवस्था को मिला है, दूसरे अभिप्रेरकों को भी ये संकेत गया है कि देशों की मंशा वास्तविक है और इसके वास्तविक निहितार्थ होंगे.”

रीफिश के मुताबिक कॉप और उसका पेरिस समझौता पहले ही अमल में आ चुका है यानी उसका असर दिख रहा है. साफ ऊर्जा की कीमतों में नाटकीय गिरावट आई है, वित्तीय सेक्टर फॉसिल ईंधनों से दूर जा रहा है और नये कोयला प्रोजेक्टों में अनिच्छा दिखाने लगा है, और देशों में कोयले और ईंधन से निजात पाने की कोशिशें तेज की जा रही हैं.

सीओटू की चुनौती

फिर भी समझौते के सबसे करीबी प्रभावों को वाकई जज्ब कर पाना कठिन है.

पेरिस संधि और कॉप की चुनौती ये है कि वो सीओटू के इर्दगिर्द बुनी गई है. ये वो ग्रीनहाउस गैस है जो आज दुनिया में सबसे ज्यादा गर्मी पैदा करने की जिम्मेदार है.

लैंकास्टर यूनिवर्सिटी में जलवायु वैज्ञानिक पॉल यंग ने डीडब्लू को बताया, "अगर हम जलवायु समस्या से निपटना चाहते हैं तो सीओटू हमारा प्रमुख मुद्दा होना चाहिए. सीओटू हर चीज को अपनी चपेट में ले लेती है, पूरी अर्थव्यवस्था को. और उस तेल के टैंकर को हटाना काफी कठिन हो जाता है. कार्बन डाइऑक्साइड ऐसी कोई चीज नहीं है जिसे हम दूसरे रसायन से जब चाहें बदल दें.”

स्वीडन की उप्पासला यूनिवर्सिटी में राजनीतिविज्ञानी चार्ल्स पार्कर के अध्ययन के केंद्र में जलवायु परिवर्तन की राजनीति, नेतृत्व और संकट प्रबंधन जैसे मुद्दे रहे हैं. वह इस बात से सहमत हैं. वह कहते हैं, "हमें आखिरकार फॉसिल ईंधनों का विकल्प तो देखना ही पड़ेगा और निम्न कार्बन वाले या कार्बन मुक्त ऊर्जा संसाधनों की तलाश करनी पड़ेगी. लेकिन कई सारे स्वार्थ भी जुड़े हैं. वीटो लगाने वाली शक्तियां हैं और ऐसी लॉबियां हैं जो ये सब तो होने नहीं देना चाहेंगी.”

हमारे ग्लेशियरों का बचना बहुत मुश्किल

महत्वाकांक्षी लक्ष्यों का निर्धारण आसान नहीं

इसीलिए कॉप में लक्ष्यों को लेकर वार्ताएं इतनी जरूरी और मूल्यवान हैं. पेरिस समझौते पर दस्तखत करने वाले हर देश को वादा करना था, इसे राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान, एनडीसी भी कहा गया कि अपने उत्सर्जनों को कम करने के लिए उनके पास क्या योजना है, कैसे कम करेंगे.

समय के साथ उन्हें इन लक्ष्यों को और महत्वाकांक्षी बनाना होगा यानी उन्हें और करीब लाना होगा. इस प्रक्रिया को रैचिट प्रविधि भी कहा जाता है. इस तरह हर पांच साल में देशो को अपने नये अपडेटड योगदानों का ब्यौरा जमा करना होगा जिससे ये पता चल पाए कि 2015 मे किए गए वादों को वे किस तरह पूरा करना चाहते हैं.

रीफिश कहते हैं, "2015 और 2020 के दरम्यान हम इन लक्ष्यों में महत्त्वपूर्ण सुधार आता देख चुके हैं. डेढ़ डिग्री सेल्सियस के हिसाब से तो ये पर्याप्त नहीं हैं लेकिन उल्लेखनीय सुधार तो हैं ही. यह पहला स्पष्ट संकेत है कि कोई चीज काम तो कर रही है.”

कई आलोचक जो समस्या देखते हैं वो ये है कि देश अगर अपने लक्ष्य हासिल न कर पाएं तो उन पर किसी किस्म के वित्तीय या कानूनी प्रतिबंध नहीं हैं. रीफिश कहते हैं ये प्रतिबंध बल्कि जन दबाव से ही आते हैं क्योंकि देशों को अपनी साख भी बचानी होती है. वो कहते हैं, "इस तरह ये पूरा मामला असल में सिविल सोसायटी, युवाओं के आंदोलन और अकादमिक जगत की भूमिका तक आ जाता है कि वे लोग ही अपने अपने देशों में सरकार से जवाब तलब करें. जाहिर है कुछ देशों की अपेक्षा कुछ अन्य देशों में ये तरीका बेहतर काम करता है. लेकिन पेरिस के निष्कर्षों और जमीनी स्तर पर सिविल सोसायटी के पिछले कई वर्षों के दौरान की कार्रवाइयों में एक सहजीविता तो है ही.”

कॉप और जलवायु कार्रवाईः एक सहजीवन

इस सहजीविता की ओर इशारा करने वाला दूसरा संकेत है यूरोप में हाल के दो अदालती मामले. जर्मनी की संघीय अदालत ने फैसला दिया कि युवाओं की आजादी और बुनियादी अधिकारों का हनन, अपर्याप्त जलवायु सुरक्षा के रूप में पहले ही काफी किया जा चुका है.

उधर नीदरलैंड्स में एक अदालत ने गैस कंपनी शेल को अपने विश्वव्यापी सीओटू उत्सर्जन में, 2019 के स्तरों की तुलना में, 2030 तक 45 प्रतिशत की कटौती करने का आदेश दिया है.

रीफिश करते हैं, "अब जबकि हमारे पास कामयाबी की ये कहानियां है, मैं मानता हूं कि और कंपनियां और देश भी अदालतों के कठघरे में खड़े किए जाते रहेंगे.”

वह मानते हैं कि इसके नतीजा एक चेन रिएक्शन के रूप में होगा और अदालतों से बचने के लिए कंपनियों और देशों को कार्रवाई के लिए मजबूर करेगा.

वह कहते हैं, "सीओपी यानी कॉप के बिना ये सब बिल्कुल भी मुमकिन नहीं होता.”

तो अपनी कमियों के बावजूद, जानकारों को उम्मीद है कि वैश्विक सरकारों की आगामी जलवायु बैठक भविष्य के लिए बहुत ही अहम है.

रीफिश कहते हैं, "मैं पक्के तौर पर मानता हूं कि हमें सीओपी की जरूरत है. हम लोग एक निर्णायक दशक में हैं जहां हम डेढ़ डिग्री सेल्सियस की हद में अभी भी रह सकते हैं. ग्लासगो की बैठक को दिखाना होगा कि सीमा तो डेढ़ डिग्री की ही है.”

लेकिन वहां तक पहुंचना आसान नहीं होगा. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, अगरचे संपन्न देश उत्सर्जनों में कटौती को लेकर प्रतिबद्ध नहीं होते हैं तो इस शताब्दी के अंत तक दुनिया 2.7 डिग्री सेल्सियस गर्मी के विनाशकारी रास्ते पर होगी.

जलवायु परिवर्तन के खिलाफ हथियार

दुनिया की सरकारों के सामने चुनौती

विशेषज्ञों का मानना है कि सीओपी बैठकें निरर्थक नहीं हैं और लक्ष्यों तक पहुंचने के साफ-स्पष्ट रास्ते की स्थापना के लिए आने वाले वर्षों में उनकी जरूरत बनी रहेगी.

रीफिश के मुताबिक विकसित देश उत्सर्जन में कटौती के अपने वादे पूरे नहीं कर पाए- ये देखते हुए उन्हें भरपाई का एक ऐसा तरीका खोजना होगा ताकि विकासशील देशों को ही सारा खामियाजा न भुगतना पड़े.

वह कहते हैं, "हमें समझना होगा कि कई देशों को विकास की जरूरत है लेकिन इसके लिए वे फॉसिल ईंधन का वही भयंकर रास्ता नहीं अख्तियार कर सकते जो एक दौर में अमीर देशों ने किया था.”

राजनीतिविज्ञानी चार्ल्स पार्कर इस बात से सहमत हैं कि इसीलिए विकसित देशों के लिए ये अत्यधिक महत्त्व की बात होनी चाहिए कि वो विकासशील देशों के साथ एकजुटता दिखाएं और उनकी वित्तीय सहायता करें.

वह कहते हैं, "तो पेरिस का ये दूसरा इम्तहान है.”रीफिश आशावादी हैं कि पेरिस समझौता इस इम्तहान को पास कर लेगा. वह कहते हैं, "पिछले वर्षों में मैंने नये मोड़, क्रांतिकारी बदलाव देखे हैं. मैंने कार्रवाई में आती तेजी देखी है और देखा है कि चीजें घटित हो पा रही हैं और आखिरकार, कॉप वो सब डिलीवर कर रहा है जिसकी हम यूं उम्मीद कर रहे होते कि वो पिछले दशकों पहले ही दे चुका था.”

 

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